🙏गुरु का स्थान🙏
एक राजा था, उसे पढने लिखने का बहुत शौक था। एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की। शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा। राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए, मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ। गुरु तो रोज खूब मेहनत करते थे मगर राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था।
राजा बड़ा परेशान हुआ और सोचने लगा कि गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत होगा। क्योंकि वे एक बहुत ही प्रसिद्ध और योग्य गुरु थे। आखिर में एक दिन उनकी रानी ने उनको सलाह दी, कि हे राजन! आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही क्यों नहीं पूछ लेते हैं ?
राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरू जी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी - हे गुरुवर! क्षमा कीजिएगा, मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है। ऐसा क्यों है ?
गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, "राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है"…।
"गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये", राजा ने विनती की।
गुरूजी ने कहा, “राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने ‘बड़े’ होने के अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दु:खी हैं। माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं।आप हर दृष्टि से मुझसे पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आपका और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है।
गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए, परन्तु आप स्वयं ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं। बस यही एक कारण है जिससे आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है।
आपके राजा होने के कारण मैं आपसे यह बात नहीं कह पा रहा था।
"कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वयं नीचे बैठें तो कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें।"
राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की ।
शिक्षा
मित्रों, इस छोटी - सी कहानी का सार यह है कि हम रिश्ते-नाते, पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है।
और
यहाँ स्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है, इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं।
🙏जय श्री राम 🙏