*मुंशी प्रेमचंद जी की एक "सुंदर कविता", जिसके एक-एक शब्द को, बार-बार "पढ़ने" को "मन करता" है-_*
ख्वाहिश नहीं, मुझे
मशहूर होने की,"
_आप मुझे "पहचानते" हो,_
_बस इतना ही "काफी" है।_😇
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,_
_जिसकी जितनी "जरूरत" थी_
_उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!_
_जिन्दगी का "फलसफा" भी_
_कितना अजीब है,_
_"शामें "कटती नहीं और_
-"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!_
_एक अजीब सी_
_'दौड़' है ये जिन्दगी,_
-"जीत" जाओ तो कई_
-अपने "पीछे छूट" जाते हैं और_
_हार जाओ तो,_
_अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं!_😥
_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर,_
_मुझे अपनी_
_"औकात" अच्छी लगती है।_
_मैंने समंदर से_
_"सीखा "है जीने का तरीका,_
_चुपचाप से "बहना "और_
_अपनी "मौज" में रहना।_
_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई "ऐब "नहीं है,_
_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।_
_जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से_,
_मेरे "दुश्मन",_
-एक मुद्दत से मैंने_
_न तो "मोहब्बत बदली"_
_और न ही "दोस्त बदले "हैं।_
_एक "घड़ी" खरीदकर_,
_हाथ में क्या बाँध ली,_
_"वक्त" पीछे ही_
_पड़ गया मेरे!_😓
_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा "सुकून" से,_
-पर घर की जरूरतों ने_
_"मुसाफिर" बना डाला मुझे!_
_"सुकून" की बात मत कर-
-बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता!_😓😥
_जीवन की "भागदौड़" में_
_क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?_
-हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है!_😢
_एक सबेरा था_
_जब "हँसकर "उठते थे हम,_😊
-और आज कई बार, बिना मुस्कुराए_
_ही "शाम" हो जाती है!_😓
_कितने "दूर" निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_😘
_खुद को "खो" दिया हमने_
_अपनों को "पाते-पाते"।_😥
_लोग कहते हैं_
_हम "मुस्कुराते "बहुत हैं,_😊
_और हम थक गए_,
_"दर्द छुपाते-छुपाते"!😥😥
_खुश हूँ और सबको_
_"खुश "रखता हूँ,_
_ *"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए_*
*-मगर सबकी "परवाह" करता हूँ।_😇🙏*
*_मालूम है_*
*कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी_*
*कुछ "अनमोल" लोगों से_*
*-"रिश्ते" रखता हूँ।*