1. (a) अफ्रीका
2. (c) गेहूँ
3. (c) पानी
4. (b) व्यापार
5. (a) 1028 मिलियन
6. भूगोल
की वह शाखा जो मानवीय तथ्यों से संबंधित अध्ययन करती है, मानव भूगोल कहलाती है।
7. संयुक्त अरब अमीरात, चीन,
भारत, सऊदी अरब, पाकिस्तान
व अफगानिस्तान आदि। (कोई दो लिखें)
8. जापान
के पिरामिड का संकीर्ण आधार और शुंडाकार शीर्ष निम्न जन्म और मृत्यु दरों को
दर्शाता है।
9. उत्तर
भारत का मैदान
10. जनसंख्या
में बेतहाशा वृद्धि होना, ‘जनसंख्या विस्फोट’
कहलाता है।
11. इस
पिरामिड में उच्च जन्म दर के कारण निम्न आयु वर्गों में विशाल जनसंख्या पाई जाती
है। यह अल्पविकसित देशों की स्थिति को दर्शाता है।
12. परिक्षिप्त
बस्तियाँ (Dispersed
Settlements) - इन बस्तियों में मकान एक – दूसरे से दूर होते
हैं। इन बस्तियों में प्रमुख व्यवसाय पशुचारण, लकड़ी काटना आदि होता है।
परिक्षिप्त अथवा एकाकी बस्ती प्रारूप सुदूर जंगलों में एकाकी झोंपड़ियों अथवा कुछ
झोंपड़ियों की पल्ली अथवा छोटी पहाड़ियों की ढालों पर खेतों अथवा चरागाहों के रूप
में दिखाई पड़ता है। बस्ती का चरम विक्षेपण प्रायः भू-भाग और निवास योग्य क्षेत्रों
के भूमि संसाधन आधार की अत्यधिक विखंडित प्रकृति के कारण होता है। मेघालय, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और केरल के अनेक भागों में
बस्ती का यह प्रकार पाया जाता है।
13. भारत
में 1951 से 1981 के दशकों को जनसंख्या विस्फोट की अवधि के रूप में जाना
जाता है। यह देश में मृत्यु दर में तीव्र ह्रास और जनसंख्या की उच्च प्रजनन दर
के कारण हुआ। औसत वार्षिक वृद्धि दर 2.2 प्रतिशत तक ऊँची रही। इन के अतिरिक्त
तिब्बतियों,
बांग्लादेशियों, नेपालियों को देश में लाने
वाले बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय प्रवास और यहाँ तक कि पाकिस्तान से आने वाले लोगों ने भी
उच्च वृद्धि दर में योगदान दिया।
14. पर्यावरण
में अवांछित पदार्थ जो पर्यावरण के लिए हानिकारक होते
हैं,
पर्यावरण प्रदूषण कहलाते हैं। पर्यावरण
प्रदूषण चार प्रकार का होता है – वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण और भूमि
प्रदूषण।
15. प्रजननशीलता
(Fertility) स्त्रियों
द्वारा जन्म दिए जीवित बच्चों की संख्या को मापने के लिए अशोधित जन्म दर (Crude
Birth Rate) (CBR) सबसे
सरल और सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला तरीका है। अशोधित जन्म दर को प्रति हजार
स्त्रियों द्वारा जन्म दिए जीवित बच्चों के रूप में व्यक्त किया जाता है।
अशोधित
मृत्यु दर (Crude Death Rate) (CDR) – किसी क्षेत्र की मृत्यु दर को मापने
का यह सबसे सरल तरीका है। अशोधित मृत्यु दर को प्रति हजार जनसंख्या के पीछे मृतकों
की संख्या द्वारा व्यक्त किया जाता है।
16. प्रशासनिक
नगर - उच्चतर क्रम के प्रशासनिक
मुख्यालयों वाले शहरों को प्रशासन नगर कहते हैं, जैसे कि
चंडीग\ढ़, नई दिल्ली, भोपाल, शिलांग, गुवाहाटी,
इंफाल, श्रीनगर, गांधी
नगर, जयुपर, चेन्नई इत्यादि।
धार्मिक
और सांस्कृतिक नगर - धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
के नगरों को ‘सांस्कृतिक बस्तियाँ’ कहते हैं। जैसे - वाराणसी,
मथुरा, अमृतसर, मदुरै,
पुरी, अजमेर, पुष्कर,
तिरुपति, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार,
उज्जैन अपने धार्मिक/सांस्कृतिक महत्त्व के कारण प्रसिद्ध हुए।
17. प्रवास
के आर्थिक परिणाम -
1.
उदगम स्रोत पर श्रमिकों की कमी हो जाती है।
2.
प्रवासी उदगम प्रदेशों में स्थित अपने घरों में कमाई का पैसा भेजते हैं।
3.
प्रवासी मजदूरों के कारण पंजाब जैसे क्षेत्रों में हरित क्रांति सम्भव हो
सकी।
4.
व्यावसायिक संरचना प्रभावित होती है।
5.
किसी क्षेत्र के संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
18. वायु में अवांछित पदार्थ, जैसे – धूल, धुआं
एवं बदबू आदि जो वायु की गुणवत्ता को कम कर देते हैं, वायु प्रदूषण
कहलाते हैं। धूल, धुआं,
गंद, ठोस कण, मलिन जल,
अनावश्यक शोर आदि पर्यावर्णीय प्रदूषक कहलाते हैं।
19. स्वेज
नहर -
इस
नहर का निर्माण 1869 में मिस्र में उत्तर में पोर्टसईद एवं दक्षिण में स्थित पोर्ट
स्वेज (स्वेज पत्तन) के मध्य भूमध्य सागर एवं लाल सागर को जोड़ने हेतु किया गया। यह
यूरोप को हिंद महासागर में एक नवीन प्रवेश मार्ग प्रदान करता है तथा लिवरपूल एवं
कोलंबो के बीच प्रत्यक्ष समुद्री मार्ग की दूरी को उत्तमाशा अंतरीप मार्ग की तुलना
में घटाता है। यह जलबंधकों से रहित समुद्र सतह के बराबर नहर है,
जो यह लगभग 160 कि.मी. लंबी तथा 11 से 15 मीटर गहरी है। इस नहर में
प्रतिदिन लगभग 100 जलयान आवागमन करते हैं तथा उन्हें इस नहर को पार करने में 10-12
घंटे का समय लगता है। अत्यधिक यात्री एवं माल कर होने के कारण कुछ जलयान जिनके लिए
समय की देरी महत्त्वपूर्ण नहीं है अपेक्षाकृत लंबे परंतु सस्ते उत्तमाशा अंतरीप
मार्ग के द्वारा भी आवागमन किया जाता है, एक रेलमार्ग इस नहर
के सहारे स्वेज तक जाता है और फिर इस्माइलिया से एक शाखा कैरो को जाती है। नील नदी
से एक नौगम्य ताज़ा पानी की नहर भी स्वेज नहर से इस्माइलिया में मिलती है जिससे
पोटसईद और स्वेज नगरों को ताज़े पानी की आपूर्ति की जाती है।
OR
दो
देशों के बीच होने वाले व्यापार को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार या विदेशी
व्यापार कहते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय
व्यापार के लाभ : -
1.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से वस्तुओं का आदान – प्रदान बढ़ता
है।
2.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से वस्तुओं का उत्पादन बढ़ता है।
3.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
4.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से परिवहन और संचार के साधनों के विकास को प्रोत्साहन
मिलता है।
5.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से कीमतों और वेतन में समानीकरण बढ़ता है।
6.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से वे उत्पाद भी मिल जाते हैं। जिनका उत्पादन किसी क्षेत्र
विशेष में नहीं होता है।
7.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से ज्ञान और संस्कृति के विकास को बढ़ावा मिलता है।
8.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से नए विचारों, नई तकनीकों
तथा प्रबन्धनीय कुशलता का सृजन होता है।
9.
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से सेवा क्षेत्र का विस्तार होता है। तथा बीमा,
बैंकिंग, जहाजरानी आदि क्षेत्रों का विकास
होता है।
20. प्रमुख
अथवा विशेषीकृत प्रकार्यों के आधार पर भारतीय नगरों को मोटे तौर पर निम्नलिखित
प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है –
प्रशासन
नगर
- उच्चतर क्रम के प्रशासनिक मुख्यालयों वाले शहरों को प्रशासन नगर कहते हैं,
जैसे कि चंडीग\ढ़, नई
दिल्ली, भोपाल, शिलांग, गुवाहाटी, इंफाल, श्रीनगर,
गांधी नगर, जयुपर, चेन्नई
इत्यादि।
औद्योगिक
नगर - मुंबई, सेलम,
कोयंबटूर, मोदीनगर, जमशेदपुर,
हुगली, भिलाई इत्यादि के विकास का प्रमुख
अभिप्रेरक बल उद्योगों का विकास रहा है।
परिवहन
नगर - ये पत्तन नगर जो मुख्यतः आयात और निर्यात
कार्यों में संलग्न रहते हैं, जैसे– कांडला, कोच्चि, कोझीकोड,
विशाखापट्नम, इत्यादि अथवा आंतरिक परिवहन की
धुरियाँ जैसे धुलिया, मुगलसराय, इटारसी,
कटनी इत्यादि हो सकते हैं।
वाणिज्यिक
नगर - व्यापार और वाणिज्य में विशिष्टता प्राप्त
शहरों और नगरों को इस वर्ग में रखा जाता है। कोलकाता,
सहारनपुर, सतना इत्यादि कुछ उदाहरण हैं।
खनन
नगर - ये नगर खनिज समृद्ध क्षेत्रों में विकसित हुए
हैं जैसे रानीगंज,
झरिया, डिगबोई, अंकलेश्वर,
सिंगरौली इत्यादि।
गैरिसन
(छावनी) नगर - इन नगरों का उदय गैरिसन नगरों के
रूप में हुआ है,
जैसे अंबाला, जालंधर, महू,
बबीना, उधमपुर इत्यादि।
धार्मिक
और सांस्कृतिक नगर - वाराणसी,
मथुरा, अमृतसर, मदुरै,
पुरी, अजमेर, पुष्कर,
तिरुपति, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार,
उज्जैन अपने धार्मिक/सांस्कृतिक महत्त्व के कारण प्रसिद्ध हुए।
शैक्षिक
नगर - मुख्य परिसर नगरों में से कुछ नगर शिक्षा
केंद्रों के रूप में विकसित हुए जैसे रुड़की, वाराणसी, अलीगढ़, पिलानी, इलाहाबाद।
पर्यटन
नगर - नैनीताल, मसूरी,
शिमला, पचमढ़ी, जोधपुर, जैसलमेर, उडगमंडलम
(ऊटी), माउंट आबू कुछ पर्यटन गंतव्य स्थान हैं। नगर अपने
प्रकार्यों में स्थिर नहीं है उनके गतिशील स्वभाव के कारण प्रकार्यों में परिवर्तन
हो जाता है।
विशेषीकृत
नगर भी महानगर बनने पर बहुप्रकार्यात्मक बन जाते हैं
जिनमें उद्योग व्यवसाय, प्रशासन, परिवहन
इत्यादि महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। प्रकार्य इतने अंतर्ग्रंथित हो जाते हैं कि नगर
को किसी विशेष प्रकार्य वर्ग में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
OR
ग्रामीण बस्तियों के प्रकार :-
बस्तियों के प्रकार निर्मित क्षेत्र
के विस्तार और अंतर्वास दूरी द्वारा निर्धारित होता है। भारत में कुछ सौ घरों से
युक्त संहत अथवा गुच्छित गाँव विशेष रूप से उत्तरी मैदानों में एक सार्वत्रिक
लक्षण है। फिर भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ अन्य प्रकार की ग्रामीण बस्तियाँ पाई
जाती हैं।
ग्रामीण बस्तियों के विभिन्न
प्रकारों के लिए अनेक कारक और दशाएँ उत्तरदायी हैं।
इनके अंतर्गत– (i)
भौतिक लक्षण –
भू-भाग की प्रकृति, ऊँचाई, जलवायु और जल की उपलब्धता,
(ii) सांस्कृतिक और मानवजातीय
कारक - सामाजिक संरचना,
जाति और धर्म,
(iii) सुरक्षा संबंधी कारक -
चोरियों और डकैतियों से सुरक्षा करते हैं।
बृहत् तौर पर भारत की
ग्रामीण बस्तियों को चार प्रकारों में रखा जा सकता है –
• गुच्छित, संकुलित
अथवा आकेंद्रित
• अर्ध-गुच्छित अथवा विखंडित
• पल्लीकृत और
• परिक्षिप्त अथवा एकाकी
(क) गुच्छित बस्तियाँ (Clustered
Settlements) -
गुच्छित ग्रामीण बस्ती घरों का एक
संहत अथवा संकुलित रूप से निर्मित क्षेत्र होता है। इस प्रकार के गाँव में रहन-सहन
का सामान्य क्षेत्र स्पष्ट और चारों ओर फैले खेतों, खलिहानों और
चरागाहों से पृथक होता है। संकुलित निर्मित क्षेत्र और इसकी मध्यवर्ती गलियाँ कुछ
जाने-पहचाने प्रारूप अथवा ज्यामितीय आकृतियाँ प्रस्तुत करते हैं जैसे कि आयताकार,
अरीय, रैखिक इत्यादि। ऐसी बस्तियाँ प्रायः
उपजाऊ जलो\ढ़ मैदानों और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पाई जाती
है। कई बार लोग सुरक्षा अथवा प्रतिरक्षा कारणों से संहत गाँवों में रहते हैं,
जैसे कि मध्य भारत के बुंदेलखंड प्रदेश और नागालैंड में। राजस्थान
में जल के अभाव में उपलब्ध जल संसाधनों के अधिकतम उपयोग ने संहत बस्तियों को
अनिवार्य बना दिया है।
(ख) अर्ध-गुच्छित बस्तियाँ (Semi-clustered
Settlements) -
अर्ध-गुच्छित अथवा विखंडित बस्तियाँ
परिक्षिप्त बस्ती के किसी सीमित क्षेत्र में गुच्छित होने की प्रवृत्ति का परिणाम
है।अधिकतर एेसा प्रारूप किसी बड़े संहत गाँव के संपृथकन अथवा विखंडन के
परिणामस्वरूप भी उत्पन्न हो सकता है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण समाज के एक अथवा अधिक
वर्ग स्वेच्छा से अथवा बलपूर्वक मुख्य गुच्छ अथवा गाँव से थोड़ी दूरी पररहने लगते
हैं। ऐसी स्थितियों में, आमतौर पर ज़मींदार और अन्य
प्रमुख समुदाय मुख्य गाँव के केंद्रीय भाग पर आधिपत्यकर लेते हैं जबकि समाज के
निचले तबके के लोग और निम्न कार्यों में संलग्न लोग गाँव के बाहरी हिस्सों में
बसते हैं। ऐसी बस्तियाँ गुजरात के मैदान और राजस्थान के कुछ भागों में व्यापक रूप
से पाई जाती हैं।
(ग) पल्ली बस्तियाँ (Hamleted
Settlements) -
कई बार बस्ती भौतिक रूप से एक-दूसरे
से पृथक अनेक इकाइयों में बँट जाती है किंतु उन सबका नाम एक रहता है। इन इकाइयों
को देश के विभिन्न भागों में स्थानीय स्तर पर पान्ना,
पाड़ा, पाली, नगला,
ढाँणी इत्यादि कहा जाता है। किसी विशाल गाँव का ऐसा खंडीभवन प्रायः
सामाजिक एवं मानवजातीय कारकों द्वारा अभिप्रेरित होता है। ऐसे गाँव मध्य और निम्न
गंगा के मैदान, छत्तीसगढ़ और हिमालय की निचली घाटियों में
बहुतायत में पाए जाते हैं।
(घ) परिक्षिप्त बस्तियाँ (Dispersed
Settlements) -
भारत
में परिक्षिप्त अथवा एकाकी बस्ती प्रारूप सुदूर जंगलों में एकाकी झोंपड़ियों अथवा
कुछ झोंपड़ियों की पल्ली अथवा छोटी पहाड़ियों की ढालों पर खेतों अथवा चरागाहों के
रूप में दिखाई पड़ता है। बस्ती का चरम विक्षेपण प्रायः भू-भाग और निवास योग्य
क्षेत्रों के भूमि संसाधन आधार की अत्यधिक विखंडित प्रकृति के कारण होता है।
मेघालय,
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और केरल के अनेक
भागों में बस्ती का यह प्रकार पाया जाता है।
21. मैंगनीज़
- लौह
अयस्क के प्रगलन के लिए मैंगनीज़ एक महत्वपूर्ण कच्चा माल है और इसका उपयोग
लौह-मिश्रातु,
विनिर्माण में भी किया जाता है। मैंगनीज़ निक्षेप लगभग सभी भूगर्भिक
संरचनाओं में पाया जाता है हालाँकि; मुख्य रूप से यह धारवाड़
क्रम से संबद्ध है। ओडिशा मैंगनीज़ का अग्रणी उत्पादक है। ओडिशा की मुख्य खदानें
भारत की लौह अयस्क पट्टी के मध्य भाग में विशेष रूप से बोनाई, केन्दुझर, सुंदरगढ़, गंगपुर,
कोरापुट, कालाहांडी तथा बोलनगीर स्थित हैं।
कर्नाटक एक अन्य प्रमुख उत्पादक है तथा यहाँ की खदानें धारवाड़ , बल्लारी, बेलगावी, उत्तरी
कनारा, चिकमगलूरु, शिवमोगा, चित्रदुर्ग तथा तुमकुरु में स्थित हैं। महाराष्ट्र भी मैंगनीज़ का एक
महत्वपूर्ण उत्पादक हैं। यहाँ मैंगनीज़ का खनन नागपुर, भंडारा
तथा रत्नागिरी जिलों में होता है। इन खदानों के अलाभ ये हैं कि ये इस्पात
संयंत्रों से दूर स्थित हैं। मध्य प्रदेश में मैंगनीज़ की पट्टी बालाघाट, छिंदवाडा, निमाड़ , मांडला और
झाबुआ जिलों तक विस्तृत है। तेलंगाना, गोआ तथा झारखंड
मैंगनीज़ के अन्य गौण उत्पादक हैं।
OR
इंदिरा
गांधी नहर,
जिसे पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था, भारत में सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है। 1948 में कँवर सेन द्वारा
संकल्पित यह नहर परियोजना 31 मार्च, 1958 को प्रारंभ हुई। यह
नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरुस्थल (मरुस्थली)
पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि.मी. की औसत दूरी पर बहती है।
सतत
पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाय : -
बहुत
से विद्वानों ने इंदिरा गांधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर प्रश्न
उठाए हैं। पिछले चार दशक में, जिस तरह से इस
क्षेत्र में विकास हुआ है और इससे जिस तरह भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है,
ने विद्वानों के इस दृष्टिकोण को काफ़ी हद तक सही ठहराया भी। यह एक
मान्य तथ्य है कि इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के
लिए मुख्य रूप से पारिस्थितिकीय सतत पोषणता पर बल देना होगा। इसलिए, इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित सात
उपायों में से पाँच उपाय पारिस्थतिकीय संतुलन पुनःस्थापित करने पर बल देते हैं।
(i)
पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है जल प्रबंधन नीति का कठोरता से
कार्यान्वयन करना। इस नहर परियोजना के चरण-1 में कमान क्षेत्र में फ़सल रक्षण
सिंचाई और चरण-2 में फ़सल उगाने और चरागाह विकास के लिए विस्तारित सिंचाई का
प्रावधान है।
(ii)
इस क्षेत्र के शस्य प्रतिरूप में सामान्यतः जल सघन फ़सलों को नहीं
बोया जाना चाहिए। इसका पालन करते हुए किसानों का बागाती कृषि के अंतर्गत खट्टे
फलों की खेती करनी चाहिए।
(iii)
कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम जैसे नालों को पक्का करना, भूमि विकास तथा समतलन और वारबंदी (ओसरा) पद्धति (निकास के कमान क्षेत्र
में नहर के जल का समान वितरण) प्रभावी रूप से कार्यान्वित की जाए ताकि बहते जल की
क्षति मार्ग में कम हो सके।
(iv)
इस प्रकार जलाक्रांत एवं लवण से प्रभावित भूमि का पुनरूद्धार किया
जाएगा।
(v)
वनीकरण, वृक्षों का रक्षण मेखला (shelterbelt)
का निर्माण और चरागाह विकास। इस क्षेत्र, विशेषकर
चरण-2 के भंगुर पर्यावरण, में पारितंत्र-विकास (eco-development)
के लिए अति आवश्यक है।
(vi)
इस प्रदेश में सामाजिक सतत पोषणता का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता
है यदि निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भूआवंटियों को कृषि के लिए पर्याप्त मात्रा में
वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध करवाई जाए।
(vii)
मात्र कृषि और पशुपालन के विकास से इस क्षेत्रों में आर्थिक सतत
पोषणीय विकास की अवधारणा को साकार नहीं किया जा सकता। कृषि और इससे संबंधित
क्रियाकलापों को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों के साथ विकसित करना पड़ेगा। इनसे इस
क्षेत्र में आर्थिक विविधीकरण होगा तथा मूल आबादी गाँवों, कृषि-सेवा
केंद्रों (सुविधा गाँवों) और विपणन केंद्रों (मंडी कस्बों) के बीच प्रकार्यात्मक
संबंध स्थापित हेागा।
22. उद्योगों
की स्थिति कई कारकों, जैसे– कच्चा
माल की उपलब्धता शक्ति, बाज़ार, पूँजी,
यातायात और श्रम इत्यादि द्वारा प्रभावित होती है। इन कारकों का
सापेक्षिक महत्व समय और स्थान के साथ बदल जाता है। कच्चे माल और उद्योग के प्रकार
में घनिष्ठ संबंध होता है। आर्थिक दृष्टि से, निर्माण उद्योग
को उस स्थान पर स्थापित करना चाहिए जहाँ उत्पादन मूल्य और निर्मित वस्तुओं को
उपभोक्ताओं तक वितरण करने का मूल्य न्यूनतम हो। परिवहन मूल्य एक बड़ी सीमा तक कच्चे
माल और निर्मित उत्पादों की प्रकृति पर निर्भर करता है।
उद्योगों
की स्थिति को प्रभावित करने वाले कारक :-
कच्चा
माल - भार-ह्रास वाले कच्चे माल का उपयोग करने वाले
उद्योग उन प्रदेशों में स्थापित किए जाते हैं जहाँ ये उपलब्ध होते हैं। भारत में
चीनी मिलें गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में क्यों स्थापित हैं?
इसी तरह, लुगदी उद्योग, ताँबा
प्रगलन और पिग आयरन उद्योग अपने कच्चे माल प्राप्ति के स्थानों के निकट ही स्थापित
किए जाते हैं। लोहा-इस्पात उद्योग में लोहा और कोयला दोनों ही भार ह्रास वाले
कच्चे माल हैं। इसीलिए लोहा-इस्पात उद्योग की स्थिति के लिए अनुकूलतम स्थान कच्चा
माल स्रोतों के निकट होना चाहिए। यही कारण है कि अधिकांश लेाहा-इस्पात उद्योग या
तो कोयला क्षेत्रों (बोकारो, दुर्गापुर आदि) के निकट स्थित
हैं अथवा लौह अयस्क के स्रोतों (भद्रावती, भिलाई और
राउरकेला) के निकट स्थित हैं।
शक्ति
- शक्ति
मशीनों के लिए गतिदायी बल प्रदान करती है और इसीलिए किसी भी उद्योग की स्थापना से
पहले इसकी आपूर्ति सुनिश्चित कर ली जाती है। फिर भी कुछ उद्योगों जैसे–
एल्युमिनियम और कृत्रिम नाइट्रोजन निर्माण उद्योग की स्थापना शक्ति
स्रोत के निकट की जाती है क्योंकि ये अधिक शक्ति उपयोग करने वाले उद्योग हैं,
जिन्हें विद्युत की बड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है।
बाज़ार
- बाज़ार,
निर्मित उत्पादों के लिए निर्गम उपलब्ध कराती हैं। भारी मशीन,
मशीन के औज़ार, भारी रसायनों की स्थापना उच्च
माँग वाले क्षेत्रों के निकट की जाती है क्योंकि ये बाज़ार-अभिमुख होते हैं। सूती
वस्त्र उद्योग में शुद्ध (जिसमें भार-ह्रास नहीं होता) कच्चे माल का उपयोग होता है
और ये प्रायः बड़े नगरीय केंद्रों में स्थापित किए जाते हैं, उदाहरणार्थ–
मुंबई, अहमदाबाद, सूरत
आदि। पेट्रोलियम परिशोधनशालाओं की स्थापना भी बाज़ारों के निकट की जाती है क्योंकि
अपरिष्कृत तेल का परिवहन आसान होता है और उनसे प्राप्त कई उत्पादों का उपयोग दूसरे
उद्योगों में कच्चे माल के रूप में किया जाता है। कोयली, मथुरा
और बरौनी इसके विशिष्ट उदाहरण हैं। परिशोधनशालाओं की स्थापना में पत्तन भी एक
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
परिवहन
-
क्या आपने कभी मुंबई, चेन्नई, दिल्ली
और कोलकाता के अंदर और उनके चारों ओर उद्योगों के केंद्रीकरण के कारणों को जानने
का प्रयास किया है? ऐसा इसलिए हुआ कि ये प्रारंभ में ही
परिवहन मार्गों को जोड़ने वाले केंद्र बिंदु (Node) बन गए।
रेलवे लाइन बिछने के बाद ही उद्योगों को आंतरिक भागों में स्थानांतरित किया गया।
सभी मुख्य उद्योग मुख्य रेल मार्गों पर स्थित हैं।
श्रम
- क्या
हम श्रम के बिना उद्योग के बारे में सोच सकते है? उद्योगों को
कुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। भारत में श्रम बहुत गतिशील है तथा जनसंख्या
अधिक होने के कारण बड़ी संख्या में उपलब्ध है।
ऐतिहासिक
कारक - क्या आपने कभी मुंबई,
कोलकाता और चेन्नई के औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरने के कारणों
के विषय में सोचा है? ये स्थान हमारे औपनिवेशिक अतीत द्वारा
अत्यधिक प्रभावित थे। उपनिवेशीकरण के प्रारंभिक चरणों में निर्माण क्रियाओं को
यूरोप के व्यापारियों द्वारा नव प्रोत्साहन दिया गया। मुर्शिदाबाद, ढाका, भदोई, सूरत, वडोदरा, कोझीकोड, कोयम्बटूर,
मैसूर आदि स्थान महत्वपूर्ण निर्माण केंद्रों के रूप में उभरे।
उपनिवेशवाद के उत्तरकालीन औद्योगिक चरण में, ब्रिटेन में
निर्मित वस्तुओं से होड़ और उपनिवेशिक शक्ति की भेदमूलक नीति के कारण, इन निर्माण केंद्रों का तेज़ी से विकास हुआ।
उपनिवेशवाद
के अंतिम चरणों में अंग्रज़ों ने चुने हुए क्षेत्रों में कुछ उद्योगों को प्रोन्नत
किया। इससे,
देश में विभिन्न प्रकार के उद्योगों का बड़े पैमाने पर स्थानिक
विस्तार हुआ।
औद्योगिक
नीति - एक प्रजातांत्रिक देश होने के कारण भारत का
उद्देश्य संतुलित प्रादेशिक विकास के साथ आर्थिक संवृद्धि लाना है। भिलाई और
राउरकेला में लौह-स्पात उद्योग की स्थापना देश के पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों के
विकास के निर्णय पर आधारित थी। वर्तमान समय में भारत सरकार पिछड़े क्षेत्रों में
स्थापित उद्योग-धंधों को अनेक प्रकार के प्रोत्साहन देती है।
OR
सूती
वस्त्र उद्योग - सूती वस्त्र उद्योग भारत के
परंपरागत उद्योगों में से एक है। प्राचीन और मध्यकाल में,
ये केवल एक कुटीर उद्योग के रूप में थे। भारत संसार में उत्कृष्ट
कोटि का मलमल, कैलिको, छींट और अन्य
प्रकार के अच्छी गुणवत्ता वाले सूती कपड़ों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था। भारत
में इस उद्योग का विकास कई कारणों से हुआ। जैसे - भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है एवं
सूती कपड़ा गर्म और आर्द्र जलवायु के लिए एक आरामदायक वस्त्र है। दूसरा, भारत में कपास का बड़ी मात्रा में उत्पादन होता था। देश में इस उद्योग के
लिए आवश्यक कुशल श्रमिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे।
भारत
में पहली आधुनिक सूती मिल की स्थापना 1854 में मुंबई हुई थी। बाद में दो और मिलें-
शाहपुर मिल और कैलिको मिल– अहमदाबाद में
स्थापित की गईं। 1947 तक भारत में मिलों की संख्या 423 तक पहुँच गई। 19वीं शताब्दी
के उत्तरार्द्ध में मुंबई और अहमदाबाद में पहली मिल की स्थापना के पश्चात् सूती
वस्त्र उद्योग का तेज़ी से विस्तार हुआ। मिलों की संख्या आकस्मिक रूप से बढ़ गई।
स्वदेशी आंदोलन ने उद्योग को प्रमुख रूप से प्रोत्साहित किया क्योंकि ब्रिटेन के
बने सामानों का बहिष्कार कर बदले में भारतीय सामानों को उपयोग में लाने का आह्वान
किया गया। 1921 के बाद रेलमार्गों के विकास के साथ ही दूसरे सूती वस्त्र केंद्रों
का तेजी से विस्तार हुआ। दक्षिणी भारत में, कोयंबटूर,
मदुरई और बेंगलूरु में मिलों की स्थापना की गई। मध्य भारत में
नागपुर, इंदौर के अतिरिक्त शोलापुर और वडोदरा सूती वस्त्र
केंद्र बन गए। कानपुर में स्थानिक निवेश के आधार पर सूती वस्त्र मिलों की स्थापना
की गई। पत्तन की सुविधा के कारण कोलकाता में भी मिलें स्थापित की गईं। जलविद्युत
शक्ति के विकास से कपास उत्पादक क्षेत्रों से दूर सूती वस्त्र मिलों की अवस्थिति
में भी सहयोग मिला। तमिलनाडु में इस उद्योग के तेज़ी से विकास का कारण मिलों के लिए
प्रचुर मात्रा में जल-विद्युत शक्ति की उपलब्धता है। उज्जैन, भरूच, आगरा, हाथरस, कोयंबटूर और तिरुनेलवेली आदि केंद्रों में, कम श्रम
लागत के कारण कपास उत्पादक क्षेत्रों से उनके दूर होते हुए भी उद्योगों की स्थापना
की गई। वर्तमान में अहमदाबाद, भिवांडी, शोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर,
इंदौर और उज्जैन सूती वस्त्र उद्योग के मुख्य केंद्र हैं। ये सभी
केंद्र परंपरागत केंद्र हैं और कपास उत्पादक क्षेत्रों के निकट स्थित हैं।
महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु अग्रणी कपास उत्पादक राज्य
हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक
और पंजाब दूसरे महत्वपूर्ण सूती वस्त्र उत्पादक हैं।
23. भारत
का सड़क जाल विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सड़क-जाल है। इसकी कुल लंबाई लगभग 56 लाख
कि.मी. (वार्षिक रिपोर्ट 2017-18, morth.nic.in) है। यहाँ
प्रतिवर्ष सड़कों द्वारा लगभग 85 प्रतिशत यात्री तथा 70 प्रतिशत भार यातायात का
परिवहन किया जाता है। छोटी दूरियों की यात्रा के लिए सड़क परिवहन अपेक्षाकृत अनुकूल
होता है।
सड़कों
के महत्व और निर्माण एवं रख-रखाव के उद्देश्य से सड़कों को राष्ट्रीय महामार्गों (NH),
राज्य महामार्गों (SH), प्रमुख ज़िला सड़कों तथा
ग्रामीण सड़कों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
(क)
राष्ट्रीय महामार्ग (National Highways) -
वे प्रमुख सड़कें, जिन्हें
केंद्र सरकार द्वारा निर्मित एवं अनुरक्षित किया जाता है, राष्ट्रीय
महामार्ग के नाम से जानी जाती है। इन सड़कों का उपयोग अंतर्राज्यीय परिवहन तथा
सामरिक क्षेत्रों तक रक्षा सामग्री एवं सेना के आवागमन के लिए होता है। ये
महामार्ग राज्यों की राजधानियों, प्रमुख नगरों, महत्वपूर्ण पत्तनों तथा रेलवे जंक्शनों को भी जोड़ते हैं। राष्ट्रीय
महामार्गों की लंबाई 1951 में 19,700 कि.मी. से बढ़कर, 2016
में 1,01,011 कि.मी. हो गई है। राष्ट्रीय महामार्गों की लंबाई पूरे देश की कुल
सड़कों की लंबाई की मात्र 2 प्रतिशत है; किंतु ये सड़क यातायात
के 40 प्रतिशत भाग का वहन करते हैं। इन सड़कों का निर्माण केंद्र सरकार की संस्था NHAI करती है। भारतीय राष्ट्रीय महामार्ग प्राधिकरण (एन.एच.ए.आई.) का प्रचालन
1995 में हुआ था। यह भूतल परिवहन मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्तशासी निकाय है। इसे
राष्ट्रीय महामार्गों के विकास, रख-रखाव तथा प्रचालन की
ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। इसके साथ ही यह राष्ट्रीय महामार्गों के रूप में
निर्दिष्ट सड़कों की गुणवत्ता सुधार के लिए एक शीर्ष संस्था है।
(ख)
राज्य महामार्ग (State Highways) - इन
मार्गों का निर्माण एवं अनुरक्षण राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है। ये राज्य की
राजधानी से ज़िला मुख्यालयों तथा अन्य महत्वपूर्ण शहरों को जोड़ते हैं। ये मार्ग
राष्ट्रीय महामार्गों से जुड़े होते हैं। इनके अंतर्गत देश की कुल सड़कों की लंबाई
का 4 प्रतिशत भाग आता है।
(ग)
ज़िला सड़कें (District Roads) - ये
सड़कें ज़िला मुख्यालयों तथा ज़िले के अन्य महत्वपूर्ण स्थलों के बीच संपर्क मार्ग का
कार्य करती हैं। इनके अंतर्गत देश-भर की कुल सड़कों की लंबाई का 14 प्रतिशत भाग आता
है।
(घ)
ग्रामीण सड़कें (Village Roads) - ये
सड़कें ग्रामीण क्षेत्रों को आपस में जोड़ने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। भारत
की कुल सड़कों की लंबाई का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण सड़कों के रूप में
वर्गीकृत किया गया है। ग्रामीण सड़कों के घनत्व में प्रादेशिक विषमता पाई जाती है
क्योंकि ये भूभाग (terrain) की प्रकृति से प्रभावित
होती हैं।
(ड)
अन्य सड़कें – अन्य सड़कों के अंतर्गत सीमांत
सड़कें (सीमावर्ती सड़कें / Border Roads) एवं
अंतर्राष्ट्रीय महामार्ग आते हैं। मई 1960 में सीमा सड़क संगठन (बी.आर.ओ. / BRO) को देश की उत्तरी एवं उत्तर-पूर्वी सीमा से सटी सामरिक दृष्टि से
महत्वपूर्ण सड़कों के तीव्र और समन्वित सुधार के माध्यम से आर्थिक विकास को गति
देने एवं रक्षा तैयारियों को मज़बूती प्रदान करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया
था। यह एक अग्रणी बहुमुखी निर्माण अभिकरण है। इसने अति ऊँचाई वाले पर्वतीय
क्षेत्रों में चंडीगढ़ को मनाली (हिमाचल प्रदेश) तथा लेह (लद्दाख) से जोड़ने वाली
सड़क बनाई है, जिस पर 9 किलोमीटर लंबी अटल सुरंग (Atal Tunnel)
अक्टूबर 2020 बनाकर खोली गई है। यह सड़क समुद्र तल से औसतन 4,270
मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। सामरिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में सड़कें बनाने
व अनुरक्षण करने के साथ-साथ बी.आर.ओ. अति ऊँचाइयों वाले क्षेत्रों में बर्फ़ हटाने
की ज़िम्मेदारी भी सँभालता है। अंतर्राष्ट्रीय महामार्गों का उद्देश्य पड़ोसी देशों
के बीच भारत के साथ प्रभावी संपर्कों को उपलब्ध कराते हुए सद्भावपूर्ण संबंधों को
बढ़ावा देना है।
OR
भारत
के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में वस्तुओं के संघटकों में समय के साथ बदलाव आए हैं। इसमें
कृषि तथा समवर्गी उत्पादों का हिस्सा घटा है, जबकि
पेट्रोलियम तथा अपरिष्कृत उत्पादों एवं अन्य वस्तुओं में वृद्धि हुई है अयस्क
खनिजों तथा निर्मित सामानों का हिस्सा वर्ष 2009-10 से 2010-11 तथा 2015-16 से
2016-17 तक व्यापक तौर पर लगातार स्थिर-सा रहा है। गत वर्षों में परंपरागत वस्तुओं
के व्यापार में गिरावट का कारण मुख्यत: कड़ी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा है कृषि
उत्पादों के अंतर्गत कॉफ़ी, काजू, दालों
आदि जैसी परंपरागत वस्तुओं के निर्यात में गिरावट आई है हालाँकि पुष्पकृषि
उत्पादों ताज़े फलों, समुद्री उत्पादों तथा चीनी आदि के
निर्यात में वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2016-17 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र ने
भारत के कुल निर्यात मूल्य में अकेले 73.6 प्रतिशत की भागीदारी अंकित की है चीन
तथा अन्य पूर्व एशियाई देश हमारे प्रमुख प्रतिस्पर्धी है। भारत के विदेश व्यापार
में मणि-रत्नों तथा आभूषणों की एक व्यापक हिस्सेदारी है।
भारत
के आयात-संघटन के बदलते प्रारूप -
भारत
ने 1950 एवं 1960 के दशक में खाद्यान्नों की गंभीर कमी का अनुभव किया है उस समय
आयात की प्रमुख वस्तुएँ खाद्यान्न, पूँजीगत माल,
मशीनरी एवं उपस्कर आदि थे उस समय भुगतान संतुलन बिल्कुल विपरीत था;
चूँकि आयात प्रतिस्थापन के सभी प्रयासों के बावजूद आयात निर्यातों
से अधिक थे 1970 के दशक के बाद हरित क्रांति में सफलता मिलने पर खाद्यान्नों का
आयात रोक दिया गया लेकिन 1973 में आए ऊर्जा संकट से पेट्रोलियम (पदार्थों) के
मूल्य में उछाल आया फलत: आयात बजट भी बढ़ गया खाद्यान्नों के आयात की जगह उर्वरकों
एवं पेट्रोलियम ने ले ली मशीन एवं उपस्कर, विशेष स्टील,
खाद्य तेल तथा रसायन मुख्य रूप से आयात व्यापार की रचना करते हैं। निर्याताभिमुख
उद्योगों एवं घरेलू क्षेत्र की बढ़ती हुई माँग के कारण पूँजीगत वस्तुओं के आयात में
एक स्थिर वृद्धि होती रही है गैर-वैद्युतिक मशीनरी परिवहन उपस्कर, धातुओं के विनिर्मितियाँ तथा मशीनी औज़ार आदि पूँजीगत वस्तुओं की मुख्य
मदें होती थीं खाद्य तेलों के अयात में आई गिरावट के साथ खाद्य तथा समवर्गी
उत्पादों के आयात में कमी आई है भारत के आयात में अन्य प्रमुख वस्तुओं में मोती
तथा उपरत्नों, स्वर्ण एवं चाँदी, धातुमय
अयस्क तथा धातु छीजन, अलौह धातुएँ तथा इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ
आदि आते हैं।
24.
12th BSEH Annual Paper March 2023 SET A Map (Solution) |
Click Below for
12th BSEH Annual Previous Year Paper March 2023 SET A Answer Key (Solution)
Click Below for
12th BSEH Annual Previous Year Paper March 2023 SET B Answer Key (Solution)
Click Below for
12th BSEH Annual Previous Year Paper March 2023 SET C Answer Key (Solution)
Click Below for
12th BSEH Annual Previous Year Paper March 2023 SET D Answer Key (Solution)