1. (c) कृषि (Note -
इस प्रश्न में ये पूछा जाना चाहिए था कि कौन
– सा तत्व भौतिक पर्यावरण का हिस्सा नहीं है)
2. (b) डेनमार्क
3. (c) दुकानदार
4. (c) मछली पकड़ना
5. (a) पश्चिम बंगाल
6. भूगोल
की वह शाखा जो आर्थिक तथ्यों से संबंधित भौगोलिक अध्ययन करती है, आर्थिक भूगोल
कहलाती है।
7. सिंधु
नदी घाटी, नील नदी घाटी, हवांग हो नदी घाटी, दजला – फरात नदी घाटी (कोई दो लिखें)
8. आयु
के आधार पर जनसंख्या का वर्गीकरण तथा स्त्रियों और पुरुषों का आयु वर्गों के
अनुसार वर्गीकरण करना, आयु संरचना कहलाता है।
9. Census
2011के अनुसार भारत की 83,30,87,662 (68.84%) जनसंख्या
ग्रामीण जनसंख्या है, जबकि Census 2001
में ग्रामीण जनसंख्या का भाग 72.19% था।
10. प्रति
वर्ग किलोमीटर के आधार पर जनसंख्या का वितरण जनसंख्या घनत्व (Population
Density) कहलाता है। भारत का औसत जनसंख्या जनसंख्या घनत्व 2011 की
जनगणना के अनुसार 382 व्यक्ति व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है।
11. पुरुष
प्रधान समाज, स्त्री शिक्षा की कमी, रोजगार की कमी, सुरक्षा का अभाव, मातृत्व एवं पारिवारिक
की जिम्मेवारियाँ आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण एवं समस्याएं हैं, जो महिलाओं को ग्रामीण
क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में प्रवास करने के लिए हतोत्साहित (Discourage) करती हैं।
12. वृत्ताकार
प्रतिरूप : इस प्रकार के गाँव झीलों व तालाबों आदि
क्षेत्रों के चारों ओर बस्ती बस जाने से विकसित होते हैं। कभी-कभी ग्राम को इस
योजना से बसाया जाता है कि उसका मध्य भाग खुला रहे जिसमें पशुओं को रखा जाए ताकि
वे जंगली जानवरों से सुरक्षित रहें। शहरों में मॉडल टाउन इसी प्रकार की वृतकार बस्तियाँ
होती हैं।
आयताकार
या वर्गाकार प्रतिरूप : ग्रामीण बस्तियों का यह प्रतिरूप
समतल क्षेत्रों अथवा चौड़ी अंतरा पर्वतीय घाटियों में पाया जाता है। इसमें सड़कें
आयताकार होती हैं जो एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं। जैसे – शहरी क्षेत्रों में सेक्टरों
का प्रतिरूप।
13. जनगणना
2011 के अनुसार, भारत में सबसे ज्यादा (19.9 करोड़) जनसंख्या उत्तर प्रदेश (UP) में
निवास करती है। जो भारत की कुल जनसंख्या का 16% भाग है। इसके बाद क्रमशः
महाराष्ट्र (11.23 करोड़), बिहार (10.38 करोड़) तथा पश्चिम बंगाल (9.13 करोड़) की
जनसंख्या सर्वाधिक हैं।
14. अवैध
रूप से बसी,
गैर क़ानूनी, अत्यधिक भीड़ – भाड वाली मानव बस्तियाँ, गंदी बस्तियाँ कहलाती हैं। धारावी
(मुंबई), एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती है।
मलिन
बस्तियों की प्रमुख समस्याओं में अत्यंत निम्न आवासीय दशाएँ,
तंग गलियाँ, कच्चे एवं छोटे मकान, शुद्ध हवा, पानी, शौचालय आदि
की कमी, अत्यधिक भीड़ भाड़, गरीबी,
अपराध, शराब, नशीली
दवाओं के धंधे, गुंडागर्दी आदि असामाजिक समस्याएँ आदि। इनके
अधिकतर निवासी प्रवासी जनसंख्या होती है।
15. वे
प्रदेश जहाँ पर जनसंख्या घनत्व 200 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक होता है,
उच्च जनसंख्या घनत्व वाले प्रदेश कहलाते हैं, जैसे
– दक्षिण – पूर्वी एशिया में नदी
घाटियों के समतल मैदानी भू - भाग, पश्चिम यूरोप के औद्योगिक
एवं नगरीय प्रदेश तथा USA एवं कनाडा के पूर्वी तटीय प्रदेश
आदि।
16. गुच्छित
बस्तियाँ (Clustered Settlements) - गुच्छित
ग्रामीण बस्ती घरों का एक संहत अथवा संकुलित रूप से निर्मित क्षेत्र होता है। इस
प्रकार के गाँव में रहन-सहन का सामान्य क्षेत्र स्पष्ट और चारों ओर फैले खेतों,
खलिहानों और चरागाहों से पृथक होता है। संकुलित निर्मित क्षेत्र और
इसकी मध्यवर्ती गलियाँ कुछ जाने-पहचाने प्रारूप अथवा ज्यामितीय आकृतियाँ प्रस्तुत
करते हैं जैसे कि आयताकार, अरीय, रैखिक
इत्यादि। ऐसी बस्तियाँ प्रायः उपजाऊ जलोढ़ मैदानों और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पाई
जाती है।
परिक्षिप्त
बस्तियाँ (Dispersed Settlements) - भारत
में परिक्षिप्त अथवा एकाकी बस्ती प्रारूप सुदूर जंगलों में एकाकी झोंपड़ियों अथवा
कुछ झोंपड़ियों की पल्ली अथवा छोटी पहाड़ियों की ढालों पर खेतों अथवा चरागाहों के
रूप में दिखाई पड़ता है। बस्ती का चरम विक्षेपण प्रायः भू-भाग और निवास योग्य
क्षेत्रों के भूमि संसाधन आधार की अत्यधिक विखंडित प्रकृति के कारण होता है। ऐसी बस्तियाँ
मेघालय,
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों
में पाई जाती हैं।
17. प्रवास (Migration) – प्रवास
का शाब्दिक अर्थ होता है – प्र (दूसरा) + वास (निवास)। अर्थात् किसी व्यक्ति या
समूह का दूसरे स्थान पर जाकर बसना प्रवास कहलाता है। लोग बेहतर आर्थिक और सामाजिक
जीवन के लिए प्रवास करते हैं। प्रवास को प्रभावित करने वाले कारकों को दो समूहों
में बाँटा जा सकता है :- प्रतिकर्ष कारक (PUSH
FACTORS) -
वे कारक (जैसे - बेरोजगारी, रहन – सहन की निम्न दशाएँ, राजनीतिक उपद्रव, प्रतिकूल जलवायु, प्राकृतिक विपदाएं, महामारी, सामाजिक – आर्थिक
पिछड़ापन आदि) जो किसी स्थान को छोड़ने को मजबूर करते हैं और अपकर्ष कारक (PULL
FACTORS) - वे कारक (काम या रोजगार के अवसर, रहन – सहन की अच्छी दशाएँ, शांतिपूर्ण
माहौल व स्थायित्व, जीवन व सम्पत्ति की सुरक्षा, प्राकृतिक रूप से अनुकूल क्षेत्र या अनुकूल जलवायु, महामारी
रहित क्षेत्र, आर्थिक अवसरों की अधिकता आदि) जो किसी स्थान
पर आने के लिए आकर्षित करते हैं।
18. नगरीय
क्षेत्र अत्यधिक जनसंख्या वाले होते हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण यहाँ आमतौर पर साफ
–
सफाई की व्यवस्था लचर होती है। जगह – जगह
गंदगी के ढेर और प्रदूषित वायु के कारण नगरीय अपशिष्ट का निपटान हर बड़े महानगर,
जैसे – दिल्ली, मुंबई,
चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु
आदि और छोटे शहर एवं कस्बों के लिए समस्या बन चूका है। ठोस कचरे के ढेर का नगरों
में अम्बार लगता जा रहा है। जैसे – दिल्ली के करनाल बाईंपास
पर कूड़े का पहाड़ बन चूका है। दिल्ली का घरेलू व औद्योगिक अपशिष्ट यमुना नदी में
डाला जाता है।
ठोस
कचरे में प्लास्टिक का सामान, पोलिथीन की थैलियाँ,
रद्दी कागज, पुराना फर्नीचर, CD, DVD आदि शामिल रहता है, जबकि गीले कचरे में दैनिक जीवन
में उपयोग के बाद निकलने वाला साग – सब्जियों का कचरा आदि
शामिल रहता है।
नगरीय
अपशिष्ट निपटान से जुड़ी प्रमुख समस्याएं या प्रभाव :-
1.
ठोस अपशिष्ट से दूर – दूर तक बदबू फैलती रहती है।
2.
गंदगी का ढेर मक्खियों, मच्छरों, चूहों,
सूअरों व कुत्तों की शरण – स्थली बन जाता
है।
3.
यहाँ से उत्पन्न गंदी बदबू और जीव जीवन के लिए जोखिम बन जाते हैं।
4.
टाइफाइड (मियादी बुखार), गलघोटू (डिप्थीरिया), दस्त (डायरिया), हैजा जैसी बीमारियाँ फैलती
हैं।
5.
भौम जल भी दूषित होता है।
19. पनामा
नहर -
यह
नहर पूर्व में अटलांटिक महासागर को पश्चिम में प्रशांत महासागर से जोड़ती है। इसका
निर्माण पनामा जलडमरूमध्य के आर-पार पनामा नगर एवं कोलोन के बीच संयुक्त राज्य
अमेरिका के द्वारा किया गया, जिसने दोनोें ही ओर
के 8 कि.मी. क्षेत्र को खरीद कर इसे नहर मंडल का नाम दिया है। नहर लगभग 72 कि.मी.
लंबी है जो लगभग 12 कि.मी. लंबी अत्यधिक गहरी कटान से युक्त है। इस नहर में कुल छः
जलबंधक तंत्र हैं तथा जलयान पनामा की खाड़ी में प्रवेश करने से पहले इन जलबंधकों से
होकर विभिन्न ऊँचाई की समुद्री सतह (26 मीटर ऊपर एवं नीचे) को पार करते हैं। इस
नहर के द्वारा समुद्री मार्ग से न्यूयार्क एवं सैनफ्रांसिस्को के मध्य लगभग 13,000 कि.मी. की दूरी कम हो गई है। इसी प्रकार पश्चिमी यूरोप और संयुक्त
राज्य अमेरिका के पश्चिमी तट; उत्तर-पूर्वी और मध्य संयुक्त
राज्य अमेरिका और पूर्वी तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के मध्य की दूरी भी कम हो गई
है। इस नहर का आर्थिक महत्त्व स्वेज नहर की अपेक्षा कम है। फिर भी दक्षिणी अमेरिका
की अर्थव्यवस्था में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
OR
स्वेज
नहर -
इस
नहर का निर्माण 1869 में मिस्र में उत्तर में पोर्टसईद एवं दक्षिण में स्थित पोर्ट
स्वेज (स्वेज पत्तन) के मध्य भूमध्य सागर एवं लाल सागर को जोड़ने हेतु किया गया। यह
यूरोप को हिंद महासागर में एक नवीन प्रवेश मार्ग प्रदान करता है तथा लिवरपूल एवं
कोलंबो के बीच प्रत्यक्ष समुद्री मार्ग की दूरी को उत्तमाशा अंतरीप मार्ग की तुलना
में घटाता है। यह जलबंधकों से रहित समुद्र सतह के बराबर नहर है,
जो यह लगभग 160 कि.मी. लंबी तथा 11 से 15 मीटर गहरी है। इस नहर में
प्रतिदिन लगभग 100 जलयान आवागमन करते हैं तथा उन्हें इस नहर को पार करने में 10-12
घंटे का समय लगता है। अत्यधिक यात्री एवं माल कर होने के कारण कुछ जलयान जिनके लिए
समय की देरी महत्त्वपूर्ण नहीं है अपेक्षाकृत लंबे परंतु सस्ते उत्तमाशा अंतरीप
मार्ग के द्वारा भी आवागमन किया जाता है, एक रेलमार्ग इस नहर
के सहारे स्वेज तक जाता है और फिर इस्माइलिया से एक शाखा कैरो को जाती है। नील नदी
से एक नौगम्य ताज़ा पानी की नहर भी स्वेज नहर से इस्माइलिया में मिलती है जिससे
पोटसईद और स्वेज नगरों को ताज़े पानी की आपूर्ति की जाती है।
20. ग्रामीण
बस्तियों के प्रतिरूप - ग्रामीण बस्तियों का प्रतिरूप यह
दर्शाता है कि मकानों की स्थिति किस प्रकार एक दूसरे से संबंधित है। गाँव की आकृति
एवं प्रसार को प्रभावित करने वाले कारकों में गाँव की स्थिति,
समीपवर्ती स्थलाकृति एवं क्षेत्र का भूभाग प्रमुख स्थान रखते हैं। ग्रामीण
बस्तियों का वर्गीकरण कई मापदंडों के आधार पर किया जा सकता है :
(i)
विन्यास के आधार पर : इनके मुख्य
प्रकार हैं– मैदानी ग्राम, पठारी ग्राम,
तटीय ग्राम, वन ग्राम एवं मरुस्थलीय ग्राम।
(ii)
कार्य के आधार पर : इसमें कृषि ग्राम,
मछुवारों के ग्राम, लकड़हारों के ग्राम,
पशुपालक ग्राम आदि आते हैं।
(iii)
बस्तियों की आकृति के आधार पर : इसमें
कई प्रकार की ज्यामितिक आकृतियाँ हो सकती हैं जैसे कि रेखीय, आयताकार, वृत्ताकार, तारे के
आकार की, ‘टी’ के आकार की, चौक पट्टी, दोहरे ग्राम इत्यादि।
(क)
रैखिक प्रतिरूप : उस प्रकार की बस्तियों में मकान
सड़कों,
रेल लाइनों, नदियों, नहरों,
घाटी के किनारे अथवा तटबंधों पर स्थित होते हैं।
(ख)
आयताकार प्रतिरूप : ग्रामीण बस्तियों का यह प्रतिरूप
समतल क्षेत्रों अथवा चौड़ी अंतरा पर्वतीय घाटियों में पाया जाता है। इसमें सड़कें
आयताकार होती हैं जो एक दूसरे को समकोण पर काटती हैं।
(ग)
वृत्ताकार प्रतिरूप : इस प्रकार के गाँव झीलों व तालाबों
आदि क्षेत्रों के चारों ओर बस्ती बस जाने से विकसित होते हैं। कभी-कभी ग्राम को इस
योजना से बसाया जाता है कि उसका मध्य भाग खुला रहे जिसमें पशुओं को रखा जाए ताकि
वे जंगली जानवरों से सुरक्षित रहें।
(घ)
तारे के आकार का प्रतिरूप : जहाँ कई मार्ग आकर एक स्थान
पर मिलते हैं और उन मार्गों के सहारे मकान बन जाते हैं। वहाँ तारे के आकार की बस्तियाँ
विकसित होती हैं।
(ड)
‘टी’ आकार, ‘वाई’ आकार, क्रॉस आकार :
टी के आकार की बस्तियाँ सड़क के तिराहे पर विकसित होती हैं। जबकि वाई आकार की
बस्तियाँ उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ पर दो मार्ग आकर तीसरे मार्ग से
मिलते हैं। क्रॉस आकार की बस्तियाँ चौराहों पर प्रारंभ होती हैं जहाँ चौराहे से
चारों दिशा में बसाव आरंभ हो जाता है।
(च)
दोहरे ग्राम : नदी पर पुल या फेरी के दोनों ओर इन
बस्तियों का विस्तार होता है।
OR
विशेषीकृत
प्रकार्यों के आधार पर भारतीय नगरों को मोटे तौर पर निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत
किया जाता है –
प्रशासन
नगर
- उच्चतर क्रम के प्रशासनिक मुख्यालयों वाले शहरों को प्रशासन नगर कहते हैं,
जैसे कि चंडीग\ढ़, नई
दिल्ली, भोपाल, शिलांग, गुवाहाटी, इंफाल, श्रीनगर,
गांधी नगर, जयुपर, चेन्नई
इत्यादि।
औद्योगिक
नगर - मुंबई, सेलम,
कोयंबटूर, मोदीनगर, जमशेदपुर,
हुगली, भिलाई इत्यादि के विकास का प्रमुख
अभिप्रेरक बल उद्योगों का विकास रहा है।
परिवहन
नगर - ये पत्तन नगर जो मुख्यतः आयात और निर्यात
कार्यों में संलग्न रहते हैं, जैसे– कांडला, कोच्चि, कोझीकोड,
विशाखापट्नम, इत्यादि अथवा आंतरिक परिवहन की
धुरियाँ जैसे धुलिया, मुगलसराय, इटारसी,
कटनी इत्यादि हो सकते हैं।
वाणिज्यिक
नगर - व्यापार और वाणिज्य में विशिष्टता प्राप्त
शहरों और नगरों को इस वर्ग में रखा जाता है। कोलकाता,
सहारनपुर, सतना इत्यादि कुछ उदाहरण हैं।
खनन
नगर - ये नगर खनिज समृद्ध क्षेत्रों में विकसित हुए
हैं जैसे रानीगंज,
झरिया, डिगबोई, अंकलेश्वर,
सिंगरौली इत्यादि।
गैरिसन
(छावनी) नगर - इन नगरों का उदय गैरिसन नगरों के
रूप में हुआ है,
जैसे अंबाला, जालंधर, महू,
बबीना, उधमपुर इत्यादि।
धार्मिक
और सांस्कृतिक नगर - वाराणसी,
मथुरा, अमृतसर, मदुरै,
पुरी, अजमेर, पुष्कर,
तिरुपति, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार,
उज्जैन अपने धार्मिक/सांस्कृतिक महत्त्व के कारण प्रसिद्ध हुए।
शैक्षिक
नगर - मुख्य परिसर नगरों में से कुछ नगर शिक्षा
केंद्रों के रूप में विकसित हुए जैसे रु\ड़की, वाराणसी, अलीग\ढ़, पिलानी, इलाहाबाद।
पर्यटन
नगर - नैनीताल, मसूरी,
शिमला, पचम\ढ़ी, जोधपुर, जैसलमेर, उडगमंडलम
(ऊटी), माउंट आबू कुछ पर्यटन गंतव्य स्थान हैं। नगर अपने
प्रकार्यों में स्थिर नहीं है उनके गतिशील स्वभाव के कारण प्रकार्यों में परिवर्तन
हो जाता है।
विशेषीकृत
नगर भी महानगर बनने पर बहुप्रकार्यात्मक बन जाते हैं
जिनमें उद्योग व्यवसाय, प्रशासन, परिवहन
इत्यादि महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। प्रकार्य इतने अंतर्ग्रंथित हो जाते हैं कि नगर
को किसी विशेष प्रकार्य वर्ग में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
21. भारत
के कुल बोए गए क्षेत्र के लगभग 54% भाग पर अनाज बोए जाते हैं। चावल (Rice)
भारत के अधिकांश लोगों का मुख्य खाद्यान्न या भोजन है।
उपज
की भौगोलिक दशाएँ :-
1.
चावल खरीफ ऋतु एवं उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की मुख्य फसल है।
2.
चावल के लिए 25°C
तापमान की जरूरत होती है।
3.
चावल के लिए 150
CMS से अधिक वर्षा की जरूरत होती है। 100 CMS कम
वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल सिंचाई (ट्यूबवेल व नहर) की सहायता से उगाया जा
सकता है
4.
चावल के लिए समतल ढलान वाली भूमि की आवश्यकता होती है।
5.
चावल के लिए उपजाऊ,चिकनी दोमट या काँप मिट्टी की
आवश्यकता होती है।
6.
चावल के लिए अत्यधिक मानवीय श्रम की आवश्यकता होती है। इसे ‘खुरपे की कृषि’ भी कहते हैं।
उत्पादन
और वितरण :- भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा
सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। भारत में विश्व का 29% चावल उत्पादक क्षेत्र है तथा
भारत में विश्व का 22% चावल उत्पन्न किया जाता है। वर्ष 1950 –
51 में भारत में चावल का उत्पादन 206 लाख टन था जो बढ़कर 2011 –
12 में 992 लाख टन हो गया। भारत में कुल बोए गए क्षेत्र के 25% भाग
पर चावल की कृषि की जाती है। चावल भारत के असम, पश्चिम बंगाल,
ओडिशा, आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु आदि में
राज्यों में मुख्य रूप से उगाया जाता है। पंजाब,हरियाणा,
पश्चिम उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में सिंचाई की सहायता से चावल
उगाया जाता है।
OR
पेट्रोलियम
- कच्चा
पेट्रोलियम द्रव और गैसीय अवस्था के हाइड्रोकार्बन से युक्त होता है तथा इसकी
रासायनिक संरचना,
रंगों और विशिष्ट घनत्व में भिन्नता पाई जाती है। यह मोटर-वाहनों,
रेलवे तथा वायुयानों के अंतर-दहन ईंधन के लिए ऊर्जा का एक अनिवार्य
स्रोत है। इसके अनेक सह-उत्पाद पेट्रो-रसायन उद्योगों, जैसे
कि उर्वरक, कृत्रिम रबर, कृत्रिम रेशे,
दवाइयाँ, वैसलीन, स्नेहकों,
मोम, साबुन तथा अन्य सौंदर्य सामग्री में
प्रक्रमित किए जाते हैं। अपनी दुर्लभता और विविध उपयोगों के लिए पेट्रोलियम को 'तरल सोना' कहा जाता है।
अपरिष्कृत
पेट्रोलियम टरश्यरी युग की अवसादी शैलों में पाया जाता है। व्यवस्थित ढंग से तेल
अन्वेषण और उत्पादन 1956 में तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग की स्थापना के बाद
प्रारंभ हुआ। तब तक असम में डिगबोई एकमात्र तेल उत्पादक क्षेत्र था,
लेकिन 1956 के बाद परिदृश्य बदल गया। हाल ही के वर्षों में देश के
दूरतम पश्चिमी एवं पूर्वी तटों पर नए तेल निक्षेप पाए गए हैं। असम में डिगबोई,
नहारकटिया तथा मोरान महत्वपूर्ण तेल उत्पादक क्षेत्र हैं। गुजरात
में प्रमुख तेल क्षेत्र अंकलेश्वर, कालोल, मेहसाणा, नवागाम, कोसांबा तथा
लुनेज हैं। मुंबई हाई, जो मुंबई नगर से 160 कि.मी. दूर
अपतटीय क्षेत्र में पड़ ता है, को 1973 में खोजा गया था और
वहाँ 1976 में उत्पादन प्रारंभ हो गया। तेल एवं प्राकृतिक गैस को पूर्वी तट पर
कृष्णा-गोदावरी तथा कावेरी के बेसिनों में अन्वेषणात्मक कूपों में पाया गया है।
कूपों
से निकाला गया तेल अपरिष्कृत तथा अनेक अशुद्धियों से परिपूर्ण होता है। इसे सीधे
प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। इसे शोधित किए जाने की आवश्यकता होती है। भारत में
दो प्रकार के तेल शोधन कारखाने है - (क) क्षेत्र आधारित (ख) बाज़ार आधारित। डिगबोई
तेल शोधन कारखाना क्षेत्र आधारित तथा बरौनी बाज़ार आधारित तेल शोधन कारखाने के
उदाहरण हैं।
22. सूती
वस्त्र उद्योग - सूती वस्त्र उद्योग भारत के
परंपरागत उद्योगों में से एक है। प्राचीन और मध्यकाल में,
ये केवल एक कुटीर उद्योग के रूप में थे। भारत संसार में उत्कृष्ट
कोटि का मलमल, कैलिको, छींट और अन्य
प्रकार के अच्छी गुणवत्ता वाले सूती कपड़ों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था। भारत
में इस उद्योग का विकास कई कारणों से हुआ। जैसे - भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है एवं
सूती कपड़ा गर्म और आर्द्र जलवायु के लिए एक आरामदायक वस्त्र है। दूसरा, भारत में कपास का बड़ी मात्रा में उत्पादन होता था। देश में इस उद्योग के
लिए आवश्यक कुशल श्रमिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे।
भारत
में पहली आधुनिक सूती मिल की स्थापना 1854 में मुंबई हुई थी। बाद में दो और मिलें-
शाहपुर मिल और कैलिको मिल– अहमदाबाद में
स्थापित की गईं। 1947 तक भारत में मिलों की संख्या 423 तक पहुँच गई। 19वीं शताब्दी
के उत्तरार्द्ध में मुंबई और अहमदाबाद में पहली मिल की स्थापना के पश्चात् सूती
वस्त्र उद्योग का तेज़ी से विस्तार हुआ। मिलों की संख्या आकस्मिक रूप से बढ़ गई।
स्वदेशी आंदोलन ने उद्योग को प्रमुख रूप से प्रोत्साहित किया क्योंकि ब्रिटेन के
बने सामानों का बहिष्कार कर बदले में भारतीय सामानों को उपयोग में लाने का आह्वान
किया गया। 1921 के बाद रेलमार्गों के विकास के साथ ही दूसरे सूती वस्त्र केंद्रों
का तेजी से विस्तार हुआ। दक्षिणी भारत में, कोयंबटूर,
मदुरई और बेंगलूरु में मिलों की स्थापना की गई। मध्य भारत में
नागपुर, इंदौर के अतिरिक्त शोलापुर और वडोदरा सूती वस्त्र
केंद्र बन गए। कानपुर में स्थानिक निवेश के आधार पर सूती वस्त्र मिलों की स्थापना
की गई। पत्तन की सुविधा के कारण कोलकाता में भी मिलें स्थापित की गईं। जलविद्युत
शक्ति के विकास से कपास उत्पादक क्षेत्रों से दूर सूती वस्त्र मिलों की अवस्थिति
में भी सहयोग मिला। तमिलनाडु में इस उद्योग के तेज़ी से विकास का कारण मिलों के लिए
प्रचुर मात्रा में जल-विद्युत शक्ति की उपलब्धता है। उज्जैन, भरूच, आगरा, हाथरस, कोयंबटूर और तिरुनेलवेली आदि केंद्रों में, कम श्रम
लागत के कारण कपास उत्पादक क्षेत्रों से उनके दूर होते हुए भी उद्योगों की स्थापना
की गई। वर्तमान में अहमदाबाद, भिवांडी, शोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर,
इंदौर और उज्जैन सूती वस्त्र उद्योग के मुख्य केंद्र हैं। ये सभी
केंद्र परंपरागत केंद्र हैं और कपास उत्पादक क्षेत्रों के निकट स्थित हैं।
महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु अग्रणी कपास उत्पादक राज्य
हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक
और पंजाब दूसरे महत्वपूर्ण सूती वस्त्र उत्पादक हैं।
OR
जल
संभर प्रबंधन - जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य,
मुख्य रूप से, धरातलीय और भौम जल संसाधनों के
दक्ष प्रबंधन से है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधियों, जैसे– अंतः स्रवण तालाब, पुनर्भरण,
कुओं आदि के द्वारा भौम जल का संचयन और पुनर्भरण शामिल हैं। तथापि,
विस्तृत अर्थ में जल संभर प्रबंधन के अंतर्गत सभी संसाधनों– प्राकृतिक (जैसे– भूमि, जल,
पौधे और प्राणियों) और जल संभर सहित मानवीय संसाधनों के संरक्षण,
पुनरुत्पादन और विवेकपूर्ण उपयोग को सम्मिलित किया जाता है। जल संभर
प्रबंधन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों और समाज के बीच संतुलन लाना है। जल-संभर
व्यवस्था की सफलता मुख्य रूप से संप्रदाय के सहयोग पर निर्भर करती है।
केंद्रीय
और राज्य सरकारों ने देश में बहुत से जल- संभर विकास और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए
हैं। इनमें से कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। ‘हरियाली’ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभर
विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण के लिए जल संरक्षण
के लिए योग्य बनाना है। परियोजना लोगों के सहयोग से
ग्राम पंचायतों द्वारा निष्पादित की जा रही है।
नीरू-मीरू
(जल और आप) कार्यक्रम (आंध्र प्रदेश में) और अरवारी पानी संसद (अलवर राजस्थान में)
के
अंतर्गत लोगों के सहयोग से विभिन्न जल संग्रहण संरचनाएँ जैसे–
अंतः स्रवण तालाब ताल (जोहड़) की खुदाई की गई है और रोक बाँध बनाए गए
हैं। तमिलनाडु में घरों में जल संग्रहण संरचना को बनाना आवश्यक कर दिया गया है।
किसी भी इमारत का निर्माण बिना जल संग्रहण संरचना बनाए नहीं किया जा सकता है।
कुछ
क्षेत्रों में जल-संभर विकास परियोजनाएँ पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का कायाकल्प
करने में सफल हुई हैं। फिर भी सफलता कुछ की ही कहानियाँ हैं। अधिकांश घटनाओं में,
कार्यक्रम अपनी उदीयमान अवस्था पर ही हैं। देश में लोगों के बीच जल
संभर विकास और प्रबंधन के लाभों को बताकर जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता है और
इस एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन उपागम द्वारा जल उपलब्धता सतत पोषणीय आधार पर निश्चित
रूप से की जा सकती है।
23. राष्ट्रीय
महामार्ग - वे प्रमुख सड़कें, जिन्हें
केंद्र सरकार द्वारा निर्मित एवं अनुरक्षित किया जाता है, राष्ट्रीय
महामार्ग के नाम से जानी जाती है। इन सड़कों का उपयोग अंतर्राज्यीय परिवहन तथा
सामरिक क्षेत्रों तक रक्षा सामग्री एवं सेना के आवागमन के लिए होता है। ये
महामार्ग राज्यों की राजधानियों, प्रमुख नगरों, महत्वपूर्ण पत्तनों तथा रेलवे जंक्शनों को भी जोड़ते हैं। राष्ट्रीय
महामार्गों की लंबाई 1951 में 19,700 कि.मी. से बढ़कर, 2016
में 1,01,011 कि.मी. हो गई है। राष्ट्रीय महामार्गों की लंबाई पूरे देश की कुल
सड़कों की लंबाई की मात्र 2 प्रतिशत है; किंतु ये सड़क यातायात
के 40 प्रतिशत भाग का वहन करते हैं।
भारतीय
राष्ट्रीय महामार्ग प्राधिकरण (एन.एच.ए.आई.) का प्रचालन 1995 में हुआ था। यह भूतल
परिवहन मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्तशासी निकाय है। इसे राष्ट्रीय महामार्गों के
विकास,
रख-रखाव तथा प्रचालन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। इसके साथ ही यह
राष्ट्रीय महामार्गों के रूप में निर्दिष्ट सड़कों की गुणवत्ता सुधार के लिए एक
शीर्ष संस्था है।
स्वर्णिम
चतुर्भुज (Golden Quadrilateral) परियोजनाः
इसके अंतर्गत 5,846 कि.मी. लंबी 4/6 लेन वाले उच्च सघनता के यातायात गलियारे शामिल
हैं जो देश के चार विशाल महानगरों– दिल्ली-
मुंबई-चेन्नई-कोलकाता को जोड़ते हैं। स्वर्णिम चतुर्भुज के निर्माण के साथ भारत के
इन महानगरों के बीच समय-दूरी तथा यातायात की लागत महत्वपूर्ण रूप से कम होगी।
उत्तर-दक्षिण
तथा पूर्व-पश्चिम गलियारा (North-South Corridor) : उत्तर-दक्षिण गलियारे का उद्देश्य
जम्मू व कश्मीर के श्रीनगर से तमिलनाडु के कन्याकुमारी (कोच्चि-सेलम पर्वत स्कंध
सहित) को 4,016 कि.मी. लंबे मार्ग द्वारा जोड़ना है। पूर्व एवं पश्चिम गलियारे का
उद्देश्य असम में सिलचर से गुजरात में पोरबंदर को 3,640
कि.मी. लंबे मार्ग द्वारा जोड़ना है।
वर्तमान
में NH 44 देश का सबसे लंबा महामार्ग है।
OR
भारत
के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वस्तुओं के संघटकों में समय के साथ बदलाव आए हैं। इसमें
कृषि तथा समवर्गी उत्पादों का हिस्सा घटा है, जबकि
पेट्रोलियम तथा अपरिष्कृत उत्पादों एवं अन्य वस्तुओं में वृद्धि हुई है अयस्क
खनिजों तथा निर्मित सामानों का हिस्सा वर्ष 2009-10 से 2010-11 तथा 2015-16 से
2016-17 तक व्यापक तौर पर लगातार स्थिर-सा रहा है। गत वर्षों में परंपरागत वस्तुओं
के व्यापार में गिरावट का कारण मुख्यत: कड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा है कृषि
उत्पादों के अंतर्गत कॉफ़ी, काजू, दालों
आदि जैसी परंपरागत वस्तुओं के निर्यात में गिरावट आई है हालाँकि पुष्पकृषि
उत्पादों ताज़े फलों, समुद्री उत्पादों तथा चीनी आदि के
निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2016-17 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र ने
भारत के कुल निर्यात मूल्य में अकेले 73.6 प्रतिशत की भागीदारी अंकित की है चीन
तथा अन्य पूर्व एशियाई देश हमारे प्रमुख प्रतिस्पर्धी है। भारत के विदेश व्यापार
में मणि-रत्नों तथा आभूषणों की एक व्यापक हिस्सेदारी है।
भारत
के आयात-संघटन के बदलते प्रारूप -
भारत
ने 1950 एवं 1960 के दशक में खाद्यान्नों की गंभीर कमी का अनुभव किया है उस समय
आयात की प्रमुख वस्तुएँ खाद्यान्न, पूँजीगत माल,
मशीनरी एवं उपस्कर आदि थे उस समय भुगतान संतुलन बिल्कुल विपरीत था;
चूँकि आयात प्रतिस्थापन के सभी प्रयासों के बावजूद आयात निर्यातों
से अधिक थे 1970 के दशक के बाद हरित क्रांति में सफलता मिलने पर खाद्यान्नों का
आयात रोक दिया गया लेकिन 1973 में आए ऊर्जा संकट से पेट्रोलियम (पदार्थों) के
मूल्य में उछाल आया फलत: आयात बजट भी बढ़ गया खाद्यान्नों के आयात की जगह उर्वरकों
एवं पेट्रोलियम ने ले ली मशीन एवं उपस्कर, विशेष स्टील,
खाद्य तेल तथा रसायन मुख्य रूप से आयात व्यापार की रचना करते हैं। निर्याताभिमुख
उद्योगों एवं घरेलू क्षेत्र की बढ़ती हुई माँग के कारण पूँजीगत वस्तुओं के आयात में
एक स्थिर वृद्धि होती रही है गैर-वैद्युतिक मशीनरी परिवहन उपस्कर, धातुओं के विनिर्मितियाँ तथा मशीनी औज़ार आदि पूँजीगत वस्तुओं की मुख्य
मदें होती थीं खाद्य तेलों के अयात में आई गिरावट के साथ खाद्य तथा समवर्गी
उत्पादों के आयात में कमी आई है भारत के आयात में अन्य प्रमुख वस्तुओं में मोती
तथा उपरत्नों, स्वर्ण एवं चाँदी, धातुमय
अयस्क तथा धातु छीजन, अलौह धातुएँ तथा इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ
आदि आते हैं।
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