बुद्ध
पूर्णिमा
वैशाख की पूर्णिमा को भगवान विष्णु का नौवाँ अवतार भगवान बुद्ध के रूप में हुआ था। बुद्ध पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा को मनाई जाती है। इसे 'बुद्ध जयंती' के नाम से भी
जाना जाता है। यह बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है।
पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। मान्यता
है कि इसी दिन भगवान बुद्ध को 'बुद्धत्व' की प्राप्ति हुई थी इसी दिन भगवान बुद्ध का
निर्वाण हुआ था।
बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए 'बुद्ध पूर्णिमा' सबसे बड़ा त्योहार का दिन होता है। इस दिन सारे विश्व में जहाँ कहीं भी बौद्ध धर्म के मानने वाले रहते हैं, वहाँ अनेक प्रकार के समारोह आयोजित किए जाते हैं। अलग-अलग देशों में वहाँ के रीति-रिवाजों और संस्कृति के अनुसार समारोह आयोजित होते हैं
श्रीलंकाई इस दिन को 'वेसाक उत्सव' के रूप में मनाते हैं, जो 'वैशाख' शब्द का अपभ्रंश है।
गौतम बुद्ध
जीवन वृत्त
शिक्षा एवं विवाह
विरक्ति
महाभिनिष्क्रमण
ज्ञान प्राप्ति
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
महापरिनिर्वाण
उपदेश
(i) सम्यक दृष्टि
(ii) सम्यक संकल्प
(iii) सम्यक वाणी
(iv) सम्यक कर्मांत
(v) सम्यक आजीव
(vi) सम्यक व्यायाम
(vii) सम्यक स्मृति
(viii) सम्यक समाधि
बौद्ध धर्म एवं संघ
प्रेरक
प्रसंग
महात्मा बुद्ध के सद्गुणों से प्रभावित होकर बहुत-से लोग
उनके शिष्य बन गए थे। आम जनमानस उनका बहुत आदर सत्कार करता था। किंतु संसार में जहां
संतों का आदर सम्मान करने वाले संस्कारी लोग होते हैं, वहां अकारण ही उनसे ईर्ष्या,
द्वेष करने वाले व्यक्ति भी संसार में मिल ही जाते हैं। ऐसा ही एक व्यक्ति महात्मा
बुद्ध से अकारण ही वैर भाव रखता था और उन्हें गालियां दिया करता था। महात्मा बुद्ध
उसकी गालियों का कोई उत्तर न देते। उसकी ओर देखकर मुस्कराते और आगे बढ़ जाते।
एक बार निरंतर दो दिन तक महात्मा बुद्ध को वह व्यक्ति दिखाई न दिया। उन्होंने एक शिष्य को उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा। शिष्य ने थोड़ी देर में पता लगाकर बताया कि वह व्यक्ति परसों घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहा था, मार्ग में घोड़ा अचानक बिगड़ गया और बेकाबू हो गया। वह व्यक्ति संभल न सका और नीचे गिर गया। जिससे उसे बहुत चोटें आई हैं। बिस्तर पर पड़ा वह दर्द से कराह रहा है। अपने घर में वह अकेला ही रहता है। वह चूंकि अत्यंत क्रोधी और झगड़ालू प्रकृति का है, इसलिए कोई पड़ोसी उसके पास नहीं फटकता। सारा वृतांत सुनते ही महात्मा बुद्ध का हृदय करूणा से भर गया। वे तुरंत उसके घर चल दिए और सीधे उस कमरे में पंहुचे, जहां पड़ा वह दर्द से कराह रहा था। उसके माथे पर प्यार भरा हाथ रखते हुए कहा, कैसी तबीयत है।
आवाज सुनते ही उसने आंखें खोली। महात्मा बुद्ध को देखते ही वह अपना सारा दर्द भुल गया। वह एकटक उन्हें देखता रहा, फिर उठने का प्रयास करने लगा। महात्मा बुद्ध बोले, "उठो नहीं, तुम्हें आराम की आवश्यकता है"। फिर उसके घावों को अच्छी तरह साफ करके मरहम पट्टी की, दो भिक्षुओं को वहां रहकर उसकी सेवा करने का आदेश दिया। फिर उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए बोले, "जब तक तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाते, ये दोनों यहीं रहकर तुम्हारी सेवा करेंगे"। महात्मा बुद्ध के प्रेम भरे शब्द सुनकर उसे अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ। उसने तथागत के चरणों में गिरकर अपने अनुचित व्यवहार के लिए माफी मांगी और उनका शिष्य हो गया।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में नबी या ईश्वरदूत के रूप में वर्णित है।
आज बौद्ध
धर्म को मानने वाले लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। बुद्ध पूर्णिमा के दिन दान-पुण्य और धर्म-कर्म के अनेक कार्य किए जाते हैं। यह स्नान लाभ की दृष्टि से अंतिम पर्व है। इस दिन मिष्ठान, सत्तू, जलपात्र, वस्त्र दान करने तथा पितरों का तर्पण करने से बहुत पुण्य की प्राप्ति होती है।
बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए 'बुद्ध पूर्णिमा' सबसे बड़ा त्योहार का दिन होता है। इस दिन सारे विश्व में जहाँ कहीं भी बौद्ध धर्म के मानने वाले रहते हैं, वहाँ अनेक प्रकार के समारोह आयोजित किए जाते हैं। अलग-अलग देशों में वहाँ के रीति-रिवाजों और संस्कृति के अनुसार समारोह आयोजित होते हैं
श्रीलंकाई इस दिन को 'वेसाक उत्सव' के रूप में मनाते हैं, जो 'वैशाख' शब्द का अपभ्रंश है।
- इस दिन बौद्ध
घरों में दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाया जाता है।
- दुनिया भर से
बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं।
- बौद्ध धर्म के
धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है।
- मंदिरों व घरों
में अगरबत्ती लगाई जाती है। मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाए जाते हैं और दीपक जलाकर पूजा की जाती है।
- बोधिवृक्ष की
पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं पर हार व रंगीन पताकाएँ सजाई जाती हैं। जड़ों में
दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है। वृक्ष के आसपास दीपक जलाए जाते
हैं।
- इस दिन मांसाहार
का परहेज होता है, क्योंकि बुद्ध पशु हिंसा के विरोधी थे।
- इस दिन किए गए
अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है।
- पक्षियों को
पिंजरे से मुक्त कर खुले आकाश में छोड़ा जाता है।
- गरीबों को भोजन
व वस्त्र दिए जाते हैं।
- दिल्ली संग्रहालय
इस दिन बुद्ध की अस्थियों को बाहर निकालता है, जिससे कि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ
आकर प्रार्थना कर सकें।
गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व –
निर्वाण 483 ईसा पूर्व) विश्व महान
दार्शनिक, वैज्ञानिक,
धर्मगुरू एवं उच्च कोटी के समाज
सुधारक थे। तथागत बुद्ध प्राचीनतम धर्मों में से एक महान बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर मे हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जिनका सात दिन बाद निधन हुआ,
उनका पालन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक
मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा,
मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की
तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की
कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधी वृक्ष के नीचे उन्हें
ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए।
आज पुरे विश्व में करीब १८० करोड़ बौद्ध धर्म के अनुयायी है और यह बौद्ध
जनसंख्या विश्व की आबादी का २५% हिस्सा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार चीन में ९१% (१२२ करोड़ ) आबादी बौद्ध है। चीन, जापान, व्हिएतनाम,
थायलैंड,
मंगोलिया,
कंबोडिया,
श्रिलंका,
उत्तर कोरीया,
दक्षिण कोरीया,
म्यानमार,
तैवान, भूतान, हाँग काँग,
तिबेट, मकाउ, सिंगापूर ये सब १८ बौद्ध देश है। भारत,
मलेशिया,
नेपाल, इंडोनेशिया,
अमेरिका ,
ऑस्ट्रेलिया,
ब्रुनेई आदी देशों में भी बौद्धधर्म
का अनुयायी की संख्या अधिक है।
जीवन वृत्त
उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी, नेपाल में हुआ था।लुम्बिनी वन नेपाल के तराई
क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में
रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था।
कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के
अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को
जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।
गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे
गौतम भी कहलाए।
परंपरागत कथा के अनुसार,
सिद्धार्थ की माता मायादेवी जो कोली वन्श की थी का उनके जन्म के सात दिन
बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी
महाप्रजावती (गौतमी)ने किया।
शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया,
जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी
प्राप्ति के लिए जन्मा हो"।
जन्म समारोह के दौरान,
साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र
पथ प्रदर्शक बनेगा।
शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण
समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित
किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक
महान पवित्र आदमी बनेगा।
दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर
महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के
जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से
थएरावदा देशों में मनाया जाता है।
सिद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का
स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है।
घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो
सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता।
खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना
पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।
सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त
द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्
तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा
ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान,
रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं
कर पाता ।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कोली
कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से
युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। लेकिन विवाहके बाद उनका
मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर
दिया.
विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए
भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए।
वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में
रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं।
वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे
की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे,
बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी
पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था।
दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को
निकला, तो उसकी आँखों के
आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख
गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल
से चल पा रहा था।
तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी
उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था,
कोई छाती पीट रहा था,
कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों
ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया।
उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को,
जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है
स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर
देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है।
क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी
सौम्य?
चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला,
तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार
की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को
आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा,
दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे
राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। वह राजगृह पहुँचा। वहाँ उसने भिक्षा माँगी।
सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचा। उनसे उसने
योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचा
और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगा।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल
खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया।
छः साल बीत गए तपस्या करते हुए।
सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग :
एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से
लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा था।
उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला
छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे
टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गया कि नियमित आहार-विहार से
ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम
मार्ग ही ठीक होता है।
ज्ञान प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ
वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक
वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध
की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता
ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं।
सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और
कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई,
उसी तरह आपकी भी हो।’
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ
की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला
वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए 10 चीजों पर जोर दिया है:
(i) अहिंसा
(ii) सत्य
(iii) चोरी न करना
(iv) किसी भी प्रकार की संपत्ति न रखना
(v) शराब का सेवन न करना
(vi) असमय भोजन करना
(vii) सुखद बिस्तर पर न सोना
(viii) धन संचय न करना
(ix) महिलाओं से दूर रहना
(X) नृत्य गान आदि से दूर रहना.
(i) अहिंसा
(ii) सत्य
(iii) चोरी न करना
(iv) किसी भी प्रकार की संपत्ति न रखना
(v) शराब का सेवन न करना
(vi) असमय भोजन करना
(vii) सुखद बिस्तर पर न सोना
(viii) धन संचय न करना
(ix) महिलाओं से दूर रहना
(X) नृत्य गान आदि से दूर रहना.
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत
के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके
सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।
चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर
धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ)
पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को
अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त
के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे।
बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन,
जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार
से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से
बीमार पड़ गये।
बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश
दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन
अतुल्य है।
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग
का उपदेश किया।
उन्होंने दुःख,
उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक
मार्ग सुझाया।
सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग की बात कही. ये
साधन हैं. (i) सम्यक दृष्टि
(ii) सम्यक संकल्प
(iii) सम्यक वाणी
(iv) सम्यक कर्मांत
(v) सम्यक आजीव
(vi) सम्यक व्यायाम
(vii) सम्यक स्मृति
(viii) सम्यक समाधि
उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि
की निंदा की।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
·
सम्यक ज्ञान
बुद्ध के अनुसार धम्म है: -
·
जीवन
की पवित्रता बनाए रखना
·
जीवन
में पूर्णता प्राप्त करना
·
निर्वाण
प्राप्त करना
·
तृष्णा
का त्याग
·
यह
मानना कि सभी संस्कार अनित्य हैं
·
कर्म
को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना
|
बुद्ध के अनुसार अ-धम्म है: -
·
परा-प्रकृति
में विश्वास करना
·
आत्मा
में विश्वास करना
·
कल्पना-आधारित
विश्वास मानना
·
धर्म
की पुस्तकों का वाचन मात्र
|
बुद्ध के अनुसार सद्धम्म क्या है: -
1. जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे--
·
जो
धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे
·
जो
धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है
·
जो
धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है
|
2. जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे--
·
जो
धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके
साथ शील भी अनिवार्य है
·
जो
धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है
·
जो
धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है।
|
3. जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों
को मिटा दे
·
जब
वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे
·
जब
वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए
·
जब
वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे
|
बौद्ध धर्म एवं संघ
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की
संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और
राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ
की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ
में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना।
भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का
देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा।
अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में
बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से
निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया,
मंगोलिया,
बर्मा, थाईलैंड,
हिंद चीन,
श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन
देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
आज भी बौद्ध धर्म सभी जातियों और
पंथों के लिए खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल,
पापी हो या पुण्यात्मा,
गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए
उनका दरवाजा खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है।
प्रेरक
प्रसंग
महात्मा बुद्ध के सद्गुणों से प्रभावित होकर बहुत-से लोग
उनके शिष्य बन गए थे। आम जनमानस उनका बहुत आदर सत्कार करता था। किंतु संसार में जहां
संतों का आदर सम्मान करने वाले संस्कारी लोग होते हैं, वहां अकारण ही उनसे ईर्ष्या,
द्वेष करने वाले व्यक्ति भी संसार में मिल ही जाते हैं। ऐसा ही एक व्यक्ति महात्मा
बुद्ध से अकारण ही वैर भाव रखता था और उन्हें गालियां दिया करता था। महात्मा बुद्ध
उसकी गालियों का कोई उत्तर न देते। उसकी ओर देखकर मुस्कराते और आगे बढ़ जाते। एक बार निरंतर दो दिन तक महात्मा बुद्ध को वह व्यक्ति दिखाई न दिया। उन्होंने एक शिष्य को उस व्यक्ति का पता लगाने को कहा। शिष्य ने थोड़ी देर में पता लगाकर बताया कि वह व्यक्ति परसों घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहा था, मार्ग में घोड़ा अचानक बिगड़ गया और बेकाबू हो गया। वह व्यक्ति संभल न सका और नीचे गिर गया। जिससे उसे बहुत चोटें आई हैं। बिस्तर पर पड़ा वह दर्द से कराह रहा है। अपने घर में वह अकेला ही रहता है। वह चूंकि अत्यंत क्रोधी और झगड़ालू प्रकृति का है, इसलिए कोई पड़ोसी उसके पास नहीं फटकता। सारा वृतांत सुनते ही महात्मा बुद्ध का हृदय करूणा से भर गया। वे तुरंत उसके घर चल दिए और सीधे उस कमरे में पंहुचे, जहां पड़ा वह दर्द से कराह रहा था। उसके माथे पर प्यार भरा हाथ रखते हुए कहा, कैसी तबीयत है।
आवाज सुनते ही उसने आंखें खोली। महात्मा बुद्ध को देखते ही वह अपना सारा दर्द भुल गया। वह एकटक उन्हें देखता रहा, फिर उठने का प्रयास करने लगा। महात्मा बुद्ध बोले, "उठो नहीं, तुम्हें आराम की आवश्यकता है"। फिर उसके घावों को अच्छी तरह साफ करके मरहम पट्टी की, दो भिक्षुओं को वहां रहकर उसकी सेवा करने का आदेश दिया। फिर उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए बोले, "जब तक तुम पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाते, ये दोनों यहीं रहकर तुम्हारी सेवा करेंगे"। महात्मा बुद्ध के प्रेम भरे शब्द सुनकर उसे अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ। उसने तथागत के चरणों में गिरकर अपने अनुचित व्यवहार के लिए माफी मांगी और उनका शिष्य हो गया।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में नबी या ईश्वरदूत के रूप में वर्णित है।
It is believed that Gautama Buddha obtained
Enlightenment and passed away on the same day. Buddha Purnima is also known as
Buddha Jayanti, Vesak, Vaishaka and Buddha’s
Birthday.
In 2018 Budh Purnima will be celebrated on 29thApril (Sunday)
In 2018 Budh Purnima will be celebrated on 29thApril (Sunday)