अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।
14. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।
16 निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
अर्थ: जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
17. दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
18. कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
19. हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।
20. कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
अर्थ: कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है।
अर्थ:कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।
अर्थ: कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
अर्थ: यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है। —
अर्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।
27
अर्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।
28
अर्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
29
अर्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।
30
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।
31
अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।
32
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
33
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।
34
अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।
35
अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
36
अर्थ: कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागृति को हासिल कर प्रभु का नाम लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?
37
अर्थ: देखते ही देखते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।
38
अर्थ: रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के सामान बहुमूल्य था जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ? एक कौड़ी –
39
अर्थ: खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही उसके फल सुलभ होते हैं।
40
अर्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है.सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है. निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
41
अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
42
अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है.
43
अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.
44
अर्थ: थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है. चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए.
45
अर्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा. हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते !
46
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता.
47
अर्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है.
48
अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो. तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो. यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे.
49
अर्थ: मानव जन्म पाना कठिन है. यह शरीर बार-बार नहीं मिलता. जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता .
50
अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया. कुछ भी हाथ नहीं आया.
51
अर्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है. हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ. मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?
52
अर्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा – जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खुश हाल हो गया – यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते
53
अर्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की सार्थकता है. प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है.
54
अर्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं
55
अर्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है !
56
अर्थ: हे प्रिय ! ( प्रभु ) तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं !
57
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता. जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
58
अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है. स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है. हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निस्सार है.
59
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं. हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता ! जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह इस संसार में होता है !.
60
अर्थ: कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और (आप भी) धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए
61
अर्थ: जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे. जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सुन्दर बना –
62
अर्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया. कुछ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो ! जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है – उसे खबर भी नहीं लगती – नुक्सान हो चुका होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच सकते हैं ! इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को -( जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर – अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत !
63
अर्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – (अर्थात शरीर का अंग अंग )- शैवाल अर्थात काई में बदल गई. इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो
64
अर्थ: यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं.यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा. शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है – अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते !
65
अर्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो ! जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो !
66
अर्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं. इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं.
67
अर्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है. सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा – मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता. अर्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है !
68
अर्थ: ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं – जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है
69
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं जिनके सर पर ( विषय वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं भव सागर में डूबने से बच जाते हैं
70
अर्थ: मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?
71
अर्थ: ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए !
72
अर्थ: यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?
73
अर्थ: मन की इच्छा छोड़ दो.उन्हें तुम अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते. यदि जल से घी निकल आवे, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!
74
अर्थ: न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका. आशा, तृष्णा कभी नहीं मरती – ऐसा कबीर कई बार कह चुके हैं.
75
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे. सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा.
76
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥
अर्थ: जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है. पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है.
77
अर्थ: प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है.जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं.
78
अर्थ: मैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने घर – अपने मन में झाँक कर देखा तो खुद से बुरा कोई न पाया अर्थात हम दूसरे की बुराई पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं निहारते !
79
अर्थ: कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है . लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है. इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में ही न रहना चाहिए .
80
अर्थ: यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं. पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है.
81
अर्थ: मूर्ख का साथ मत करो.मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है . संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है.
82
अर्थ: यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे.
83
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती. चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – (वामन – बौना ) भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा. वह सुवासित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा. आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा
84
अर्थ: जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना.
85
अर्थ: मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया
86
अर्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो .जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !
87
अर्थ: शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो – इन्हें अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल (अर्थात मृत्यु )उस पर हँसता है ! मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी दुखभरी बात है.
88
अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है.
89
अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है. किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी. मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे – उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे.
90
अर्थ: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है. ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?
91
अर्थ: जब तक मन में अहंकार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ. जब अहम समाप्त हुआ तभी प्रभु मिले. जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ – तब अहम स्वत: नष्ट हो गया. ईश्वर की सत्ता का बोध तभी हुआ जब अहंकार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी – पतली गली में एक ही समा सकता है – अहम् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम् का विसर्जन आवश्यक है.
92
अर्थ: ज्ञान से बड़ा प्रेम है – बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं. जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहेगा. प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है.
93
अर्थ: सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है. उससे यह न पूछो की वह किस जाति का है साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपूर्ण है. साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है. तलवार की धार ही उसका मूल्य है – उसकी म्यान तलवार के मूल्य को नहीं बढाती.
94
अर्थ: साधु का मन भाव को जानता है, भाव का भूखा होता है, वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी है वह तो साधु नहीं हो सकता !
95
अर्थ : बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके?
96
अर्थ: प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा. त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता. प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं !
97
अर्थ: कबीर कहते हैं कि सच्चा पीर – संत वही है जो दूसरे की पीड़ा को जानता है जो दूसरे के दुःख को नहीं जानते वे बेदर्द हैं – निष्ठुर हैं और काफिर हैं.
98
अर्थ: दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है. समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है. जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं ! सभी का अंत एक है !
99
अर्थ: रात सो कर बिता दी, दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया – इससे दुखद क्या हो सकता है ?
100
अर्थ: बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है.
101
अर्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं
102
अर्थ: देह धारण करने का दंड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है. अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है !
अर्थ: हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता है . कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है !
104
अर्थ: किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी. रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी – इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा. किन्तु सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है !
105
अर्थ: पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है. चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो. फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है !