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गुरु जी की प्रेरणादायक पोस्ट Inspirational post by Guruji

"प्रेममय जीवन"----

  जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है, उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना और जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना यह बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है। 

          अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना यह पूरी तरह अहमता का लक्षण होता है। प्रेम ही ऐसा हथियार है जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है । प्रेम से किसी के ऊपर विजय प्राप्त करना ही सच्ची विजय है।

            आज प्रत्येक घर में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। आग को आग नहीं बुझाती, पानी बुझाता है। प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है। पशु -पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते है। तुम प्रेम बाटों, इसकी  सुगंध तुम्हारे जीवन को भी सुगंधित कर देगी।

झाँक रहे है इधर उधर सब। अपने अंदर झांकें  कौन ?

   ढ़ूंढ़ रहे दुनियाँ  में कमियां । अपने मन में ताके कौन ?

   दुनियाँ सुधरे सब चिल्लाते । खुद को आज सुधारे कौन ?

   पर उपदेश कुशल बहुतेरे, खुद पर आज विचारे कौन ?

   हम सुधरें तो जग सुधरेगा- यह सीधी बात स्वीकारे कौन?"              

             ईमानदारी का तकाजा है कि औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोकमंगल के लिए लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता, बढ़ी हुई कमाई को ऐय्याशी में, बड़प्पन के अहंकारी प्रदर्शन में खर्च किया जायेगा या बेटे पोतों के लिए जमा किया जायेगा, तो ऐसा कर्त्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जाएगा।

          अपने स्वजन-परिजनों को नव निर्माणों के लिए कुछ करने के लिए कहते-सुनते रहने का अभ्यस्त मात्र न बना दें, वरन् कुछ तो करने के लिए उनमें सक्रियता पैदा करें। थोड़े कदम तो उन्हें चलते-चलाते अपनी आँखों से देख लें। हमने अपना सारा जीवन जिस मिशन के लिए तिल-तिल जला दिया, जिसके लिए हम आजीवन प्रकाश-प्रेरणा देते रहे उसका कुछ तो सक्रिय स्वरूप दिखाई देना चाहिए। हमारे प्रति आस्था और श्रद्धा व्यक्त करने वाले क्या हमारे अनुरोध को भी अपना सकते हैं।

         समय, साधन, सुविधा और सामर्थ्य होते हुए भी हम परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ सोच और कर नहीं पाते यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बंधन है। उसे तोड़कर फेंका जा सकता हो और उच्च विचारणा के अनुरूप आदर्शवादी परमार्थ परायण जीवन जिया जा सकता हो तो समझना चाहिए कि मुक्ति मिल गई। सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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दान, ज्ञान और अभिमान----

   देने के लिए दान, लेने के लिए ज्ञान और त्यागने के लिए अभिमान श्रेष्ठ है। उस प्रभु ने आपको सामर्थ्यवान बनाया है तो अवसर मिलने पर अपनी सामर्थ्यानुसार परमार्थ और परोपकार में अवश्य दान करो। आपका दान किसी और के लिए नहीं होता अपितु समय आने पर वो आपके पास ही कई गुना लौटकर आता है।

     शास्त्रों का मत है कि रत्न यदि कीचड़ में भी पड़े हों तो उन्हें वहाँ से भी उठा लेना चाहिए। उसी प्रकार ज्ञान जहाँ से भी मिले अवश्य ग्रहण करना चाहिए। यद्यपि हम बहुत कुछ जानते हैं पर सब कुछ कभी नहीं जानते हैं। हर किसी को परमात्मा ने कुछ न कुछ विशेष गुण प्रदान किया गया है। हर व्यक्ति का जीवन के प्रति अपना एक अनुभव होता है इसलिए जब और जहाँ अवसर मिले ज्ञान लेने में संकोच नहीं करना चाहिए।

   जीवन में सब कुछ त्यागने के बावजूद भी यदि अभिमान शेष रहा तो समझो पतन सुनिश्चित है। इसीलिए महापुरुषों ने आदेश किया कि यदि जीवन में त्यागने जैसा कुछ है तो अभिमान है। सर्व प्रथम अभिमान का त्याग करें क्योंकि अभिमान के त्याग के बाद कोई भी वस्तु, पदार्थ अथवा व्यक्ति आपके बंधन का कारण नहीं बन सकता।

अमूल्य संबंधों की तुलना कभी धन से न करे क्योंकि धन दो दिन काम आयेगा जबकि संबंध उम्र भर काम आयेंगे, जिंदगी में रिश्ते भी मैले हो जाते हैं, लिबासों की तरह, कभी-कभी इनको भी प्यार से धो डाला कीजिए, जिंदगी में एक दूसरे के जैसा होना जरूरी नहीं होता एक दूसरे के लिए होना जरूरी होता है. 

                 परिवार को बल से नहीं, प्रेम से ही जीता जा सकता है। अपनों को हराकर आप कभी नहीं जीत सकते अपितु अपनों से हारकर ही आप उन्हें जीत सकते हैं। जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही तो बुद्धिमान है। 

                  वर्तमान समय में परिवारों की जो स्थिति हो गयी है वह अवश्य चिन्तनीय है। घर-परिवार में आज सुनाने को सब तैयार हैं पर  सुनने को कोई तैयार ही नहीं। रिश्तों की मजबूती के लिये हमें सुनाने की ही नहीं अपितु सुनने की आदत भी डालनी पड़ेगी।

                   अपने को सही साबित करने के चक्कर में पूरे परिवार को ही अशांत बनाकर रख देना कदापि उचित नहीं। माना कि आप सही हैं पर कभी-कभी परिवारिक शान्ति बनाये रखने के लिये बेवजह सुन लेना भी कोई अपराध नहीं। जिन्दगी की खूबसूरती केवल ये नहीं कि आप कितने खुश हैं, अपितु ये है कि आपसे कितने खुश हैं।  सुप्रभातम्  ।🙏

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#विवाहिता_स्त्री_को_गुरू_करना_चाहिये_या_नहीं ? 

आइए इसके बारे में हमारे शास्त्र क्या कहते हैं ,देखें।

*पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई।

गुरूग्निद्विर्जातिनां वर्णाणां ब्रह्मणो गुरूः।

पतिरेकोगुरू स्त्रीणां सर्वस्याम्यगतो गुरूः।।

(पदम पुं . स्वर्ग खं 40-75)_

अर्थ : *अग्नि ब्राह्मणो का गुरू है।अन्य वर्णो का ब्राह्मण गुरू है। एक मात्र उनका पति ही स्त्रीयों का गुरू है, तथा अतिथि सब का गुरू है।

पतिर्बन्धु गतिर्भर्ता दैवतं गुरूरेव च।

सर्वस्याच्च परः स्वामी न गुरू स्वामीनः परः।।

(#ब्रह्मवैवतं पु. कृष्ण जन्म खं 57-11)

अर्थ > *स्त्रियों का सच्चा बन्धु पति है, पति ही उसकी गति है। पति ही उसका एक मात्र देवता है। पति ही उसका स्वामी है और स्वामी से ऊपर उसका कोई गुरू नहीं।।

भर्ता देवो गुरूर्भता धर्मतीर्थव्रतानी च।

तस्मात सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत्।।

(स्कन्द पु. काशी खण्ड पूर्व 30-48)

अर्थ > *स्त्रियों के लिए पति ही इष्ट देवता है। पति ही गुरू है। पति ही धर्म है, तीर्थ और व्रत आदि है। स्त्री को पृथक कुछ करना अपेक्षित नहीं है।

दुःशीलो दुर्भगो वृध्दो जड़ो रोग्यधनोSपि वा।

पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।

(श्रीमद् भा. 10-29-25)

अर्थ > *पतिव्रता स्त्री को पति के अलावा और किसी को पूजना नहीं चाहिए, चाहे पति बुरे स्वभाव वाला हो, भाग्यहीन, वृध्द, मुर्ख, रोगी या निर्धन हो। पर वह पातकी न होना चाहिए।

रामचरितमानस के अरण्यकांड में माता अनसूयाजी ने मातासीता को पतिव्रतधर्म का उपदेश देते हुये कहा था, पढ़े भावार्थ सहित।

*मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥

अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥

भावार्थ:-हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥

* धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥

भावार्थ:-धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥

*ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥

भावार्थ:-ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥

*जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥

उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥

भावार्थ:-जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में (मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है॥

*मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥

धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥

भावार्थ:-मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥

*बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥

पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥

भावार्थ:-और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है॥

*छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥

बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥

भावार्थ:-क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥

*पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥

भावार्थ:-किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है॥

* सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।

जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥

भावार्थ:-स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी 'तुलसीजी' भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥

वेदों, पुराणों, भागवत आदि शास्त्रो ने स्त्री को बाहर का गुरू न करने के लिए कहा यह शास्त्रों के उपरोक्त श्लोकों से ज्ञात होता है। *आज हर स्त्री बाहर के गुरूओं के पीछे पागलों की तरह पड जाती हैं तथा उनके पीछे अपने पति की कड़े परिश्रम की कमाई लुटाती फिरती हैं।

आज सत्संग आध्यात्मिक ज्ञान की जगह न होकर व्यापारिक स्थलबन गया है।इसलिए सावधान हो जाइये।

गुरू करने से पहले देख लो कि वह गुरू जिन शास्त्रों का सहारा लेकर हमें ज्ञान दे रहा है, वह स्वयं उस पर कितना चल रहा है? हिन्दू धर्म में पति के रहते किसी को गुरु बनाने की इजाजत नहीं है। आप कोई भी समागम देख लो,  औरतो ने ही भीड़ लगाई हुई है। परिवार जाए भाड़ में।  बाबा की सेवा करके मोक्ष प्राप्त करना है बस...

 सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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कर्मन की गति न्यारी' --- 

मनुष्य देह में ग्यारह छिद्र हैं जिनसे जीवात्मा का मृत्यु के समय शरीर से निकास होता है --- दो आँख, दो कान, दो नाक, एक पायु, एक उपस्थ, एक नाभि, एक मुख और एक मूर्धा|

यह मूर्धा वाला मार्ग अति सूक्ष्म है और पुण्यात्माओं के लिए ही है| इसमें जीवात्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है और उसकी सदगति होती है|

नरकगामी जीव पायु यानि गुदामार्ग से बाहर निकलता है| उसकी बड़ी दुर्गति होती है|

कामुक व्यक्ति मुत्रेंद्रियों से निकलता है और निकृष्ट योनियों में जाता है|

नाभि से निकलने वाला प्रेत बनता है|

भोजन लोलूप व्यक्ति मुँह से निकलता है, गंध प्रेमी नाक से, संगीत प्रेमी कान से,

और तपस्वी व्यक्ति आँख से निकलता है|

अंत समय में जहाँ जिसकी चेतना है वह उसी मार्ग से निकलता है और सब की अपनी अपनी गतियाँ हैं|

जो ब्राह्मण संकल्प कर के और दक्षिणा लेकर भी यज्ञादि अनुष्ठान विधिपूर्वक नहीं करते/कराते वे ब्रह्मराक्षस बनते हैं|

मद्य, मांस और परस्त्री का भोग करने वाला ब्राह्मण ब्रह्मपिशाच बनता है|

इस तरह कर्मों के अनुसार अनेक गतियाँ हैं| कर्मों का फल सभी को मिलता है, कोई इससे बच नहीं सकता|

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करो, निज चेतना को कूटस्थ में रखो आदि| अनेक महात्मा कहते हैं मूर्धा में ओंकार का निरंतर जप करो| योगी लोग कहते हैं कि आज्ञाचक्र के प्रति सजग रहो और ब्रह्मरंध्र में ओंकार का जप करो| इन सब के पीछे कारण हैं|

हमारा हर विचार एक कर्म है जो हमारे खाते में जुड़ जाता है| हम जो कुछ भी हैं, वह अपने प्रारब्ध कर्मों से हैं, और भविष्य में जो कुछ भी बनेंगे, वह अपने संचित कर्मों से बनेंगे| मृत्यु के समय मनुष्य के सारे कर्म उसके सामने आ जाते हैं, और उसके अगले जन्म की भूमिका बन जाती है| अंत समय में जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है| कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है|

सबसे बुद्धिमानी का कार्य है परमात्मा से परम प्रेम, निरंतर स्मरण का अभ्यास और ध्यान|

सूरदास जी का एक प्रसिद्ध भजन है ---

"ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।

सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥

उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥

सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥

मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥

सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी... सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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वैसे तो काम क्रोध लोभ ईर्ष्या द्वेष अभिमान आदि सभी दोष हानिकारक हैं। "फिर भी अलग-अलग स्थिति में अलग-अलग दोष कभी-कभी बड़ी हानि भी कर जाते हैं।"

         "उनमें से क्रोध भी एक ऐसा ही दोष है, जो बहुत बड़ी हानि कर देता है। व्यक्ति मन और वाणी पर थोड़ा संयम कर ले, तो क्रोध करने से बच सकता है, और छोटी हानियों से भी तथा बड़ी हानियों से भी वह बच जाता है।"

          क्रोध उत्पन्न होने का एक सामान्य नियम यह है कि "जब आपकी इच्छा पूरी नहीं होती, तब आपको क्रोध आता है। उससे बचने के लिए अपनी इच्छाओं को कम करें।" मन में ऐसा सोचें, "यदि हमारी यह इच्छा पूरी हो गई तो ठीक है। यदि पूरी नहीं हो पाई, तो "कोई बात नहीं।" ऐसे तीन शब्द मन में बोलने पर आपका क्रोध बहुत कम हो जाएगा अथवा पूरा ही नष्ट हो जाएगा।"

          कभी-कभी दूसरे लोग आपके साथ अन्याय कर देते हैं। तब भी आपको क्रोध आ सकता है।उस समय भी विशेष सावधानी का प्रयोग करें।      

         "सामान्य रूप से क्रोध तो आता ही थोड़ी देर के लिए है, यदि उतनी देर व्यक्ति अपने मन और वाणी पर संयम कर ले, तो वह उल्टा सीधा बोलने से बच जाएगा।" "और यदि संयम नहीं किया, तो क्रोध की स्थिति में न जाने ऐसी क्या बात बोल दे, कि परस्पर संबंध ही टूट जाए। चाहे वह संबंध, दो मित्रों में हो या पति-पत्नी में, अथवा ग्राहक व्यापारी में।" "किन्हीं भी दो व्यक्तियों का संबंध थोड़ा सा क्रोध अधिक कर लेने से, जीवन भर के लिए नष्ट हो सकता है। संबंध टूट जाने के बाद फिर पछताने से क्या लाभ!"

         इसलिए पहले से ही सावधान रहें। अपने मन, वाणी पर संयम रखें, और शांति से अपना जीवन जिएं। यह बात सदा याद रखें, कि "भौतिक सुख को भोगने की सारी इच्छाएं न कभी किसी की पूरी हुई और न भविष्य में होंगी। आप पर भी यही नियम लागू होता है।" सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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भगवान् का प्यार कैसा होता है?-----

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

भगवान् के प्यार के तीन तरीके हैं-पहला भगवान् जिसे प्यार करते हैं, उसे ‘संत’ बना देते हैं। संत यानी श्रेष्ठ आदमी। श्रेष्ठ विचार वाले, शरीफ, सज्जन आदमी को श्रेष्ठ कहते हैं। वह अन्तःकरण को संत बना देता है। दूसरा-भगवान् जिसे प्यार करते हैं उसे ‘सुधारक’ बना देते हैं। वह अपने आपको घिसता हुआ चला जाता है तथा समाज को ऊँचा उठाता हुआ चला जाता है। तीसरा-भगवान् जिसे प्यार करते हैं उसे ‘शहीद’ बना देते हैं। शहीद जिसने अपने बारे में विचार ही नहीं किया। समाज की खुशहाली के लिए जिसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, वह शहीद होता है। जो दीपक की तरह जला, बीज की तरह गला, वह शहीद कहलाता है। चाहे वह गोली से मरा हो या नहीं, वह मैं नहीं कहता, परन्तु जिसने अपनी अकाल, धन, श्रम पूरे समाज के लिए अर्पित कर दिया, वह शहीद होता है। जटायु ने कहा कि आपने हमें धन्य कर दिया। आपने हमें शहीद का श्रेय दे दिया, हम धन्य हैं। जटायु, शबरी की एक नसीहत है। यह भगवान् की भक्ति है। यही सही भक्ति है।

मित्रो,हनुमान जी भी भगवान् राम के भक्त थे।भक्त माँगने के मूड में नहीं रहता है।भक्त भगवान् के सहायक होते हैं।वह अपने लिए मकान,रोटी,कपड़ा या अन्य किसी चीज की चाह नहीं करता है,उसका तो हर परिस्थिति में भगवान् का सहयोग करना ही लक्ष्य होता है।वह अपनी सारी जिन्दगी भगवान् के लिए अर्पित कर देता है।हनुमान जी इसी प्रकार के भक्त थे।आज तो भक्त की पहचान है-राम नाम जपना, पराया माल अपना।’’ मित्रो,यह भक्ति नहीं है।आज बगुला भक्तों की भरमार है,जो माला को ही सब कुछ मानते हैं।भक्त वही है,जिसका चरित्र एवं व्यक्तित्व महान हो।

साथियो,हिरण्यकशिपु वह है,जिसे केवल पैसा दिखलाई पड़ता है,सोना दिखलाई पड़ता है,ज्ञान दिखलाई नहीं देता है।हिरण्याक्ष-जिसकी आँखों को केवल सोना ही दिखलाई पड़ता है।यह दोनों भाई थे।हिरण्यकशिपु को नरसिंह भगवान् ने मारा था और हिरण्याक्ष को वाराह अवतार ने मारा था।आज मनुष्य इसी स्तर का बन गया है।आप लोगों का आज यही स्तर है।आपकी भक्ति नगण्य है।रावण मोह में मारा गया और सीता लोभ में फँस गयी और मुसीबत मोल ले बैठी।जो भी व्यक्ति लोभ एवं मोह में फँस जाता है,वह भी इसी तरह मारा जाता है। लक्ष्मण जी ने एक रेखा खींची थी।मित्रो जो भी व्यक्ति अपनी मर्यादा को कायम नहीं रखता है,वह इसी प्रकार दुखी रहता है।आप कायदे एवं नियम का पालन कीजिए,यह हमें रामायण बतलाती है..!!

   सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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स्वर्ग और नर्क कहां है?-----

तथागत बुद्ध के पास एक सैनिक आया। उसने बुद्ध को प्रणाम किया और पूछा - भगवन! नरक और स्वर्ग का रास्ता कहां है और क्या है? उसकी बात सुनकर तथागत बुद्ध ने कहा—स्वर्ग और नरक का रास्ता क्या है, इसको जानने के पहले तुम यह बताओ कि तुम कौन हो और क्या करते हो?

सैनिक ने कहा— मेरी वेशभूषा से आप स्वयं समझ गये होंगे कि मैं एक सैनिक हूं और सेना में काम करता हूं।

तथागत बुद्ध ने कहा—तुम सैनिक हो। तुम्हारे जैसे मरियल आदमी को सैनिक किसने बना दिया?

इतनी बात सुनते ही सैनिक को एकदम गुस्सा आ गया। उसने कहा- मुझे आप मरियल कहते हैं। हाथ में उसने तलवार खींच ली। तथागत बुद्ध ने कहा-अच्छा, तुम्हारे पास तलवार भी है! लेकिन तुम्हारी तलवार तो बिलकुल भोथरी है, इससे तुम युद्ध क्या कर सकोगे? इससे तो घास भी नहीं कटेगी।

यह बात सुनकर सैनिक का गुस्सा सीमा पार कर गया और उसने कहा कि मेरी तलवार को भोथरी कहते हो, चाहूं तो अभी एक ही वार में तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दूं ।

सैनिक गुस्सा से कांपने लगा और लगा कि वह अब तथागत को मार ही देगा। बुद्ध ने जब देखा कि सैनिक गुस्से से कांप रहा है तब कहा—देखो, नरक का दरवाजा खुल गया है।

इतना सुनते ही सैनिक का गुस्सा एकदम शांत हो गया। तलवार को उसने म्यान में रखा और हाथ जोड़कर कहा कि भगवन! बड़ी भूल हुई। समझ में नहीं आया और मैं गुस्से में आ गया। मुझे क्षमा करें। इतना कहकर वह विनयावनत होकर उनके चरणों में गिर पड़ा। बुद्ध ने कहा- देखो, अब स्वर्ग का दरवाजा खुल गया है।

क्रोध नरक का दरवाजा है और विनम्रता तथा सहनशीलता स्वर्ग का दरवाजा है। मरने के बाद स्वर्ग-नरक मिलेगा यह केवल कहने की बात है। आज यदि विकारों में, गंदगी में जीवन जी रहे हैं, कर्म गंदे हैं, मन गंदा है, वाणी गंदी है तो आज हम नरक में जी रहे हैं।

बाहर का ऐश्वर्य स्वर्ग-मोक्ष नहीं देता। स्वर्ग और मोक्ष तो देगी मन-वाणी- कर्मों की निर्मलता। जितना जीवन पवित्र होगा उतना ही स्वर्ग और मोक्ष का अनुभव होगा।  सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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चिंता दुख का एक स्वैच्छिक रूप है------

बुद्ध एक बार ध्यान कर रहे थे।  उनके मन ने समस्याएं पैदा करना शुरू कर दिया और उन्हें आत्मज्ञान के मार्ग से विचलित कर दिया।  मानो उसके मन में सैकड़ों घोड़े दौड़ रहे हों।  लेकिन साधु साक्षी बना रहा और डर से अपनी पहचान नहीं बना पाया।  उनका मन हजारों हाथियों में बदल गया, जो उन्हें अपने साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए लुभा रहे थे, लेकिन बुद्ध फिर से केवल एक साक्षी थे... उन्होंने मन के खेल को देखा।*उनका मन मोहक मृग बन गया लेकिन फिर भी बुद्ध साक्षी बने रहे।  उसे लालच नहीं आया।

 अंत में, उसका मन एक प्यार करने वाले बच्चे में बदल गया, जो समुद्र में डूब गया, उसका ध्यान आकर्षित कर रहा था।  बुद्ध, करुणा से बाहर, अपने विचारों में विलीन हो गए और डूबते हुए बच्चे को बचाने के लिए अपने हाथ बढ़ा दिए।  बच्चा तुरंत एक राक्षस में बदल गया और बुद्ध को समुद्र की ओर खींचने लगा।  बुद्ध को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उन्होंने राक्षस को छोड़ दिया और साक्षी बने रहे।  राक्षस फिर से एक बच्चे में बदल गया और मदद की गुहार लगाने लगा।

 बुद्ध ने भाग न लेने पर साक्षी होने का अपना ध्यान जारी रखा।  बच्चा समुद्र में डूब गया और बुद्ध के मन को दर्शाते हुए एक प्रबुद्ध मन के रूप में उभरा।  यह एक नाटक है जो बुद्ध के आत्मज्ञान की ओर प्रयास का वर्णन करता है।

 अपने विचारों और भावनाओं के साक्षी बनना सीखें।  साक्षी भाव में किसी भी वस्तु का तादात्म्य नहीं होता।  पहचान दुख की ओर ले जाती है।  चिंता पहचान का एक रूप है।  वस्तुतः चिंता का अर्थ है मरोड़ और फाड़ देना।  क्या आपने देखा है कि जब आप चिंता करते हैं, तो आपका गतिमान केंद्र मुड़ जाता है?  चिंता की नकारात्मक स्थिति, अवसाद या भय... शरीर को हिलाने-डुलाने वाले केंद्र के रूप में दृढ़ता से प्रकट होता है।

 बस साक्षी बनो और पहचान मत बनाओ।  अपने शरीर, अपने दिमाग को आराम दें और अंत में केवल साक्षी बनें।  अपने 'मैं' को अपने तन और मन से तादात्म्य न होने दें।  यह डी-पहचान ध्यान है।

 चिंता की स्थिति में भावनाओं का क्या?

 सबसे पहले, चिंता और ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनात्मक अवस्थाओं को देखा और पहचाना जाना चाहिए।  आम तौर पर, हम उन्हें नहीं देखते हैं।  इसके बजाय, हम उनके हो जाते हैं।  जबकि एक नकारात्मक भावना हो रही है, एक दर्शक बनें।  तब भावना बादल की तरह होगी जो आती और जाती है।

 बाहर आने वाली नकारात्मक भावना को रोकने के लिए, बौद्धिक केंद्र के माध्यम से एक नई इच्छा का निर्माण करें।  यह दमन नहीं है क्योंकि आप इसे इस समझ के साथ कर रहे हैं कि यदि नकारात्मक भावनाओं को छोड़ दिया जाए, तो यह एक आहत शरीर का निर्माण करेगी।  बदले में यह आहत शरीर आप पर नियंत्रण कर लेगा।

 चिंता पहचान का एक रूप है।  यह फालतू है।  दुर्भाग्य से, हम में से बहुत से लोग सोचते हैं कि किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में चिंता करना सही है जिसे हम प्यार करते हैं।  दुख के इस स्वैच्छिक रूप को छोड़ दो।  चिंता करने से आप अपने आप को थका देते हैं।  आपकी ऊर्जा समाप्त हो जाती है।  समाप्त अवस्था में, कोई इष्टतम स्तर तक प्रदर्शन नहीं कर सकता है।  छोटे-छोटे कदम उठाना सीखें, चिंता करना छोड़ दें।  जैसे ही यह उभरता है चिंता को दूर करें।  अन्य केंद्रों को इसका समर्थन और पोषण करने की अनुमति न दें।

 आपका क्या मतलब है जब आप कहते हैं कि हम दो दुनियाओं में रहते हैं?

 एक दृश्य और बाहरी है जबकि दूसरा अदृश्य और आंतरिक है।  बाहरी आपका शरीर है जो दिखाई देता है।  भीतर तुम्हारा मनोविज्ञान है।  आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को अचेतन से चेतन सत्ता की ओर ले जाना है।

  सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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#शास्त्रों_में_सात_प्रकार_के_नमस्कार_कहे_गये हैं -

१. त्रिकोण प्रणाम

२. षट्कोण प्रणाम

३. अर्धचन्द्र प्रणाम

४. प्रदक्षिण प्रणाम

५. दण्ड प्रणाम

६. अष्टांग प्रणाम

७. उग्र प्रणाम

त्रिकोणमथ षट्कोणमर्द्धचन्द्रं प्रदक्षिणम् ।

दण्डमष्टाङ्गमुग्रञ्च सप्तधा नतिलक्षणम् ॥

१. त्रिकोण प्रणाम : ईशान से अग्निकोण जाकर पुनः वहाँ से ईशान तक आने से अथवा दक्षिण से वायव्य जाकर वहाँ से ईशान होते हुए पुनः दक्षिण आने से त्रिकोण प्रमाण संपन्न होता है।

२. षट्कोण प्रणाम : दक्षिण से वायव्य जाकर वहाँ से ईशान की ओर जाकर उस स्थान से दक्षिण की और जाकर उसका त्याग करते हुए आग्नेयकोण में प्रवेश करें और वहाँ से नैर्ऋत्य कोण जाकर वहाँ से उत्तर जायें, वहाँ से पुनः आग्नेय जाकर जो नमस्कार होता है उसे षट्कोण प्रणाम कहते हैं। यह शिव और माता दुर्गा को प्रिय है।

३. अर्धचन्द्र प्रणाम : दक्षिण से वायव्य जाकर और वहाँ से वापस दक्षिण जाकर अर्धचन्द्र नमस्कार होता है।

४. प्रदक्षिण प्रणाम : वर्त्तुलाकार प्रदक्षिणा करके जो नमस्कार किया जाता है, वहाँ प्रदक्षिणा नमस्कार है।

५. दण्डवत प्रणाम : अपना आसन स्थान त्याग कर पीछे जाकर बिना प्रदक्षिणा भूमि पर दण्डवत लेट कर दण्डवत प्रणाम हित है। यह सभी देवों के लिए हो सकता है।

६. अष्टांग प्रणाम : दण्डवत होकर हृदय, चिबुक, मुख, नासिका, ललाट, ब्रह्मरंध्र तथा दोनों कान क्रमशः भूमिस्पर्श कराने को अष्टांग प्रणाम कहते हैं।

७. उग्र प्रणाम : वर्त्तुलाकार  तीन प्रदक्षिणा करके जो नमस्कार किया जाता है और उसी समय ब्रह्मरंध्र को भूमि से स्पर्श कराया जाता है, उसे उग्र नमस्कार कहते हैं। यह भगवान विष्णु की भक्ति प्रदान कराता है।

महिलाओ के लिए वर्ज्य है अष्टांग।

यद्यपि अष्टांग के भी भेद प्राप्त हैं। (कालिकापुराण से) देखें चित्र। 

पूजा करने  से पहले और बाद में  शिवलिंग के सामने शिवजी का अर्धचन्द्र प्रणाम होता है। दण्डवत और अष्टांग भी कर सकते हैं।

त्रिकोण प्रणाम - शिवलिंग की परिक्रमा , एक जैसा नहीं है। शिव जी की परिक्रमा अर्धचन्द्राकार है। 

“अर्धचन्द्रं महेशस्य पृष्ठतश्च समीरिता, शिवप्रदक्षिणे मन्त्री अर्द्धचन्द्रक्रमेण तु”।

पंचांग प्रणाम भी प्रचलित है।

पञ्चांग भी है, साष्टांग अधिक प्रसिद्ध है किन्तु इनका उल्लेख उत्तरवर्ती ग्रंथों में मिलता है।

“ऊर्ध्वं प्राणा ह्युतक्रामन्ति यून: स्थविर आयति।

प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते॥“ (महाभारत, उद्योग पर्व)

“जब कोई माननीय वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं, फिर जब वह वृद्ध के स्वागत में उठकर खड़ा होता है, और प्रणाम करता है, तब प्राणों को पुनः वास्तविक स्थिति में प्राप्त करता है।“

माता पिता, आचार्य, विद्वान व वृद्ध जनों को उठकर प्रणाम करने से लंबी आयु, विद्या, यश, बल प्राप्त होती है।

जिनके मन तनिक भी संदेह हो कि क्यों प्रणाम करना चाहिए तो संदेह न रहे। सुप्रभातम्  ।🙏🙏

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जागरूक बनिये, हिम्मत रखिए और दुःखों से बाहर निकलिए-------

दुख एक बेहोशी की स्थिति है। हम दुखी इसलिए हैं क्योंकि हमें पता नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं, हम क्या सोच रहे हैं, हम क्या महसूस कर रहे हैं। इसलिए हम हर पल खुद से विरोधाभास करते रहते हैं। क्रिया एक दिशा में जाती है, सोच दूसरी दिशा में जाती है, भावना कहीं और होती है। हम बिखरते चले जाते हो हैं, हम और अधिक खंडित होते चले जाते हैं; यही दुख है - हम एकीकरण खो देते हैं, हम एकता खो देते हैं। हम बस एक परिधि बन जाते हैं। और स्वाभाविक रूप से एक ऐसा जीवन जो सामंजस्यपूर्ण नहीं है, वह दुखी, दुखद, किसी तरह ढोए जाने वाला बोझ, पीड़ा होगा।

लोग दुख में जी रहे हैं। इससे बाहर निकलने के दो ही रास्ते हैं: या तो वे ध्यानी बन जाएं--सजग, जागरूक, होशपूर्ण--यह कठिन बात है। इसके लिए हिम्मत चाहिए। सस्ता रास्ता है कुछ ऐसा खोजो जो तुम्हें तुमसे भी ज्यादा अचेतन बना सके, ताकि तुम दुख को अनुभव न कर सको। कुछ ऐसा खोजो जो तुम्हें बिलकुल असंवेदनशील बना दे, कोई नशा, कोई दर्दनिवारक जो तुम्हें इतना अचेतन कर दे कि तुम उस अचेतनता में भाग सको और अपनी चिंता, पीड़ा, अर्थहीनता सब भूल जाओ।

दूसरा रास्ता सच्चा रास्ता नहीं है। दूसरा रास्ता सिर्फ तुम्हारे दुख को थोड़ा ज्यादा सहने योग्य बनाता है, लेकिन यह तुम्हें रूपांतरित नहीं करता। एकमात्र परिवर्तन ध्यान से होता है, क्योंकि ध्यान ही एकमात्र ऐसा तरीका है जो तुम्हें जागरूक बनाता है। मेरे लिए ध्यान ही एकमात्र सच्चा धर्म है।

 दुख-सुख जीवन का हिस्सा हैं। जीवन चुनौतियों से भरा है और सबसे बड़ी चुनौती तब आती है जब हम किसी सदमे या दुख से गुजरते हैं और कई बार इस दुख से कभी उबर ही नहीं पाते।

दुख की स्थिति अक्सर हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। सबसे ज्यादा दुख से अक्सर अपने प्रियजनों को खोने का होता है जो कई बार दुख से ज्यादा सदमा बन जाता है। इस लेख में हम आपको 3 ऐसे महत्वपूर्ण टिप्स के बारे में बताएंगे जो आपको दुख से बाहर आने में मदद कर सकते हैं। जरूरी नहीं कि ये टिप्स आपको दुख से निकाल ही दें क्योंकि ये आपकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि आप इससे बाहर आना भी चाहते हैं या नहीं।

दुख और ग्रीफ से निपटते समय, अपने लक्ष्यों को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है। पहले तय करें कि आप चाहते क्या हैं? क्या आप दुख से निकलना चाहते हैं या जिंदगी भर इसी दुख में डूबे रहना चाहते हैं। अपने मन को दुख से निकालने के लिए एक लक्ष्य जरूर बनाएं। अक्सर कोई लक्ष्य ना होने के कारण दिमाग बार-बार उसी लूप में चलता है जहां वो पहले होता है। लक्ष्य बनाने से दिमाग भी उसी दिशा में सोचता है जो आपका गोल होता है।

आध्यात्मिक अभ्यास दुख और ग्रीफ से निपटने का एक महत्वपूर्ण साधन है। ध्यान, प्राणायाम या साधना, ये सभी आध्यात्मिक अभ्यास के तरीके हैं आप जिसमें भी सहज महसूस करते हैं उसे अपनाइए। ऐसा करने से आप मानसिक शांति का अनुभव करेंगे और आपका दिमाग दुख देने वाली बातों से अलग कुछ सोचेगा।

हर परिस्थिति में मनुष्य का समभाव में बना रहना श्रेष्ठ माना गया है। हमारे समाज में समत्व को बड़ी साधना का दर्जा प्राप्त है, जहां सुख-दुख, लाभ-हानि और जीवन-मरण जैसी तमाम अनुकूल और विपरीत परिस्थितियों में मन को एक समान बनाए रखने के लिए ‘समत्वं योग उच्यते’ की गहन बात अनेकों बार सामने आती रही है।

संतों ने संसारी दुख से मुक्त होने के कई सरलतम रास्ते बतलाए हैं, जिनमें सबसे सुगम दूसरों को सुख पहुंचाना है। समाज में सुख को बांटने से अपना दुख अपने आप ही मिट जाता है। निस्संदेह यह एक वैश्विक मान्यता है। विशेषकर छोटे बच्चों को खुशी बांटना अनुभव की भाषा में सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया है। उनकी अबोध और निसंगता से भरी मुस्कान भीषण पीड़ाओं को दूर करने में सक्षम है। यकीनन यह मुस्कान वह अमृत है, जो अवसादित मन को सहजता से दुखों से मुक्त करती है और असल आनंद से युक्त करती है। सुप्रभातम्  ।🙏🙏


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