क्यों नदी जोड़ परियोजना
देश की कमर भी तोड़ सकती है
महत्वाकांक्षी
नदी जोड़ परियोजना धरातल पर उतरने को है। सरकार ज़ल्द ही मध्य प्रदेश-उत्तर प्रदेश
में बहने वाली केन और बेतवा नदियों को आपस में जोड़ने का काम शुरू करने वाली है।
सूत्र बताते हैं कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय
की फॉरेस्ट एडवायज़री कमेटी (एफएसी) इस काम को हरी झंडी दे चुकी है।
मंत्रालय के एक अधिकारी इसकी पुष्टि करते हुए
कहते हैं, ‘परियोजना
के आगे बढ़ने में अब कोई रुकावट नहीं है। ज़ल्दी ही इसे पर्यावरण मंत्री अंतिम
अनुमति दे देंगे।’
लगभग 10 हजार करोड़ रु की लागत से बनने वाले
केन-बेतवा लिंक में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्से शामिल हैं। इस परियोजना
के तहत मध्य प्रदेश से केन नदी के अतिरिक्त पानी को 231 किमी लंबी एक नहर के जरिये उत्तर प्रदेश में बेतवा नदी तक लाया जाएगा।
माना जा रहा है कि इससे अक्सर सूखे से जूझने
वाले बुंदेलखंड की एक लाख 27 हजार हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकेगी।
नदी जोड़ परियोजना के तहत
पूरे भारत में ऐसे कुल 30 लिंक बनने हैं। इनमें साढ़े पांच लाख करोड़़ रु के खर्च का अनुमान लगाया जा रहा
है।
उमा भारती का मानना है कि अगर राज्यों ने ठीक से
सहयोग किया तो तेजी से काम करते हुए अगले सात से 10 साल के भीतर यह परियोजना पूरी की जा
सकती है।
दावा किया जा रहा है कि इससे कई
इलाकों में सूखे और बाढ़ की समस्या से निजात मिलेगी। इसके अलावा इस परियोजना से विशाल मात्रा में बिजली उत्पादन की बात भी कही जा रही
है जिससे देश की आर्थिक प्रगति का मार्ग और चौड़ा होगा।
इतिहास
भारत की सारी बड़ी नदियों
को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव पहली बार ब्रिटिश राज के चर्चित इंजीनियर सर आर्थर
कॉटन ने 1858 में दिया था।
सोच यह थी कि नहरों के विशाल जाल के जरिये
नदियां आपस में जुड़ जाएंगी तो न सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य के इस उपनिवेश में
आयात-निर्यात का काम तेज और आसान होगा बल्कि एक ही वक्त पर कहीं सूखे और कहीं बाढ़
की समस्या से निपटा जा सकेगा।
कॉटन इससे पहले कावेरी, कृष्णा और गोदावरी पर कई
बांध और बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बना चुके थे। लेकिन तब के संसाधनों के बूते से
बाहर होने के चलते यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी।
नदी जोड़ परियोजना आजादी के
बाद तब फिर सुर्खियों में आई जब 1970 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने
एक राष्ट्रीय जल ग्रिड बनाने का प्रस्ताव दिया।
राव का कहना था कि गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी
नदियों की घाटी में ज्यादा पानी रहता है जबकि मध्य और दक्षिण भारत के इलाकों में
पानी की कमी रहती है।
उनकी सोच यह थी कि उत्तर भारत का अतिरिक्त पानी
मध्य और दक्षिण भारत तक पहुंचाया जाए।
राव की गंगा
कावेरी नहर योजना की सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी। इसके तहत ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी नहर के जरिये गंगा के
करीब 50 हजार
क्यूसेक पानी को करीब साढ़े पांच सौ मीटर ऊंचा उठाकर दक्षिण भारत की तरफ ले जाया
जाना था। लेकिन केंद्रीय जल आयोग ने इस
योजना को आर्थिक और तकनीकी रूप से अव्यावहारिक बताते हुए खारिज कर दिया।
इसके
बाद नदी जोड़ परियोजना की चर्चा 1980 में हुई। इस साल भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। नेशनल परस्पेक्टिव फॉर वाटर
रिसोर्सेज डेवलपमेंट नामक इस रिपोर्ट में नदी जोड़ परियोजना को दो हिस्सों में
बांटा गया था-हिमालयी इलाका और
प्रायद्वीप यानी दक्षिण भारत का क्षेत्र।
1982 में इस मुद्दे पर नेशनल
वाटर डेवलपमेंट एजेंसी के रूप में विशेषज्ञों की एक संस्था बनाई गई। इसका काम यह
अध्ययन करना था कि प्रायद्वीप की नदियों और दूसरे जल संसाधनों को जोड़ने का काम
कितना व्यावहारिक है। इस संस्था ने कई रिपोर्टें दीं। लेकिन बात वहीं की वहीं अटकी
रही।
केंद्र में भाजपानीत एनडीए सरकार आने के बाद नदी
जोड़ परियोजना की फाइलों पर चढ़ी धूल फिर झाड़ी गई।
2002 में देश में भयानक सूखा
पड़ा था। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदियों को आपस में
जोड़ने के काम की व्यावहारिकता परखने के लिए एक कार्य दल का गठन किया। इसने उसी
साल अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी।
इसमें भी परियोजना को दो भागों में बांटने की
सिफारिश की गई।
पहले हिस्से में दक्षिण भारतीय नदियां शामिल थीं
जिन्हें जोड़कर 16 कड़ियों की एक ग्रिड बनाई जानी थी।
हिमालयी हिस्से के तहत गंगा, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक
नदियों के पानी को इकट्ठा करने की योजना बनाई गई जिसका इस्तेमाल सिंचाई और बिजली
परियोजनाओं के लिए होना था।
लेकिन फिर 2004 में कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार आ
गई और मामला फिर ठंडे बस्ते में चला गया।
देश में ही कई उदाहरण हैं
जो बताते हैं कि जब नदियों के पानी की दिशा नहरों के जरिये मोड़ी गई तो उन्होंने
आसपास की जमीन को खारा और दलदली बनाते हुए इसका बदला लिया।
इसके बाद यह परियोजना 2012 में सुर्खियों
में आई। इस साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस
महत्वाकांक्षी परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करे ताकि देरी की वजह से इसकी
लागत और न बढ़े। अदालत ने इसकी योजना तैयार करने और इस पर अमल करने के लिए एक उच्च
स्तरीय समिति भी बनाई थी। अब केन-बेतवा लिंक के साथ आखिरकार नदी जोड़ परियोजना
जमीन पर उतरने वाली है।
अपने-अपने तर्क
नदी जोड़ परियोजना के सम्मोहन की अपनी वजहें हैं
तो बार-बार इससे पीछे हटने के भी अपने कारण हैं। परियोजना के पैरोकार इसके पक्ष
में कई तर्क देते हैं।
उनका कहना है कि इससे देश में सूखे की समस्या का स्थायी हल निकल जाएगा।
दलील यह भी है कि नदियों को जोड़ने वाले कुल 30 लिंक बनने के बाद 15 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी।
यह भी कहा जा रहा है कि नदियां जोड़ने के बाद
गंगा और ब्रह्मपुत्र के इलाके में हर साल बाढ़ की समस्या से भी निजात मिलेगी क्योंकि अतिरिक्त पानी को इस्तेमाल करने की एक
व्यवस्था मौजूद होगी।
परियोजना की वकालत कर रहे लोग यह तर्क भी देते
हैं कि इससे 34 हजार मेगावॉट बिजली बनेगी जो देश की ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए बहुत अहम
है।
लेकिन नदियों को जोड़ने का विरोध करने वालों के
पास इतने ही या इससे भी कहीं मजबूत तर्क हैं।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इतने व्यापक स्तर पर प्रकृति से
खिलवाड़ के नतीजे बहुत भयानक होंगे। उनके मुताबिक अगर नदियों की भूगर्भीय स्थिति, उनमें गाद आने की मात्रा, देश में ही दूसरी बड़ी नहर
परियोजनाओं के अनुभवों और विदेशों में ऐसी परियोजनाओं के हश्र पर ठीक से गौर किया
जाए तो नदी जोड़ परियोजना बहुत विनाशकारी साबित होने वाली है।
कई
विशेषज्ञ मानते हैं कि इस परियोजना में सबसे बड़ी अड़चन कुदरत ही है।
नदियों का एक स्वाभाविक ढाल होता है जिसे वे
अपने आप पकड़ती हैं और इसके इर्दगिर्द के इलाके को खुशहाल बनाते हुए आगे बढ़ती हैं।
देश में ही ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि
जब नदियों के पानी की दिशा नहरों के जरिये मोड़ी गई तो उन्होंने आसपास की जमीन को
खारा और दलदली बनाते हुए इसका बदला ले लिया।
उत्तर प्रदेश के 16 जिलों से होकर गुजरने
वाली शारदा सहायक नहर को ही लीजिए जो देश की प्रमुख नहरों में से एक है।
2000 में पूरी हुई 260 किमी लंबी इस नहर का लक्ष्य 16।77 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करना था। लेकिन यह सिर्फ 48 फीसदी लक्ष्य हासिल कर पाई है यानी आधे से भी कम।
ऊपर से इससे रिसता पानी
अक्सर हजारों हेक्टेयर जमीन में जलजमाव और सीलन की वजह बन रहा है जिससे कम पानी
वाली गेहूं और दलहन जैसी फसलें बर्बाद हो रही हैं।
राज्यों के बीच पानी को
लेकर पहले से ही टकराव चल रहे हैं। सतलुज-यमुना लिंक नहर का मुद्दा कई दशक से अदालती पेंच में उलझा
हुआ है। पंजाब सतलज का जरा भी पानी छोड़ने को तैयार नहीं।
यही नहीं, शारदा सहायक नहर में तेजी से भरने वाली गाद न सिर्फ नहर की पानी ले
जाने की क्षमता में कम कर रही है बल्कि खेती की जमीन को बंजर भी बना रही है। यह नहर रायबरेली से भी
गुजरती है जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का संसदीय क्षेत्र है। नहर के बारे में बढ़ रही
शिकायतों के बाद कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने नहर की सफाई और गाद निकालने के लिए 319 करोड़ रुपयों का विशेष
पैकेज दिया था।
कई जानकार मानते हैं कि इस
गाद से बड़ी समस्या वह गाद है जो नीति-नियंताओं की अक्ल पर पड़ी है। अब खत्म हो चुके योजना आयोग
ने कुछ साल पहले शारदा सहायक नहर की समीक्षा करते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस नहर के इलाके में आने वाले किसानों की तुलना
में इससे बाहर रहनेवाले लोगों की संपत्ति में ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। साफ है कि इस नहर से जितना फायदा हुआ, उससे ज्यादा नुकसान हुआ।
दूसरा पहलू अलग-अलग राज्यों
के बीच पानी को लेकर चल रहे टकरावों का है। सतलुज-यमुना लिंक नहर का मुद्दा कई दशकों से
अदालती पेंच में उलझा हुआ है। 1981 में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच पानी के
बंटवारे का एक समझौता हुआ था। इसके तहत पंजाब को सतलज का पानी बाकी राज्यों के साथ
बांटना था। लेकिन बाद में वह इस समझौते से मुकर गया। उसका तर्क था कि सतलज सिर्फ उसके इलाके से होकर बहती है तो वह इसका पानी
दूसरे राज्यों के साथ क्यों बांटे।
यही नहीं, कुछ समय पहले उसने वह जमीन भी किसानों को
वापस कर दी जो इस परियोजना के लिए नहर बनाने के मकसद से अधिग्रहीत की गई थी। इस पर
वहां अकाली दल और कांग्रेस, दोनों एक राय हैं।
इसी तरह कर्नाटक और
तमिलनाडु के बीच ब्रिटिश राज के जमाने से ही कावेरी जल विवाद चला आ रहा है। नदी जोड़ परियोजना में 30 से ज्यादा नदियों को जोड़ने की बात है। ऐसे में इसका क्या नतीजा होगा, सहज अनुमान लगाया जा सकता है। खबरें आ ही रही हैं कि उड़ीसा इस परियोजना
में जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखा रहा।
देश का शायद ही कोई
इलाका होगा जहां भूमि अधिग्रहण के खिलाफ तीखे आंदोलन न चल रहे हों। नदी जोड़ परियोजना के
लिए किसी भी दूसरी परियोजना की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन चाहिए होगी।
बात सिर्फ राज्यों की ही नहीं है। 1996 में गंगा के
पानी को लेकर भारत और बांग्लादेश में एक समझौता हुआ था। इसमें भारत ने बांग्लादेश
से वादा किया था कि वह पश्चिम बंगाल में भारत-बांग्लादेश सीमा के पास स्थित फरक्का
बैराज से पहले किसी भी इलाके में गंगा के पानी को दूसरी दिशा में नहीं मोड़ेगा।
जानकारों के मुताबिक ऐसे में यह परियोजना पटरी पर आ रहे भारत-बांग्लादेश संबंधों
में फिर तनाव की वजह बन सकती है।
इस मुद्दे का एक और अहम पहलू इस परियोजना के लिए
जमीनों के अधिग्रहण का है। इस समय देश का शायद ही कोई इलाका होगा जहां अलग-अलग
परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ तीखे आंदोलन न चल रहे हों। नदी जोड़
परियोजना के लिए किसी भी दूसरी परियोजना की तुलना में कहीं ज्यादा जमीन चाहिए होगी।
ऐसे में जानकार मान रहे हैं कि देश के कई हिस्सों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की
गंभीर चुनौती खड़ी होगी जिससे इतने बड़े स्तर पर निपटना सरकार के लिए टेढ़ी खीर हो
जाएगा।
कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवाई कर रहीं मेधा पाटकर इस परियोजना को पूरी तरह
अव्यावहारिक बताया था। उनके मुताबिक इसके सामाजिक, आर्थिक
और पर्यावरण पर पड़ने वाले परिणाम बहुत बुरे और बड़े होंगे। उनका कहना था,
‘सरकार का यह दावा कि इससे बाढ़ की समस्या से निजात मिलेगी, गलत है। गंगा के पानी का सिर्फ 20 फीसदी हिस्सा मोड़ने की बात है। इससे बाढ़ कैसे रुक पाएगी? इस दावे का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।’ पाटकर
को यह भी डर है कि इस योजना से नदियों का निजीकरण हो सकता है। इस
परियोजना में साढ़े पांच लाख करोड़ रु खर्च होने की बात कही जा रही है। पाटकर के मुताबिक इतनी विशाल लागत सिर्फ सरकार वहन नहीं कर सकती। इसके
लिए कॉरपोरेट जगत के निवेश की भी जरूरत होगी।
नदी
जोड़ के नतीजों को देखते हुए दुनिया के कई देश इससे तौबा कर चुके हैं।
अमेरिका में कोलैराडो से
लेकर मिसीसिपी नदी घाटी तक बड़ी संख्या में बनी ऐसी परियोजनाएं गाद भर जाने के कारण
बाढ़ का प्रकोप बढ़ाने लगीं और उनसे बिजली का उत्पादन भी धीरे-धीरे गिरता गया। आखिर
में इन परियोजनाओं के लिए बने बांध तोड़ने पड़े। इस पर जो खर्च हुआ सो अलग।
विशेषज्ञ बताते हैं कि गंगा
या ब्रह्मपुत्र में हर साल आने वाली गाद की मात्रा मिसीसिपी नदी से दोगुनी है।
सोवियत संघ के जमाने में
साइबेरियाई नदियों को नहरों के जाल के जरिये कजाकिस्तान और मध्य एशिया की कम पानी
वाली नदियों की ओर मोड़ने का काम हुआ।
योजना का मुख्य हिस्सा 2200 किलोमीटर लंबी एक नहर थी। दावे किए गए कि इससे
अनाज का उत्पादन बढ़ जाएगा। लेकिन इसका हाल शारदा सहायक नहर जैसा ही हुआ। जहां-जहां भी नहर पहुंची
वहां-वहां दलदली जमीन और खारे पानी ने किसानों की कमर तोड़ दी। 80 के दशक में इस
योजना को छोड़ दिया गया।
सवाल उठता है कि फिर समाधान क्या है। जानकार
मानते हैं कि भारत भू-सांस्कृतिक विविधता
वाला देश है जहां
हर इलाके में सिंचाई और पीने के लिए पानी का प्रबंधन अलग-अलग तरीकों से होता रहा
है।
ऐसे में सब पर एक समाधान थोपना ठीक नहीं।
जानकारों के मुताबिक जब जल संरक्षण के छोटे-छोटे
स्थानीय प्रयासों से देश के कम बारिश वाले इलाकों में भी नदियों को पुनर्जीवित
करने के सफल उदाहरण मौजूद हैं तो फिर ऐसे इलाकों में दूसरे इलाके की नदियों को
खींचकर लाने के ऐसे जटिल और विनाशकारी काम की क्या जरूरत है, जिसमें बहुत पैसा खर्च होगा और
जिससे बड़े स्तर पर भौगोलिक बिगाड़ भी होगा।
जल संरक्षण पर अपने काम के लिए चर्चित राजेंद्र सिंह एक साक्षात्कार में कहते
हैं, ‘नदियों को जोड़ने के बजाय
सरकार को इस पर ध्यान लगाना चाहिए कि लोगों के दिल और दिमाग को नदियों के साथ
जोड़ा जाए ताकि नदियों को फिर से जिंदा किया जा सके। नदियों को जोड़ने से सूखा
खत्म नहीं होगा। सूखा तब खत्म होगा जब समाज खुद को पानी के साथ जोड़ेगा।’
पर्यावरण संबंधी मुद्दों को लेकर लगातार आवाज
उठाने वाले हिमांशु ठक्कर भी कुछ ऐसा ही मानते हैं।
एक अखबार से बात करते हुए वे कहते हैं, ‘ऐसी परियोजना का क्या करना जिससे
जंगलों का नाश हो, लोगों का विस्थापन हो और जलवायु
परिवर्तन के बुरे असर में और तेजी आए।’
चर्चित पर्यावरणविद् अनुपम
मिश्र ने
कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में कहा था, ‘नदी जोड़ने का काम प्रकृति का है।
जहां दो नदियां जुड़ती हैं वह जगह तीर्थस्थल बन जाती है। अब दो नदियों को नहर से
जोड़ने की कोशिश की जाएगी। इससे किसानों को तो नहीं पर नेताओं और बाबूओं को जरूर
लाभ होगा।’
मिश्र का मानना था कि देश में पानी की समस्या का
हल वास्तव में सही तरीके से जल का प्रबंधन है और जितनी राशि
नदियों को जोड़ने में खर्च की जानी है उससे कहीं कम अगर बारिश का पानी रोकने और नदियों और
तालाबों को बचाने में खर्च की जाए तो समस्या हल हो जाएगी।