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कुरुक्षेत्र (Kurukshetra) में हीं महाभारत का धर्म युद्ध क्यों?

कुरुक्षेत्र में हीं महाभारत का धर्म युद्ध क्यों?

*धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।*
*मामका: पांडवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।*

अर्थात् `हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की ईच्छा वाले मेरे (कौरव) तथा पांडवो के पुत्रों ने क्या किया, बताओ ?

गीता का पहला प्रश्न, पहला श्लोक यहीं है । यहीं से गीता का पहला अध्याय प्रारंभ होता है ।

कुरुक्षेत्र क्यों पड़ा नाम ?
आखिर इस क्षेत्र का मुख्य नाम कुरुक्षेत्र होने के पीछे क्या कोई मुख्य आधार भी है ? इसका उत्तर जानने में एक ऐसी पौराणिक कथा का उल्लेख प्रासंगिक होगा जो अद्भूत है, जो चकित कर देती है ।
एकबार पांडव कौरव के पूर्वज महाराज कुरू एक भव्य स्वर्णिम रथ पर बैठकर यहाँ आये थे । देव योग से उनका स्वर्णिम यानी सोने का चमचमाता रथ यकायक सोने के हल में परिवर्तित हो गया ।
महाराज कुरू यह देखकर स्तब्ध हो गये । उन्होंने तत्काल यह निर्णय लिया कि क्यों न इस क्षेत्र में सोने के हल से बीज बोया जाय । इसके लिए उन्होंने भगवान शिव के वाहन नन्दी (बैल) तथा यमराज के वाहन भैंसे को बुलाकर सोने के हल में जोत दिये । तभी वहाँ उनके सामने भगवान विष्णु प्रकट हो गये ।
उन्होंने कहा- राजन् आप इसकी बजाय मानव-धर्म का कुछ कार्य कीजिए ।ʼ अब तीसरा चमत्कार हुआ कि सोने का वह हल उसी क्षण पृथ्वी में समा गया । यूँ समझिये कि इस क्षेत्र में वह गहराई में गड़ गया । तब से वह वहीं कहीं पृथ्वी के नीचे मौजूद तो है पर कहाँ, किस स्थान पर गड़ा अथवा समा गया ? पता नहीं । कहा तो यह भी गया कि हल पुनः स्वर्ण रथ में परिवर्तित हो गया था । 
जो भी हो, महाराज कुरू ने विष्णु के चक्र से हीं अपनी दायीं भुजा को हजारों टुकड़ों में काटकर उन्हें यहाँ बीज की तरह बो दिये । 
तब श्री विष्णु ने प्रसन्न होकर महाराज कुरू को दो वरदान दिया- 
पहला यह कि यह क्षेत्र अब उनके नाम पर कुरुक्षेत्र कहलायेगा । 
दूसरा यह कि इस भूमि पर जो मृत्यु को प्राप्त होगा वह सीधा स्वर्ग को जायेगा । 

महाराज कुरू ने हीं कुरुक्षेत्र को ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति का महान केन्द्र बनाया था । तब से यह क्षेत्र उनके नाम कुरू से `कुरुक्षेत्रʼ के नाम से पहचाना जाता है ।

कुरुक्षेत्र में हीं धर्म युद्ध क्यों ?
कुरुक्षेत्र पृथ्वी का प्राण-प्रधान हृदय प्रदेश है- यह बात अगणित प्रत्यक्ष कारणों से प्रमाणित की जा सकती है । महाभारत के धर्म युद्ध के लिए जब भूमि का चयन किया जाने लगा तो श्री कृष्ण सहित पांडवो ने देखा कि कुरुक्षेत्र प्रदेश के एक हलवाहक किसान का पुत्र खेत में खेलते-खेलते सर्पदंश का शिकार हो मृत्यु को प्राप्त हो गया, किसान ने अपने पुत्र के शव को भूमि में गाड़कर पूर्ववत् तत्काल पुनः हल जोतना आरम्भ कर दिया ।भगवान श्रीकृष्ण ने निश्चित किया कि जिस क्षेत्र के प्रभाव से अपठित किसान भी इतने प्राणवान हैं कि वे पुत्रशोक की उपेक्षा करके अपने कर्तव्यपालन में जुट जाते हैं, ऐसे क्षेत्र में किया युद्ध अवश्य हीं निर्णायक युद्ध होगा ।
कोई भी पक्ष यहाँ प्राणों के मोह से ʼʼधर्मयुद्धʼʼ से विचलित न होगा । अन्त में हुआ भी यहीं । श्रीमद्भगवद्गीता के आरम्भ में भी धृतराष्ट्र ने जो ʼकिमकुर्वतʼ प्रश्न किया है इसका स्वारस्य भी कुरुक्षेत्र में ʼधर्मक्षेत्रʼ विशेषण में निहित है, क्योंकि धर्मक्षेत्र होने के कारण वहाँ युद्धार्थ इकट्ठे होने पर भी क्षेत्र के प्रभाव से सद्बुद्धि आ जाने की सम्भावना की जा सकती थी । यदि धृतराष्ट्र के मन में यह आशा न होती तो ʼकिमकुर्वतʼ न पूछ कर ʼकथ्मयुष्न्तʼ ऐसा प्रश्न किया जाता ? परन्तु प्राणप्रधान क्षेत्र होने के कारण हीं वहाँ सन्धि का वातावरण न बन सका ।
कुरुक्षेत्र का ब्रह्मसरोवर ; ब्रह्मा ने किया था यहाँ प्रथम यज्ञ 
यहीं पर इसी क्षेत्र में एक सरोवर भी है । जिसका निर्माण स्वयं महाराज कुरू ने करवाया था । यहीं पर जगत् पिता ब्रह्मा ने सबसे पहला यज्ञ किया था । इसे ʼब्रह्म सरोवरʼ के नाम से जाना गया । कुरुक्षेत्र में स्थित इस पवित्रतम सरोवर (तीर्थ) का धार्मिक महत्व पुराणों तथा महाभारत तक में वर्णित है ।
ब्रह्माणमीसं कमलासनरस्थं विष्णुम् च लक्ष्मीसहिंत तथैव ।
रूद्रं च देवं प्रणिपत्य मूर्ध्रा तीर्थ वरं ब्रह्सरः प्रवक्ष्ये ।।
यह श्लोक इस ब्रह्मसरोवर के विशिष्ट महत्त्व को स्वयं हीं सिद्ध कर देता है । वामन पुराण के अनुसार महाराज कुरू द्वारा निर्माण कराये गये इस ब्रह्म सरोवर की स्थापना ब्रह्माजी ने पृधूदक तीर्थ के निकट सरस्वती नदी के तट पर की थी ।
कुरुक्षेत्र का विशाल बरगद जहाँ श्री कृष्ण ने दिया था गीता उपदेश ; 
कुरुक्षेत्र में हीं हजारों वर्ष पुराना वह विशाल बरगद वृक्ष भी मौजूद है । मान्यता है कि यहीं पर पांडवो तथा कौरवों की सेनाओं के मध्य में रथ रोककर भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध नहीं करने के इच्छुक अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । अर्जुन अपने हीं भाई-बंधुओं पर, चाचा ताऊओं पर धनुष बाण द्वारा युद्ध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे । तब श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने विराट रूप के दर्शन देकर, धर्म-कर्म की शिक्षा दी, उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित किया । बताते हैं कि यह वृक्ष इसका साक्षी कहा जाता है । यह स्थान ज्योतिसर तीर्थ के रूप में जानी जाती है ।
यह सर्वविदित सच है कि श्रीकृष्ण ने धर्म युद्ध में अत्यंत गूढ, महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।वे न केवल अर्जुन के साथी थे अपितु पांडवो के युद्ध जीतने का कारण भी थे । श्री कृष्ण की हीं प्रेरणा से धनुर्धारी अर्जुन युद्ध करने का साहस कर सके, कौरवों के महान योद्धा मृत्यु को प्राप्त हो सके ।
 बाणगंगा ; जहाँ अर्जुन ने बाण चलाकर प्रकट की थी गंगा जिससे बुझी थी भीष्म पितामह की प्यास 
इसी कुरुक्षेत्र में नारकातारी मंदिर भी है तथा बाण-गंगा का उल्लेख है । युद्ध में घायल हो जाने पर भीष्म पितामह को प्यास लगी तो उन्होंने अर्जुन से पानी माँगा । अर्जुन ने तत्काल हीं धरती पर तीर मारकर गंगा को प्रकट किया । जिसे बाणगंगा के नाम से जाना जाता है । यहीं पर भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण को अपनी मृत्यु का उपाय बताया । वे समस्त पुराणों के ज्ञाता थे, विद्वान थे, इसी स्थान पर उन्होंने पांडवो को शांति पर्व तथा विष्णु सहस्रनाम सुनाया । भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु के समय वरदान दिया कि जाने-अंजाने में यदि कोई व्यक्ति पाप से अर्जित अन्न खा ले, उसकी बुद्धि इतनी मलिन, अधर्मित हो जाय कि वे धर्म-कर्म को बिल्कुल हीं भुला दे तो इस कुण्ड में स्नान करने पर वह पापमुक्त हो जाएगा।