दिवाली के आस - पास हर साल इतना वायु प्रदूषण क्यों होता है? Why Heavy Air Pollution surrounding Diwali festival every year?
वायु प्रदूषण का स्तर हमेशा दिवाली के आस – पास ही बेहद खतरनाक क्यों होता है? इस से क्या-क्या समस्याएं आती हैं?
वास्तव
में दिवाली हमेशा कार्तिक मास की अमावस्या को अक्टूबर या नवंबर के महीने में मनाया
जाने वाला एक प्रमुख त्योहार है और आप देखेंगे कि अक्टूबर और नवंबर एक प्रकार से
भौगोलिक दृष्टि से संक्रमण काल होता है। प्रकृति के दृष्टिकोण से, धीरे-धीरे ग्रीष्मकाल यानी मानसून सीजन समाप्त होता है और सर्द
ऋतु का आगमन होने लगता है। इससे वातावरण में संक्रमण (Change of Weather Conditions) की परिस्थिति होने के कारण नमी
(आर्द्रता / Moisture) बढ़ जाती है तथा तापमान (Temperature) गिरने लगता है, परिणामस्वरूप वायुदाब (Air Pressure) बढ़ने लगता है, यानि वायुदाब उच्च (H) (High) हो जाता है, जिससे वायु भारी (अर्थात नमी युक्त) होकर वायुमंडल के निचले स्तरों में धरातल के निकट ही रुकी रहती है। इस दौरान वायु
की क्षैतिज गति भी मंद पड़ जाती है, इस प्रकार अधिक वायुदाब एवं मंद पवन गति के कारण पटाखों,
फैक्ट्रियों, वाहनों एवं पराली जलाए जाने से उत्पन्न धुआँ अधिक ऊँचाई तक नहीं जा
पाता है तथा यह वातावरण के निचले स्तर में फैल कर वायु प्रदूषण के स्तर को खतरनाक (Severe) स्थिति तक पहुँचा देता है।
वायु प्रदूषण का भले ही स्रोत पटाखे, पराली, वाहन और उद्योग हों, लेकिन मूल कारण दिवाली जिस समय आती है उस दौरान मौसमी संक्रमण, वायु दबाव का कम होना और वायु का न चलना हैं।
इस
खतरनाक पोलूशन स्तर से निर्माण कार्यों आदि से उत्पन्न धूल तथा अनेक स्रोतों से
उत्पन्न धुआँ जब इस मौसम के दौरान छाने वाले कोहरे (Fog) से मिल जाता है तो यह धूम्र कोहरे (स्माग / Smog) (Smoke
+ Fog = Smog) का रूप ले
लेता है।
इस
प्रकार की परिस्थितियां हर वर्ष दिवाली के आसपास 15 से 20 दिन, दिल्ली एनसीआर में
विशेष रूप से देखने को मिलता है क्योंकि दिल्ली भारत की राजधानी है, बड़ा महानगर है और वहां पर अनेकों प्रकार के औद्योगिक कार्य और लाखों -
लाखों की संख्या में जो व्हीकल्स हैं, वे धुआँ छोड़ते रहते हैं और इसमें जो वातावरण
की संक्रमण की परिस्थितियां हैं वे महत्वपूर्ण रोल निभाती है। तो क्या होता है कि
वायु न चलने के कारण से वातावरण में नमी की मात्रा बढ़ने से जो धूल कण हैं वे जलवाष्प के साथ मिलकर वातावरण में तैरते
रहते हैं और वातावरण में इतने ज्यादा भर जाते हैं कि धूम्र कोहरे (Smog) की परिस्थितियां बन जाती हैं। जिसमें सांस लेना दूभर हो जाता है। सांस
लेने में दिक्कत आती है, लोगों को सांस संबंधी परेशानियां
होती हैं। जिनको साँसों की शिकायत होती है या अस्थमा होता है उनको बहुत ज्यादा
परेशानियां होती हैं, आंखों में जलन होती है, मनुष्य हाइपर टेंशन में रहता है, तो इस प्रकार की
बीमारियां और समस्याएं हमारे सामने आती हैं।
जिन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण अधिक होता है, वहां रात का तापमान भी बढ़ जाता है।
इस
समय खरीफ सीजन (मुख्यत: चावल) की समाप्ति हो रही होती है तो दिल्ली एनसीआर के
आसपास में हरियाणा,
पंजाब में धान की कटाई हो चुकी होती है। किसान अगली फसल (रबी ऋतु की
फसलें) लेने के लिए आलू, सरसों, गेहूं आदि की फसल बोने हेतु खेतों की तैयारी करते
हैं तो वे पुराली में पाबंधियों के बावजूद आग लगा देते हैं। उनके पास पराली जलाने
के अलावा इसके निस्तारण का कोई खास उपाय नहीं होता है। उनको ऐसा लगता है कि इस को
जलाना ही सबसे आसान है और जल्दी से इसका निदान हो जाएगा तो उसका जो धुआँ है वह
पूरे NCR में पोलूशन को बढ़ावा देता है।
तो
इसका समस्या का समाधान कैसे करें?
यह
तो सरकार और समाज दोनों की ही इच्छा शक्ति पर डिपेंड करता है। सरकार चाहे तो किसान
भाइयों को सब्सिडी दे सकती है। पुराली को कहीं ना कहीं रीयूज (पुन: प्रयोग), तथा रीसाइकिल कर सकती है। इसको गत्ता फैक्ट्री में गत्ता बनाने आदि के रूप
में कहीं ना कहीं प्रयोग में लाया जा सकता है तथा इससे कागज बनाए जा सकते
हैं।
दिल्ली
जैसे शहर में पोलूशन कंट्रोल करने के लिए सख्त नियम बनाए जा सकते हैं। जो गाड़ियां
और औद्योगिक क्षेत्र ज्यादा धुआँ देते हैं उनके ऊपर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए और हमें
ईमानदारी एवं निष्ठा से कानूनों को लागू करना पड़ेगा और साथ की साथ हमें अधिक से
अधिक पेड़ पौधे लगाने पड़ेंगे और हर साल इस सिचुएशन के आने से पहले ही हमें इसके
बचाव के उपाय कर लेने चाहिए।
यह समस्या प्राकृतिक के साथ – साथ मानवीय अधिक है। मानवीय कारणों को तो मनुष्य (समाज) ने ही दूर करना पड़ेगा। प्रकृति तो अपने आप को बहुत जल्दी ठीक एवं रिकवर कर लेगी। जैसा कि आप सब ने कुछ वर्ष पहले विश्वव्यापी संक्रामक महामारी कोरोना को देखा था। जिसके कारण से मानव जीवन पर बहुत अधिक कुप्रभाव पड़े। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई, जान माल की हानि हुई। पूरी दुनिया ने पहली बार लॉकडाउन जैसे शब्दों को सुना। भारत जैसे देश की बात करें तो भारत में पहली बार रेलवे को रोक दिया गया, पूरे के पूरे शहर बंद कर दिए गए, सब प्रकार के परिवहन साधन, जैसे - रेल, सड़क, वायुमार्ग, जलमार्ग आदि सब बंद हो गए, फैक्ट्रियां बंद रही, तो इसका मनुष्य के लिए तो बड़ा कुप्रभाव रहा है लेकिन वह कोरोना काल पर्यावरण के लिए या कहें प्रकृति के लिए वरदान साबित हुआ। प्रकृति को अपने आप को रीबूट करने का मौका मिल गया था, क्योंकि सभी प्रकार का जो कार्बन डाइऑक्साइड (CO 2) को उत्पन्न करने वाले स्रोत थे, जैसे – परिवहन के साधन, उद्योग धंधे वे सब बंद हो गए थे और वह लंबे समय तक बंद हो गए तो प्रकृति ने अपने आप को रीबूट कर लिया था। उसी कोरोना काल हुए Lockdown का प्रभाव रहा, कि पंजाब के लुधियाना जैसे शहर से कोई 200 किलोमीटर दूर धौलाधार की पहाड़ियां साफ स्पष्ट दिखाई देने लगी, नहीं तो पहले वहां पर धूल भरा वातावरण रहता था, कोहरा छाया रहता था तो कभी भी दिखाई नहीं देती थी, लेकिन वातावरण लॉकडाउन के कारण से इतना साफ हो गया था, कि वहां से बर्फीले क्षेत्र स्पष्ट दिखाई देने लगे। बगैर किसी दूरबीन के नंगी आंखों से।
इसी प्रकार से महेंद्रगढ़, रेवाड़ी से राजस्थान में फैली अरावली की पहाड़ियां भी साफ स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। भारत की गंगा नदी, जिस को साफ करने के लिए सरकार हमेशा से प्रयास (नमामि गंगे) करती रही हैं, 20000 करोड रुपए तक के बजट और खूब प्रयास करने के बावजूद भी गंगा साफ स्वच्छ नहीं हुई लेकिन लॉकडाउन के कारण प्रकृति ने मात्र 15 से 20 दिनों में ही गंगा को गंगोत्री से लेकर सुंदरबन डेल्टा तक बिल्कुल साफ सुथरा बना दिया। यह कोरोना महामारी के कुछ पॉजिटिव इंपैक्ट ही जा सकते हैं। प्रकृति को अगर मौका दे दिया जाए तो प्रकृति अपने आप को, अपने वातावरण को रीबूट कर सकती है। मेरा अपना मानना तो यह है कि हमें शायद दिवाली के आसपास 10 -15 दिन का देशव्यापी लॉकडाउन (छुट्टियाँ) हर वर्ष करना चाहिए। ताकि प्रकृति को 15 दिन में अपने आप को रीबूट करने का मौका मिल जाए और प्रकृति बहुत जल्दी अपने आप को रिकवर कर ले।
प्रकृति
को और पर्यावरण को बचाए रखने के लिए जितनी जिम्मेदारियां पर्यावरणविदों की, सरकारों की, देशों की है, उतनी
ही जिम्मेवारी एक जनसाधारण या सामान्य व्यक्ति की है। हम सब ने अपनी जीवनशैली और
कार्यशैली को इस ढंग से ढालना चाहिए कि हम हर कदम पर प्रकृति को बचाएं, प्राकृतिक वातावरण को बचाने के लिए, हम छोटे-छोटे
प्रयास कर सकते हैं। जैसे - हर वर्ष जब आपका जन्मदिवस आए,तीज
त्यौहार आए तो हम पेड़ पौधे लगा सकते हैं, बाजार में जाएं तो
प्लास्टिक की थैलियों के प्रयोग की बजाय हम घर से कैरी बैग लेकर जाए, जब पूरा कचरा डस्टबिन में डालने के लिए जाएं तो उसको डालने से पहले हम
देखें कि क्या हम इसको Reuse कर सकते हैं, Recycle कर सकते हैं यानी 3R (Reduce, Reuse & Recycle) का
ध्यान देना चाहिए। सूखा कचरा अलग रखें, गीला कचरा अलग रखें,
गीले कचरे को भी कोशिश करें कि उसका बायो खाद बनाया जा सके, जैविक खाद उसको बना सकते हैं, इसके अलावा पानी की हर
बूंद को बचाने का प्रयास करें, धूल धुआँ ना उत्पन्न करें,
ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रेरित करें, खुद
प्रेरित रहे, यदि आप प्रिंटिंग यूज कर रहे हैं तो पेपर को
दोनों साइड से यूज करें, यदि आप गाड़ी से office जाते हैं तो उसकी बजाए कारपूलिंग कर सकते हैं, टू
व्हीलर पूलिंग सकते हैं, इसके अलावा सार्वजनिक वाहनों के रूप
में रोडवेज की गाड़ियां, रेल परिवहन आदि का प्रयोग हम कर
सकते हैं। जिससे पर्यावरण प्रदूषण होने से बचाया जा सकता है।
और
अनेक कार्य हैं जिनको हम करते समय और प्रकृति की सुरक्षा का ध्यान रखें। हमें
ध्यान देना होगा और यह हमारे जीवन शैली का अभिन्न अंग होगा तभी शायद हम “माता प्रकृति” यानि पर्यावरण को बचा सकते हैं।
दिवाली भारत का सबसे प्रमुख त्योहार है। यह हर वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन श्रीत्रेतायुग में श्री राम चौदह वर्ष का वनवास काट कर और बुराई एवं अहंकार के प्रतीक रावण का वध (जिस दिन दशहरा मनाया जाता है) कर 20 दिन बाद (जिस दिन दिवाली मनाई जाती है) सरयू नदी किनारे बसे अयोध्या लौट आए थे। उनके आगमन की खुशी में अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाए थे। इसी दिन देवी माँ के लक्ष्मी रूप (शांत स्वरूप) तथा काली रूप (रौद्र रूप) की पूजा का भी विधान है। इसी दिन यानि कार्तिक मास की अमावस्या को अमृतसर में स्वर्ण मंदिर (गोल्डन टेंपल) का निर्माण शुरू हुआ था। इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने बिहार के पावापुरी में अपना शरीर त्याग दिया था।
जब श्री राम जी श्रीत्रेतायुग में इस दिन अयोध्या लौट आए थे, तो उनके आगमन की खुशी में अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाए थे। फिर वर्तमान दिवाली के त्योहार में हर वर्ष लगभग 2000 करोड़ रूपये के फोड़े या जलाए जाने वाले पटाखे और हजारों करोड़ के इलैक्ट्रॉनिक्स आइटम्स कहाँ से आ गए और इनका हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर किस रूप में प्रभाव पड़ता है?
कहते हैं दुनिया का पहला पटाखा लगभग आज से 2000 साल पहले चीन में हरे बाँसों (Bamboo) में आग फैंकने से गलती से फूटा था। धीरे – धीरे ये प्रचलन में आ गया और दुनिया भर में नव वर्ष, क्रिसमस, दिवाली तथा आज कल विवाह – समारोह आदि में भी पटाखे फोड़ने का रिवाज बन गया। पटाखों को अंग्रेजी भाषा में “क्रैकर”, फारसी में “तरके”, पुर्तगाली भाषा में “पनचाऊ” कहते हैं। भारत में तमिलनाडु के शिवकाशी को “पटाखों की राजधानी” कहा जाता है।
छोटी आयु में पटाखे फोड़ने से कुछ पल की खुशी जरूर मिलती है। लेकिन इससे वायु प्रदूषण,धन हानि और कभी – कभी शारीरिक हानि एवं आगजनी की घटानें भी हो जाती हैं।
त्योहार पर फोड़े जाने वाले इन पटाखों से दीपावली के आसपास दिल्ली एनसीआर में वायु प्रदूषण हर वर्ष अपने अति खतरनाक स्तर तक पहुँच जाता है। इन पटाखों के फोड़े जाने से ध्वनि प्रदूषण, भूमि प्रदूषण और वायु प्रदूषण, तीनों ही प्रकार के प्रदूषण होते हैं। इनमें बेहद खतरनाक रसायन, जैसे – पारा, सल्फर और सीसा आदि भी मिलता है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से पटाखों का प्रचलन थोड़ा – सा कम भी हुआ है, जिसके अनेक कारण हैं, जैसे – सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देश, सरकार द्वारा पटाखों के निर्माण एवं बिक्री पर पाबंधियाँ, ग्रीन पटाखों के निर्माण को छोड़कर बाकी सब पर पाबंधियाँ एवं भारी टैक्स, महंगाई तथा कोरोना जैसी महामारी के कारण लोगों में पर्यावरण के प्रति सजगता का आना आदि।
Abhimanyu Dahiya (PGT Geography) GMSSSS Model Town (Sonipat)


