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पृथ्वी के वातावरण के बदलते स्वरूप के कुछ ज्वलंत उदाहरण

भारतीय इतिहास का आठवां सबसे गर्म वर्ष रहा 2020 (Impacts of Global Warming and CORONA & Lockdown on Environment) और नाटकीय रूप से सिकुड़ रही है, दुनिया की सबसे बड़ी झील - कैस्पियन सागर

2020 में तापमान सामान्य से 0.29 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया जबकि जलवायु से जुडी आपदाओं के चलते देश भर में 1,500 से भी ज्यादा लोगों की जान गई थी। 

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा आज जारी रिपोर्ट से पता चला है कि 2020 भारतीय इतिहास का आठवां सबसे गर्म वर्ष था। इस वर्ष तापमान सामान्य से 0.29 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया। हालांकि यदि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि की बात करें तो 2020 का औसत तापमान सामान्य से 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक था।

गौरतलब है कि 2016 में अब तक का सबसे अधिक तापमान रिकॉर्ड किया गया था। जब तापमान 1980 से 2010 के औसत की तुलना में  0.71 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि जलवायु में आ रहे बदलावों के चलते देश में तापमान लगातार बढ़ रहा है।

यदि देश में तापमान के बढ़ने को देखें तो अब तक के 12 सबसे गर्म वर्ष हाल के पंद्रह वर्षों (2006 से 2020) के दौरान रिकॉर्ड किए गए थे। इसी तरह यदि अब तक के सबसे पांच गर्म वर्षों की बात करें तो 2016 पहले स्थान पर था जब तापमान सामान्य से 0.71 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इसके बाद 2009 (+0.55 डिग्री सेल्सियस), 2017 (+0.54 डिग्री सेल्सियस), 2010 (+0.539 डिग्री सेल्सियस), और 2015 में तापमान सामान्य से 0.42 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया था।

यदि इस वर्ष जलवायु से जुडी आपदाओं की बात करें तो उनके कारण 1,500 से भी ज्यादा लोगों की जान गई। इसमें 600 से ज्यादा मौतें मानसून के दौरान आई भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन के कारण गई थी। वहीं तूफान और बिजली गिरने के कारण 815 मौतें हुई थी जबकि शीत लहर के चलते देश भर में 150 से अधिक जानें गई थी।

औसत से 109 फीसदी ज्यादा हुई 2020 में बारिश

यदि रिपोर्ट में दिए आंकड़ों पर गौर करें तो 2020 में सामान्य से ज्यादा बारिश रिकॉर्ड की थी। इस वर्ष सामान्य से 109 फीसदी ज्यादा बारिश रिकॉर्ड की गई थी। यह 1994 के 112 फीसदी एलपीए और 2019 के 110 फीसदी एलपीए के बाद तीसरा सबसे अधिक औसत था। इस बार देश में मानसून ने सामान्य से 12 दिन पहले ही दस्तक दे दी थी।

गौरतलब है कि इस वर्ष 26 जून तक मानसून देश के सभी हिस्सों में पहुंच चुका था, जोकि इसकी सामान्य तिथि (8 जुलाई) से 12 दिन पहले था। इस वर्ष यदि मानसून (जून से सितम्बर) की बात करें तो बारिश औसत से 109 फीसदी ज्यादा थी। इसी तरह मध्य भारत में औसत से 115 फीसदी, दक्षिण प्रायद्वीप में 129 फीसदी और पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में 106 फीसदी बारिश रिकॉर्ड की गई थी, जबकि उत्तर पश्चिम भारत में औसत का केवल 84 फीसदी बारिश हुई थी।

यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि पिछले वर्ष भारत में आई बाढ़ और चक्रवाती तूफान अम्फान को 2020 में आई दुनिया की 10 सबसे महंगी आपदाओं की सूची में शामिल किया गया था। इन दोनों से करीब 1.70 लाख करोड़ का नुकसान हुआ था, हालांकि यह जो अनुमान है वो सिर्फ उस नुकसान को दिखाता है जिसका बीमा है। यदि वास्तविक नुकसान की बात करें तो वो इससे कई गुना ज्यादा था।

भारत में मानसून के दौरान आई बाढ़ और भूस्खलन से करीब 73,569 करोड़ रुपए (1,000 करोड़ डॉलर) का नुकसान हुआ था। वहीं इसके चलते 2,067 लोगों की मौत हुई थी। साथ ही इसके चलते करीब 40 लाख लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा था। केरल में आए भूस्खलन में 49 लोगों की मौत हो गई थी। जबकि असम में मई से अक्टूबर के बीच आई बाढ़ में करीब 60,000 लोग प्रभावित हुए थे, वहीं 149 लोगों की मौत हो गई थी। इसी तरह हैदराबाद में 24 घंटों के दौरान रिकॉर्ड 29.8 सेंटीमीटर बारिश दर्ज दी गई थी, जोकि पिछले रिकॉर्ड से 6 सेंटीमीटर ज्यादा है। जिससे आई बाढ़ में करीब 50 लोगों की जान गई थी।

यह लगातार दूसरा वर्ष है जब मानसून के दौरान सामान्य से ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। वहीं पिछले 65 वर्षों में अत्यधिक बारिश की इन घटनाओं में करीब तीन गुना वृद्धि दर्ज की गई है। जोकि स्पष्ट तौर पर जलवायु में आ रहे बदलावों का ही नतीजा है। इसी तरह एक्शन ऐड द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट इनएक्शन’ से पता चला है कि 2050 तक भारत के 4.5 करोड़ से ज्यादा लोग जलवायु से जुड़ी आपदाओं के चलते अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो जाएंगे। यह आंकड़ा वर्तमान से करीब 3 गुना ज्यादा है। वर्तमान में सूखा, समुदी जलस्तर के बढ़ने, जल संकट, कृषि और इकोसिस्टम को हो रहे नुकसान जैसी आपदाओं के चलते देश में 1.4 करोड़ लोग पलायन करने को मजबूर हैं।

इसी तरह हाल ही में काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीइइडब्लू) द्वारा किए शोध से पता चला है कि देश में 75 फीसदी से ज्यादा जिलों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। इन जिलों में देश के करीब 63.8 करोड़ लोग बसते हैं।

हाल ही में यूएन द्वारा प्रकाशित "एमिशन गैप रिपोर्ट 2020" से पता चला है कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो सदी के अंत तक यह वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी। जिसके विनाशकारी परिणाम झेलने होंगे। तापमान में आ रही इस वृद्धि का सीधा असर आम लोगों के जनजीवन पर भी पड़ेगा।

तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी हालांकि अब आम बात बनती जा रही है। और शायद आम लोगों को इसका असर पता नहीं चल रहा या फिर वो उसे अनदेखा कर रहे हैं। लेकिन जिस तरह से और जिस रफ्तार से तापमान में यह बढ़ोतरी हो रही है, उसके चलते बाढ़, सूखा, तूफान, हीट वेव, शीत लहर जैसी घटनाएं बहुत आम बात हो जाएंगी और यह हो भी रहा है। जिसका सबसे ज्यादा असर आम जन पर ही पड़ेगा। कुछ पर सीधा और कुछ पर उसके अन्य रूपों में। कभी दशकों में पड़ने वाला विकराल सूखा आज हर साल पड़ रहा है। बाढ़ और तूफानों का आना आम बात बनता जा रहा है। हम इन आपदाओं का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। पर इसके असर को टाल नहीं सकते। डर है कि कहीं इंसानी महत्वाकांक्षा उसके ही विनाश का कारण तो नहीं बन जाएगी। 

गातार बढ़ते जलवायु संकट के कारण दुनिया भर में समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और इनके किनारे रहने वाले लोगों के लिए खतरा बढ़ गया है।

बढ़ते तापमान के कारण, सदी के दौरान कैस्पियन सागर का सतही क्षेत्र 23 से 34 फीसदी तक सिकुड़ जाएगा, इसकी वजह से जैव विविधता और विभिन्न प्रजातियों के गायब होने का खतरा बढ़ जाएगा।

9 से 18 मीटर तक गिर सकता है झीलों का जल स्तर

कैस्पियन सागर को दुनिया की कई अन्य झीलों के द्योतक के रूप में देखा जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण यह झील नाटकीय रूप से सिकुड़ रही है। 

अपने आकार के कारण कैस्पियन दुनिया की सबसे बड़ी झील है। यहां पानी के लगभग एक फीसदी खारापन होने के कारण, कैस्पियन को एक 'सागर' नाम दिया गया है। जबकि महासागरों में लगभग एक-तिहाई नमक की मात्रा होती है। कैस्पियन का सबसे बड़ा प्रवाह वोल्गा नदी है और इसका सागर से कोई प्राकृतिक संबंध नहीं है। इसका जल स्तर प्रवाह, वर्षा और वाष्पीकरण के आनुपातिक प्रभावों से निर्धारित होता है। ग्लोबल वार्मिंग से वाष्पीकरण बढ़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप जल स्तर में गिरावट आ रही है। यह शोध कम्युनिकेशन्स अर्थ एंड एनवायरनमेंट नामक में पत्रिका प्रकाशित हुआ है।

कैस्पियन सागर एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय जलाशय है और इसके नमकीन होने के बावजूद, यह एक जैविक और व्यावसायिक केंद्र है। यह कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ईरान, अजरबैजान और रूस से घिरा है। भविष्य में बढ़ते तापमान के आधार पर, इस सदी के दौरान कैस्पियन सागर का जल स्तर 9 से 18 मीटर तक गिर सकता है, अर्थात इसका सतही क्षेत्र 23 फीसदी से 34 फीसदी तक तक सिकुड़ जाएगा। यह न केवल जैव विविधता, विभिन्न प्रजातियों और उनके आवास को प्रभावित करेगा बल्कि इनके गायब होने का खतरा बढ़ जाएगा। जिससे सभी सीमावर्ती देशों की अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित होंगी, जिनमें बंदरगाह और मछली पालन शामिल हैं। यह शोध विभिन्न अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं जिसमें जुस्टिसस लिएबिग यूनिवर्सिटी, गैबेन से के थॉमस विल्के, यूट्रेक्ट विश्वविद्यालय के फ्रैंक पी. वेसलिंग्ल, नेचुरल बायोडायवर्सिटी सेंटर, नीदरलैंड के लिडेन शामिल हैं।

शोधकर्ताओं का तर्क है कि भविष्य में कैस्पियन सागर का उपयोग वैज्ञानिक शोध के लिए एक उदाहरण के रूप में किया जाना चाहिए, ताकि कुछ क्षेत्रों के गिरते जल स्तर का आकलन किया जा सके। क्योंकि कोई भी राष्ट्र इस तरह की चीजों को अकेले हल नहीं कर सकता है, वे रणनीतियों को विकसित करने और तालमेल बढ़ाने के लिए दुनिया भर में साथ काम करने के प्रस्ताव का सुझाव देते हैं। शोध बताता है कि "अंतरराष्ट्रीय जलवायु कोष" परियोजनाओं और अनुकूलन उपायों के लिए एक संभावना की पेशकश कर सकता है।


2027 से 2042 के बीच खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगी तापमान में हो रही वृद्धि

नए अनुमान से पता चला है कि तापमान में हो रही वृद्धि 2027 से 2042 के बीच 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी

हाल ही में छपे एक शोध से पता चला है कि वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 2027 से 2042 के बीच खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगी। हालांकि इससे पहले आईपीसीसी ने इसके 2052 तक चरम पर पहुंचने का अनुमान लगाया था। यदि इस शोध को देखें तो इसमें आईपीसीसी की तुलना में तापमान की वृद्धि के बारे में ज्यादा सटीक अनुमान लगाने का प्रयास किया गया है। मैकगिल यूनिवर्सिटी द्वारा किया यह शोध जर्नल  क्लाइमेट डायनेमिक्स में प्रकाशित हुआ है।

इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने एक नया तरीका खोजा है, उनका मानना है कि इस नए मॉडल की मदद से तापमान की ज्यादा सटीकता से गणना की जा सकती है। यह नया मॉडल जलवायु के ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह मॉडल पुराने दृष्टिकोणों की तुलना में अनिश्चितताओं को कम कर सकता है।

तापमान में होने वाली वृद्धि को जानने के लिए दशकों से वैज्ञानिक जलवायु मॉडल का उपयोग करते आए हैं। ये मॉडल पृथ्वी की जलवायु को समझने और उनमें आ रहे बदलावों को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन वे कितने सटीक हैं, इस पर अभी भी बहस जारी है।

क्या होते हैं क्लाइमेट मॉडल

जलवायु मॉडल उन विभिन्न कारकों के मैथेमैटिकल सिमुलेशन हैं, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं। इनमें वातावरण, महासागर, बर्फ, धरती की सतह और सूर्य प्रमुख हैं। हालांकि यह मॉडल अब तक पृथ्वी के बारे में मिली अधिकतम जानकारी पर आधारित होते हैं। इसके बावजूद जब भविष्य के बारे में अनुमान लगाने की बात आती है, तो अनिश्चितता बनी रहती है। 

शोध के अनुसार अब तक जिस तरह से तापमान बढ़ने के बारे में अनगिनत अनुमान लगाए गए हैं उसने अलग-अलग जलवायु शमन (क्लाइमेट मिटिगेशन) परिदृश्यों में सही अनुमान को और मुश्किल बना दिया है। उदाहरण के लिए यदि आईपीसीसी के सामान्य परिसंचरण मॉडल (जीसीएम) मॉडल को देखें तो उसके अनुसार यदि वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो जाती है तो वैश्विक तापमान में हो रही औसत वृद्धि 1.9 से 4.5 डिग्री सेल्सियस के बीच रहने का अंदेशा है। यह तापमान की एक विस्तृत रेंज है। जिसमें निचले स्तर पर मध्यम जलवायु परिवर्तन से लेकर उच्चतम स्तर पर तापमान में प्रलयंकारी वृद्धि होने का अनुमान लगाया गया है।

क्या है यह नया दृष्टिकोण

इस शोध से जुड़े शोधकर्ता राफेल हेबर्ट ने अपने क्लाइमेट मॉडल के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि “तापमान का पूर्वानुमान करने का हमारा यह नया दृष्टिकोण, जलवायु के ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित है। जबकि इसके विपरीत जीसीएम जैसे मॉडल सैद्धांतिक संबंधों पर आधारित होते हैं। हमारा मॉडल  तापमान के प्रत्यक्ष आंकड़ों और कुछ अनुमानों पर आधारित है। जिसकी मदद से जलवायु संवेदनशीलता और इसकी अनिश्चितता के बारे में पता लगाया जाता है।"

अब से सदी के अंत तक के तापमान का अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने जिस नए मॉडल का प्रयोग किया है उसे स्केलिंग क्लाइमेट रिस्पांस फंक्शन (एससीआरएफ) मॉडल का नाम दिया है। यह मॉडल जलवायु के ऐतिहासिक आंकड़ों पर आधारित है। जो आईपीसीसी द्वारा वर्तमान में उपयोग किए गए दृष्टिकोण की तुलना में तापमान की भविष्यवाणी सम्बन्धी अनिश्चितताओं को लगभग आधा कर देता है।

इस मॉडल से प्राप्त परिणामों के विश्लेषण से पता चला है कि तापमान में हो रही वृद्धि 2027 से 2042 के बीच 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी। वहीं जीसीएम मॉडल के अंतर्गत इसके अब से 2052 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस पर पहुंचने का अनुमान लगाया गया था। ऐसे में यह तापमान बढ़ने की समय सम्बन्धी अनिश्चितता को कुछ कम कर देता है। शोधकर्ताओं को यह भी पता चला है कि तापमान में हो रही औसत वृद्धि अनुमान से थोड़ा कम है। उन्होंने इसके लगभग 10 से 15 फीसदी कम रहने का अनुमान लगाया है।


आर्कटिक के गर्म होने से आ सकते हैं विनाशकारी भूकंप: अध्ययन

वैज्ञानिक ने अनुमान लगाया कि अचानक तापमान में बदलाव भू-गर्भकालीन कारकों को बढ़ा देता है, जिससे विनाशकारी भूकंप आने के आसार बढ़ जाते हैं।


महासागरों में भू-गर्भिक प्लेटों के खिसकने से भूकंप आते हैं। अब रूस के मास्को इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स एंड टेक्नोलॉजी (एमआईपीटी) के शोधकर्ता ने आर्कटिक के तेजी से गर्म होने की वजह से बार-बार और भयंकर भूकंप आने के बारे में बताया है। ग्लोबल वार्मिंग को इसकी एक मुख्य वजह बताया गया है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए अधिकतर मानव गतिविधि को जिम्मेवार माना गया है, जो वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों को बढ़ाता है। हालांकि यह दृष्टिकोण यह स्पष्ट नहीं करता है कि तापमान कभी-कभी अचानक क्यों बढ़ जाता है।

आर्कटिक में जलवायु को गर्म करने वाले कारकों में से एक पर्माफ्रोस्ट और शेल्फ जोन से मीथेन निकलना है। चूंकि अब शोधकर्ताओं ने आर्कटिक में तापमान की निगरानी करना शुरू कर दिया है, इस क्षेत्र में दो समय पर अचानक गर्मी देखी गई है, पहली बार 1920, जो कि 30 के दशक में था और फिर 1980 में शुरू हुआ और यह आज भी जारी है।

अपने शोध में वैज्ञानिक ने अनुमान लगाया कि अचानक तापमान में बदलाव भू-गर्भकालीन कारकों को बढ़ा देता है। विशेष रूप से, उन्होंने अलेउतियन द्वीप में आए विनाशकारी भूकंपों की एक श्रृंखला की ओर इशारा किया, जो आर्कटिक के सबसे नजदीकी क्षेत्र में सक्रिय हैं। यह अध्ययन लिओपोल्ड लोबकोवस्की के द्वारा किया गया हैं,  लोबकोवस्की विश्व महासागर के आर्कटिक और कॉन्टिनेंटल मार्जिन के भूभौतिकीय अनुसंधान में एमआईपीटी प्रयोगशाला के प्रमुख हैं।

अपनी परिकल्पना की जांच करने के लिए, लोबकोवस्की को तीन सवालों का जवाब देना था। सबसे पहले, जब भयंकर भूकंप आए उस दिन तापमान बढ़ा था या नहीं क्या ये इस विचार के साथ मेल खाता हैं? दूसरा, वह कौन सा तंत्र है जो अलेउतियन द्वीप से आर्कटिक के क्षेत्र में 2,000 से अधिक किलोमीटर तक फैलाने के लिए स्थलमंडल (लिथोस्फेरिक) गड़बड़ी से यह हो रहा है? तीसरा, इन गड़बड़ियों से मीथेन उत्सर्जन कैसे तेजी से होती है?

Source : Arctic and Antarctic Research Institute

पहले प्रश्न का उत्तर ऐतिहासिक आंकड़ों के विश्लेषण से मिला। यह पता चला है कि अलेउतियन आर्क वास्तव में 20 वीं शताब्दी में आए भयंकर भूकंपों की दो श्रृंखलाओं का स्थान था। उनमें से प्रत्येक में लगभग 15 से 20 वर्षों तक तापमान में अचानक वृद्धि देखी गई।

उन्होंने दूसरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए लिथोस्फेरिक एक्साइटैशन डाइनैमिक्स का एक मॉडल लिया। शोधकर्ता द्वारा प्रयुक्त मॉडल तथाकथित टेक्टोनिक तरंगों के प्रसार के बारे में बताता है और पूर्वानुमान लगाता है कि इनके द्वारा प्रति वर्ष लगभग 100 किलोमीटर की यात्रा की जानी चाहिए। यह प्रत्येक भयंकर भूकंप श्रृंखला और उसके बाद के तापमान में वृद्धि के बीच होने वाली देरी से है, क्योंकि इस गड़बड़ी ने 2,000 किलोमीटर से अधिक यात्रा तय करने में 15 से 20 साल लग गए। यह अध्ययन जियोसाइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित किए गए हैं।

तीसरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए शोधकर्ता ने आर्कटिक के क्षेत्र में आने वाली विरूपण तरंगें लिथोस्फीयर में मामूली सा अतिरिक्त तनाव के कारण यह बनता हैं, जो मेटास्टेबल गैस हाइड्रेट्स और पर्माफ्रोस्ट मीथेन की आंतरिक संरचना को बाधित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह मीथेन को अपने क्षेत्र के पानी और वायुमंडल में छोड़ता है, जिससे ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण क्षेत्र में जलवायु गर्म होती है।

अलेउतियन द्वीप में आने वाले भयंकर भूकंप और जलवायु के गर्म होने के चरणों के बीच एक स्पष्ट संबंध है। उपयुक्त गति से लिथोस्फियर में दबाव पड़ने पर यह इसे आगे बढ़ाता है। यह अतिरिक्त दबाव मेटास्टेबल गैस हाइड्रेट्स और पर्माफ्रोस्ट को नष्ट कर सकते हैं, जिससे मीथेन निकलती हैं। इस योजना में तीन में से प्रत्येक घटक तार्किक है और गणितीय और भौतिक रूप से स्पष्टीकरण देता है। महत्वपूर्ण रूप से, यह एक जाने-पहचाने तथ्य के बारे में और अधिक जानकारी देता है। लोबकोवस्की ने बताया कि आर्कटिक के तापमान में अचानक वृद्धि हमेशा से बेहिसाब बनी रही है। शोधकर्ता के अनुसार, उनके मॉडल पर चर्चा से लाभ होगा और इसमें और अधिक सुधार की संभावना है।

क्या आर्कटिक के गर्म होने के पीछे सहारा से उठने वाली धूल का तूफान है

अध्ययन के अनुसार जून 2020 में आर्कटिक समुद्री-बर्फ का आवरण कम था, धूल ने इसमें अहम भूमिका निभाई, इस तरह के पैटर्न एक गर्म होती दुनिया में अधिक होते हैं तो भविष्य में धूल के प्रकोप में वृद्धि होगी।



 धूल के तूफान को "गॉडज़िला" नाम दिया था।

जून 2020 के धूल के तूफान ने अपने आकार और इसकी एयरोसोल ऑप्टिकल गहराई के संदर्भ में रिकॉर्ड बनाया। उपग्रहों के द्वारा इसकी मोटाई निर्धारित की गई थी। यह 6,000 मीटर की ऊंचाई पर पहुंच गया था। अटलांटिक महासागर के ऊपर कुछ स्थानों में, इसकी मोटाई दोगुना थी जो जून के महीने के दौरान उपग्रह रिकॉर्ड के इतिहास के दौरान दर्ज की गई थी।

संयुक्त अरब अमीरात में खलीफा विश्वविद्यालय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रमुख इवान और सहयोगियों ने धूल के तूफान की भयावहता को एक प्रकार के उच्च दबाव प्रणाली के विकास द्वारा स्थापित स्थितियों के लिए जिम्मेदार ठहराया। इसने पश्चिम अफ्रीका पर उत्तर-दक्षिण दबाव को बढ़ा दिया था, जिससे उत्तर-पूर्वी हवाएं लगातार तेजी से बह रही थी। सहारा पर उत्तरी हवाओं के तेज होने से जून 2020 की दूसरी छमाही में कई दिनों तक लगातार धूल का उत्सर्जन होता रहा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि उपोष्णकटिबंधीय को एक परिधि तरंग में, हवा पैटर्न की एक श्रृंखला में जोड़ दिया गया था जो कि ग्रह के चारों ओर फैला हुआ था और उत्तरी गोलार्ध में जून 2020 तक मौजूद था। यह तरंग दैर्ध्य जून 2020 में रिकॉर्ड की गई आर्कटिक समुद्री बर्फ सीमा के कमी के कारण भी हो सकता है। माना जाता है कि आर्कटिक क्षेत्र के गर्म होने से मध्य अक्षांशों और उपग्रहों में हवा के पैटर्न में बदलाव होता है और मौसम की गंभीर घटनाएं होती हैं, हालांकि इस अवधारणा को लेकर वैज्ञानिकों में विवाद है।

फ्रांसिस ने कहा अफ्रीकी तट से उपोष्णकटिबंधीय उच्च विकास में धूल के उत्सर्जन और उष्णकटिबंधीय अटलांटिक के पार धूल के हवा में तेजी से पश्चिम की ओर जाने में दोनों की भूमिका थी। अधिक तेजी से दक्षिण के और बहने वाली हवा, अफ्रीकी ईस्टर जेट को तेज करती है, जो लगभग पांच किलोमीटर (3.2 मील) की ऊंचाई पर सहारा के ऊपर मौजूद एक जेट स्ट्रीम है, जो तेजी से धूल को कैरेबियन और दक्षिण अमेरिका की ओर ले जाता है। यह अध्ययन जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

दुनिया भर में हवा के माध्यम से फैलने वाली धूल के असंख्य परिणाम होते हैं, जो मौसम से लेकर विमान यात्रा तक सब कुछ प्रभावित करते हैं। धूल के स्रोत से हजारों मील दूर महाद्वीपों पर मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाते हैं। धूल महत्वपूर्ण पोषक तत्व जैसे कि लोहा और अन्य खनिजों के साथ-साथ महासागर पारिस्थितिक तंत्र को भी प्रदान करता है। धूल को अटलांटिक महासागर में उष्णकटिबंधीय चक्रवात गतिविधि का प्रभाव सतह के तापमान पर इसके प्रभाव के माध्यम से भी माना जाता है। माना जाता है कि धूल की चादर से समुद्र की सतह से सूर्य की रोशनी वापस चली जाती है जिससे यह ठंडा हो जाता है, जो चक्रवात के लिए उपलब्ध ऊर्जा की मात्रा को कम कर देता है।

हालांकि इस बात का एक बड़ा सबूत मिला है जिसमें कहा गया है कि अटलांटिक पर धूल में वृद्धि हुई है, जो वहां उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की संख्या को कम कर सकते हैं, मुख्य रूप से समुद्र की सतह का तापमान धूल के माध्यम से ठंडा हो जाता है। इवान ने कहा कि इस साल हमने सबसे बड़ा धूल का तूफान देखा, साथ ही साथ यह रिकॉर्ड पर सबसे सक्रिय तूफान में से एक है। 2020 सिर्फ एक ऐसा साल है जहां सब कुछ उल्टा हो रहा है, या हमें वास्तव में हमारी समझ का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि धूल उस जलवायु प्रणाली को कैसे प्रभावित करती है।

टीम ने कहा कि यह अध्ययन का मुख्य उद्देश्य गॉडज़िला धूल के तूफान की गति को बढ़ाने वाले वेवट्रेंट पैटर्न का पता लगाना, जो 2010 में आए धूल के तूफान के समान था जब आर्कटिक महासागर में समुद्री बर्फ काफी हद तक कम हो गई थी।

अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार, जैसा कि जून 2020 में आर्कटिक समुद्री-बर्फ का आवरण कम था, जो कि उपग्रह द्वारा अवलोकन किए गए अवधि में सबसे कम पाया गया। धूल ने बड़े पैमाने पर विसंगतिपूर्ण पैटर्न में अहम भूमिका निभाई हो। इस प्रकार, अगर इस तरह के पैटर्न एक गर्म होती दुनिया में अधिक सामान्य हो जाते हैं, तो भविष्य में चरम धूल के प्रकोप में वृद्धि होने के आसार हैं।

विसंगति (अनामली) पैटर्न का अध्ययन इस बात को दिखाता है कि आर्कटिक उन हवाओं की भूल भुलैया में से एक है, जो एक सीधी दिशा में कम या ज्यादा तेज बहती है। कभी-कभी हवा का पैटर्न आर्कटिक के दक्षिण में नीचे चले जाते हैं, जिससे संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में असाधारण ठंड होती है।

हालांकि एक गर्म आर्कटिक महासागर के प्रभाव के बारे में शोधकर्ताओं के बीच विवाद है। कुछ लोगों का तर्क है कि यह क्रम उलटा है, जो हवा के पैटर्न को बदल रहे हैं, जिससे आर्कटिक चारों ओर से गर्म हो रहा है। दूसरों का मानना है कि वर्षों के दौरान देखे गए पैटर्न जब समुद्र की बर्फ कम हो जाती है, तब भी प्राकृतिक परिवर्तनशीलता की सीमा के भीतर होते हैं, क्योंकि यह ग्लोबल वार्मिंग के कारण बदलाव का विरोध करता है।

तापमान का दुष्चक्र: गर्मी बढ़ने से पिघल रही है बर्फ और बर्फ पिघलने से बढ़ रही है गर्मी

एक नए अध्ययन में कहा गया है कि बर्फ पिघलने से वैश्विक तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है

1970 के दशक से लेकर 2000 के दशक के मध्य तक आर्कटिक में गर्मियों के दौरान समुद्री बर्फ में प्रति दशक 10 फीसदी से अधिक की गिरावट आई है। यदि यह इसी तरह कम होना जारी रहा तो 21 वीं सदी में आर्कटिक पहली बार गर्मियों में बिना बर्फ के होगा। बड़े पैमाने पर आर्कटिक समुद्री बर्फ, पहाड़ के ग्लेशियर, ग्रीनलैंड और पश्चिम अंटार्कटिक बर्फ की चादर पिछली सदी के दौरान मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग के कारण काफी बदल गए हैं।

बहुत अधिक बर्फ के नुकसान से गर्मी बढ़ सकती है। बर्फ का यह नुकसान आगे खतरों का कारण बन रहा है। एक नए अध्ययन में लंबे समय तक परिदृश्यों की खोज करके इस बारे में पता चला है। यदि गर्मियों में आर्कटिक की समुद्री बर्फ पूरी तरह से पिघल जाती है, तो एक ऐसा परिदृश्य होगा जिसके इस सदी के भीतर हमेशा के लिए हकीकत बनने के आसार है। यह अंततः ग्लोबल वार्मिंग को लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस और बढ़ा सकता है। हालांकि यह भविष्य के वार्मिंग के आईपीसीसी अनुमान के अनुसार है। अब वैज्ञानिकों ने बर्फ के नुकसान के प्रभावों को अन्य प्रभावों से अलग कर दिया है और इसकी मात्रा निर्धारित की है।

तापमान में 0.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर्याप्त है, यह देखते हुए कि वैश्विक औसत तापमान, वर्तमान में पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में लगभग एक डिग्री अधिक है, और दुनिया भर की सरकारें 2 डिग्री से कम पर वृद्धि को रोकने के लिए सहमत हुई हैं। यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुआ है।

यदि दुनिया भर में बर्फ व्यापक रूप से कम होती है, तो पृथ्वी की सतह से टकराने वाली सूर्य की रोशनी अंतरिक्ष में वापस कैसे परावर्तित होती है इसमें भी बदलाव होगा। प्रमुख अध्ययनकर्ता निको वेलिंगलिंग कहते हैं कि आर्कटिक में बर्फ के आवरण के कम होने से गहरे समुद्र का पानी अधिक ऊर्जा को अवशोषित करता है। इसे अल्बेडो प्रतिक्रिया के रूप में जाना जाता है। यह गर्मियों में सफेद या काले कपड़े पहनने जैसा है। यदि आप काले कपड़े पहनते हैं, तो आप अधिक आसानी से गर्मी को अवशोषित करते हैं।

आगे के कारणों में बर्फ के पिघलने के कारण गर्म वातावरण में जल वाष्प की वृद्धि होना शामिल है। गर्म हवा अधिक जल वाष्प को रोक सकती है, और जल वाष्प ग्रीनहाउस प्रभाव को बढ़ाता है। पॉट्सडैम वैज्ञानिक बर्फ के नुकसान से उत्पन्न गर्मी (वार्मिंग) की गणना करने में सक्षम हैं।

आर्कटिक महासागर में जमी हुए मीथेन निकलनी हुई शुरू

हाल ही के एक शोध में वैज्ञानिकों ने पाया है कि आर्कटिक महासागर में जमी हुए मीथेन भंडार जिसे "कार्बन चक्र के सोए हुए दानव" के रूप में जाना जाता है। यह पूर्वी साइबेरियाई तट से महाद्वीपीय ढलान के एक बड़े क्षेत्र से निकलनी शुरू हो गई है। इसके निकलने से आर्कटिक के वातावरण में ग्रीनहाउस गैस में वृद्धि होगी जो ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देगी, जिससे बर्फ पिघलने की गति बढ़ेगी, फिर और गर्मी बढ़ेगी इस तरह इस दुष्चक्र के बढ़ने के आसार हैं।

शोध समूह की अगुवाई करने वाले रिकार्डा विंकेलमैन ने कहा कि यह खतरा लंबे समय के लिए है। पृथ्वी में बर्फ का द्रव्यमान बहुत अधिक है, जो हमारी पृथ्वी प्रणाली के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब यह भी है कि मानवजनित जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया, विशेष रूप से ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका पर बर्फ की चादरें, लंबी अवधि तक होती हैं। लेकिन कुछ बदलाव होने में सैकड़ों या हजारों साल लग सकते हैं, तो भी संभव है कि हम उन्हें सिर्फ एक-दो दशकों के भीतर ही खो सकते हैं।

वैज्ञानिकों ने व्यापक कंप्यूटर सिमुलेशन किया। उन्होंने कहा कि प्रभाव हमेशा सीधे-सीधे नहीं होते हैं उदाहरण के लिए, भूमि पर एक विशाल बर्फ के आवरण के कम होने, सिकुड़ने के बावजूद भी वहां बर्फ हो सकती है। जो सूरज की रोशनी को परावर्तित कर सकती है, ठीक उसी तरह जैसे बर्फ में होता है। यही कारण है कि यदि ग्रीनलैंड और पश्चिम अंटार्कटिका पर पहाड़ के ग्लेशियर और बर्फ सभी गायब हो जाएंगे, तो बर्फ के नुकसान के कारण सीधे अतिरिक्त गर्मी (वार्मिंग) होगी। गर्मियों में आर्कटिक की बर्फ के पिघलने के कारण 0.2 डिग्री तापमान अतिरिक्त होगा। विंकेलमैन कहते हैं फिर भी हमारे जलवायु के लिए हर डिग्री का दसवां हिस्सा मायने रखता है। पृथ्वी प्रणाली की प्रतिक्रिया या दुष्चक्र को रोकना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी है।

बर्फ कम, ज्यादा बारिश, बदल रहा है आर्कटिक का मौसम

इंसानों के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन का असर देखना हो तो उत्तरी ध्रुव के आर्कटिक के मौसम पर नजर डालिए


म सभी अपने जीवन में एक नई जलवायु का अनुभव कर रहे हैं। हमारे ग्रह में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां लाखों वर्षों तक कुछ नहीं बदलता, जैसे कि ध्रुवीय क्षेत्र, अंटार्कटिका और आर्कटिक। लेकिन अब ये क्षेत्र एक मापक यंत्र की तरह काम कर रहे हैं, जो ये बताते हैं कि इंसानों की वजह से हो रहे जलवायु परिवर्तन का कितना नुकसान हो रहा है।

यदि इन ध्रुवीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगता है तो यह धरती के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों पर गहरी नजर रखी जा रही है, ताकि जलवायु परिवर्तन का असर मापा जा सके।

इंसानों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैस के के कारण हो रही ग्लोबल वार्मिंग का असर पहले ही आकर्टिक में दिखने लगा था, लेकिन हाल के वर्षों में यहां की जलवायु में तेजी से परिवर्तन देखने को मिला है।

मानव सभ्यता में वर्तमान पीढ़ी पहली बार धरती के इस बर्फ से ढके से हिस्से में बदलाव देख रही है। पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि हम आर्कटिक की नई जलवायु के गवाह बनने वाले हैं। इस सदी के अंत तक साल के दस महीने तक आर्कटिक में बर्फ बिलकुल भी नहीं दिखाई देगी।

“नई” जलवायु  से आशय है, बर्फ से ढके ध्रुव में गर्मी व बारिश होना और बर्फ का कम होना, जो इसकी जलवायु में प्रमुख भूमिका निभाती है।

दरअसल, उत्तरी ध्रुव क्षेत्र नए “आर्कटिक जलवायु”के दौर में प्रवेश कर चुका है।

नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च (एनसीएआर) की वैज्ञानिक लॉरा लैन्ड्रम कहती हैं, "आर्कटिक पूरी तरह से अलग जलवायु में प्रवेश कर रहा है।" एनसीएआर के साथी वैज्ञानिक मारिका एम. हॉलैंड के साथ लैन्ड्रम ने आर्कटिक में नई जलवायु की शुरुआत की पुष्टि की।

इनकी एक नई स्टडी (एक्स्ट्रीम्स बिकम रूटीन इन एन इमर्जिंग न्यू आकर्टिक) में कहा गया है कि साल-दर–साल आकर्टिक गर्म होता जा रहा है और अब यह नए आर्कटिक में बदल रहा है।

उनके अध्ययन में आर्कटिक क्षेत्र में तेजी से बदलाव पाए गए हैं। इसका अर्थ है कि सर्दियां में तापमान अधिक दर्ज किया जा रहा है, बर्फ कम बन रही है और यह सब अब नई सामान्य स्थिति सी बनती जा रही है।

लैंड्रूम कहती हैं कि बदलाव की दर उल्लेखनीय है। इससे पहले कभी इतनी तेजी से बदलाव नहीं देखा गया। ऐसे में, यदि पिछले मौसम का आकलन करके अगले सालों का अनुमान लगाना हो तो वह भी संभव सा नहीं लगता।

लैंड्रम और होलेंड कई दशकों के आंकड़ों को खंगाल चुके हैं और विशेष कंप्यूटरों का इस्तेमाल किया, जिससे वे पुराने आर्कटिक की जलवायु चारदीवारी को बना पाए। इससे ये वैज्ञानिक पुराने आर्कटिक में आए बदलाव और उसके लिए मानव निर्मित ग्लोबल वार्मिंग के बारे में पता लगा पाए।

उन्होंने पाया कि आर्कटिक में बर्फ तेजी से पिघल रही है। दूसरा, सामान्य सर्दियों में भी इतनी बर्फ नहीं जम रही थी, जितनी कि बीसवीं सदी के मध्य में गर्मी के महीनों में जम जाया करती थी।

इसका मतलब है कि आर्कटिक के मौसमों के चरित्र में बदलाव आ रहा है। अध्ययन में पाया गया कि 21वीं सदी के मध्य तक सर्दियों में हवा का तापमान इस स्तर तक बढ़ जाएगा, जो यह बताएगा कि आर्कटिक नई जलवायु में प्रवेश कर चुका है। इसके बाद यहां बारिश बढ़ जाएगी, जिसमें बर्फ की मात्रा नहीं होगी, बल्कि सादा पानी गिरेगा।

अध्ययन में कहा गया है कि इस सदी के अंत के बाद साल के तीन से दस महीने ऐसे बीतेंगे, जब आर्कटिक में बिलकुल भी बर्फ नहीं होगी। सदी के मध्य में बारिश के दिनों में भी 20 से 60 दिन की वृद्धि हो सकती है, जो सदी का अंत आते बढ़ कर 60 से 90 दिन हो जाएंगे।  

लैंड्रम कहती हैं कि आर्कटिक में अब समुद्री बर्फ, तापमान आदि चरम पर देखा जाएगा, इसलिए हमें अब आर्कटिक की जलवायु की परिभाषा बदल देनी चाहिए।

डॉल्फिन की त्वचा के 70 फीसदी हिस्से में हुआ रोग, जलवायु परिवर्तन है जिम्मेवार

इस अध्ययन में पहली बार ताजे पानी वाली बॉटलनोज़ डॉल्फ़िन की त्वचा की बीमारी के बारे में विस्तार से बताया गया है।


दुनिया के सबसे बड़े समुद्री स्तनधारी केंद्र के वैज्ञानिकों और अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों ने डॉल्फ़िन में एक नए त्वचा रोग की पहचान की है, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़ा है। यह बीमारी 2005 में पहली बार सामने आई थी। अब पहली बार वैज्ञानिक दुनिया भर के तटीय डॉल्फिनों को प्रभावित करने वाली स्थिति के कारणों का पता लगाने में सफल हुए हैं। जलवायु परिवर्तन द्वारा पानी के खारेपन में कमी के कारण, डॉल्फ़िन अपने शरीर के चारों ओर चकतीदार और उभरी हुए त्वचा, एक तरह के घावों को विकसित करती हैं। ये घाव कभी-कभी उनकी त्वचा के 70 प्रतिशत हिस्से तक फैल जाते हैं।

इस अध्ययन में पहली बार ताजे पानी वाली बॉटलनोज़ डॉल्फ़िन की त्वचा की बीमारी के बारे में विस्तार से बताया गया है। अध्ययन हाल के वर्षों में लुइसियाना, मिसिसिपी, अलबामा, फ्लोरिडा और टेक्सास और ऑस्ट्रेलिया के महत्वपूर्ण हिस्सों में किया गया।

इन सभी स्थानों में पानी के खारेपन में अचानक आई भारी कमी को एक सामान्य कारण माना गया था। तटीय डॉल्फ़िन अपने समुद्री आवास में खारेपन के स्तर में आने वाले मौसमी बदलाव के आदी होते हैं, लेकिन वे मीठे पानी में नहीं रहते हैं। लगातार बढ़ते तूफान और चक्रवात जैसे तूफान की घटनाओं के खतरे, खासकर यदि वे सूखे की स्थिति से पहले होते हैं, बारिश की अधिक मात्रा को जमा कर लेते हैं जो तटीय जल को मीठे पानी में बदल देते हैं। मीठे पानी की स्थिति महीनों तक बनी रह सकती है, विशेष रूप से तीव्र तूफान जैसे कि हार्वे और कैटरीना के आने के बाद। बढ़ते जलवायु तापमान के साथ, जलवायु वैज्ञानिकों ने अत्यधिक तूफानों का पूर्वानुमान लगाया है, जैसे कि तूफान अधिक बार आएंगे और परिणामस्वरूप डॉल्फ़िन में और अधिक गंभीर बीमारी का प्रकोप बढ़ेगा।

ड्यूगन ने कहा विनाशकारी त्वचा रोग तूफान कैटरीना के बाद से डॉल्फ़िन की मोत का कारण बन रहा है, हम अंत में समस्या को समझने की कोशिश कर रहे हैं। मेक्सिको की खाड़ी में इस साल रिकॉर्ड तूफान के मौसम और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में अधिक तीव्र तूफान आए। हमें इस तरह के डॉल्फिन को मारने वाले विनाशकारी प्रकोपों के अधिक दिखाई देने की आशंका है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है।

अध्ययन में बताया गया है कि ऑस्ट्रेलिया में इस तरह के प्रकोप दिखाई दिए हैं, जो दक्षिण-पूर्व ऑस्ट्रेलिया में दुर्लभ और खतरे में आए बुररुन डॉल्फिन को प्रभावित कर रहा है। प्रभावित जानवरों की जांच और उपचार के लिए आवश्यक जानकारी पेशेवरों को दी जा सकती है। वर्तमान में त्वचा रोग से प्रभावित डॉल्फ़िन लंबे समय तक जीवित रह पाएंगे इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

2005 में आए तूफान कैटरीना के बाद न्यू ऑरलियन्स के पास लगभग 40 बॉटलनोज़ डॉल्फ़िन पर शोधकर्ताओं ने घातक त्वचा रोग को पहली बार देखा था।

ड्यूगिनन ने कहा चूंकि समुद्र के तापमान में गर्माहट से दुनिया भर के समुद्री स्तनधारियों पर प्रभाव पड़ता है, इसलिए इस अध्ययन के निष्कर्ष तटीय क्षेत्रों में रहने वाली डॉल्फिनों की बीमारी के प्रकोप को बेहतर ढ़ग से समझने में मदद करेगा। जिनका पहले से ही रहने की जगहों का नुकसान और उनमें आ रही कमी से ये खतरे में हैं। हम आशा करते हैं कि यह घातक बीमारी को कम करने के लिए पहला कदम होगा और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए महासागर में रहने वाले जीव इसका मुकाबला करेंगे।

जानवरों के व्यवहार में आ रहा है बदलाव, जलवायु परिवर्तन है बड़ा कारण

शोधकर्ताओं नें 900 से अधिक मादा कारिबू (हिरन) की गतिविधि और भ्रमण (मूवमेंट) का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लंबी दूरी तय करने वाली कारिबू वसंत से पहले ही बच्चे को जन्म दे रही हैं।


मानवीय गतिविधियां तेजी से प्राकृतिक दुनिया को बदल रही हैं। इन गतिविधियों से सबसे दूरस्थ क्षेत्र आर्कटिक भी अछूता नहीं रहा। आज आर्कटिक के मौसम में भी बदलाव आ रहा है, जो यहां रहने वाले जानवरों को प्रभावित कर रहा है। अब आर्कटिक एक नए पारिस्थितिक में प्रवेश कर रहा है, जिसके मानवता के लिए खतरनाक परिणाम हो सकते हैं। हालांकि आर्कटिक से पर्याप्त जानवरों की निगरानी के आंकड़े मौजूद हैं, लेकिन अधिकांश जानवरों की खोज और उन तक पहुंच पाना मुश्किल है। शोधकर्ताओं ने नए आर्कटिक एनिमल मूवमेंट आर्काइव (एएएमए) का उपयोग कर जानवरों की गतिविधि के बारे में पता लगाया है।

मैरीलैंड विश्वविद्यालय के जीवविज्ञानी सहित एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने पाया कि जानवर जलवायु परिवर्तन का अप्रत्याशित तरीके से मुकाबला कर रहे हैं। जानवरों  की गतिविधि उनके भ्रमण (मूवमेंट) को लेकर बड़े पैमाने पर आंकड़ों के संग्रह का उपयोग कर अध्ययन किया गया है। आंकड़ों के इस संग्रह में आर्कटिक और उप-आर्कटिक में किए गए अध्ययन के आंकड़े शामिल हैं।  आर्कटिक और उप-आर्कटिक एक विशाल क्षेत्र में फैला है जो जानवरों की संख्या में गिरावट सहित इनपर ग्लोबल वार्मिंग के कारण कुछ सबसे नाटकीय प्रभाव पड़ रहे हैं।

आंकड़ों के संग्रह को विकसित करने के बाद, शोधकर्ताओं ने इसका उपयोग तीन मामलों के अध्ययन के लिए किया, जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण सुनहरे ईगल्स, भालू, कारिबू (हिरन), मूस और भेड़ियों के व्यवहार के बीच आश्चर्यजनक पैटर्न का पता चला है। यह कार्य अत्यंत बड़े पैमाने पर जानवरों की पारिस्थितिकी का अध्ययन करने और महत्व दोनों को प्रदर्शित करता है। यह शोध जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने कहा कि यह पहला उदाहरण है जिसे हम वैश्विक जानवरों  के भ्रमण (मूवमेंट) संबंधी पारिस्थितिकी कह सकते हैं। हम पृथ्वी पर जानवरों की आबादी की निगरानी करने की अपनी क्षमता बढ़ा रहे हैं।

समुद्र की सतह के तापमान और वैश्विक वन आवरण जैसी चीजों की बड़े पैमाने पर निगरानी करने से जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधि के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी का खुलासा हुआ है। लेकिन जानवरों के व्यवहार के बारे में अध्ययन करना मुश्किल है, क्योंकि जानवरों की पारिस्थितिकी के दुनिया भर में अलग-अलग क्षेत्रों में फैली हुई है जिसका अब तक अध्ययन नहीं किया गया है। फिर भी जानवरों से संबंधित आवश्यक आंकड़ों को विभिन्न एजेंसियों और संसाथओं द्वारा एकत्र किया जाता रहा हैं।

इन मुद्दों को समझाने के लिए, गुरारी और उनके सहयोगियों ने दुनिया भर में  एकत्र किए गए आंकड़ों को साझा करने की बात कही। उन्होंने आर्कटिक भर में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और शोध समूहों के वैज्ञानिकों के साथ वर्षों बिताए और आंकड़े एकत्र किए जिसे वे आर्कटिक एनिमल मूवमेंट आर्काइव (एएएमए) कहते हैं। वर्तमान में संग्रह (आर्काइव) में 17 देशों के 100 से अधिक विश्वविद्यालयों, सरकारी एजेंसियों और संरक्षण समूहों के शोधकर्ताओं का योगदान शामिल है।

संग्रह में 1991 और वर्तमान के बीच 8,000 से अधिक जानवरों का प्रतिनिधित्व करने वाले 201 स्थलीय और समुद्री जानवरों  की निगरानी के अध्ययन के आंकड़े शामिल हैं। इन आंकड़ों का उपयोग करते हुए, गुरारी और उनकी लैब के सदस्यों ने 2000 से 2017 तक 900 से अधिक मादा कारिबू (हिरन) की गतिविधि और भ्रमण (मूवमेंट) का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि लंबी दूरी तय करने वाली कारिबू वसंत से पहले बच्चे को जन्म दे रही हैं। लेकिन प्रवास न करने वाली तथा पहाड़ और तराई में रहने वाली कारिबू (हिरन) में से केवल उत्तर में रहने वाली आबादी में इस तरह के बदलाव दिख रहे थे। हालांकि इस तरह के बदलाव रहस्य बने हुए हैं। उनके व्यवहार को समझना यह अनुमान लगाने के लिए महत्वपूर्ण है कि वे बदलते मौसम का किस तरह मुकाबला करेंगे, क्योंकि आर्कटिक गर्म हो रहा है और कई तरह के पशुआों की आबादी में गिरावट जारी है।

गुरारी ने कहा यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि ये रुझान आबादी को किस तरह प्रभावित कर सकते हैं। एक ओर पहले जन्म देना बेहतर हो सकता है, क्योंकि यह बछड़ों (कल्वेस) को गर्मी के मौसम में बढ़ने का अधिक अवसर देता है। दूसरी ओर, बहुत जल्दी जन्म देने का मतलब सही से विकास न होना हो सकता है। इस तरह बड़े पैमाने पर बदलाव, आबादी और प्रजातियां जो  ऐसे दूरस्थ और कठोर वातावरण में रह रही है यह  अभूतपूर्व है। इन परिणामों से ऐसे पैटर्न सामने आते हैं जैसा हमने कभी सोचा नहीं था। पर्यावरणीय परिवर्तनों को अपनाने को लेकर कारिबू (हिरन) के विकास से लेकर उनकी क्षमता तक हर चीज के बारे में जानकारी आवश्यक है।

कारिबू का अध्ययन करने के लिए विकसित किए गए आंकड़ों के विश्लेषण करने वाले उपकरण का गुरारी और उनके सहयोगियों के नेतृत्व में एक अन्य मामले केअध्ययन के लिए भी किया गया था।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता स्कॉट लाओप्ते ने 1993 से 2017 तक 100 से अधिक सुनहरे ईगल्स के गतिविधि की तुलना वाले विश्लेषण में पाया कि वसंत में उत्तर की ओर प्रवास करने वाले अपरिपक्व पक्षी हल्के सर्दियों से पहले पहुंचे, जबकि वयस्क पक्षियां वहां नहीं गए। पैसिफिक डेकाडल ऑसिलेशन नामक बड़े पैमाने पर जलवायु चक्र के जवाब में युवा पक्षियों पर समय परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है, जोकि जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहा है। इस तरह पक्षियों  में आयु-संबंधी व्यवहार परिवर्तन केवल कुछ दशकों की गतिविधियों से दिख रहा है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि यह उनके प्रजनन को भी प्रभावित कर सकता है।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के पीटर महोनी द्वारा 1998 से 2019 तक किए गए अध्ययन में  भालू, कारिबू, मूस और भेड़ियों की गतिविधि को देखा गया। अध्ययन से पता चला है कि प्रजाति मौसमी तापमान और सर्दियों में बर्फ की स्थिति में अलग-अलग प्रतिक्रिया देती है। उन अंतरों से प्रजातियों की परस्पर क्रिया, भोजन प्रतियोगिता और शिकार की गतिशीलता प्रभावित हो सकती है।

वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि अन्य शोधकर्ता इस बात की लगातार जांच जारी रखेंगे कि, जानवर बदलते आर्कटिक का मुकाबला कर पा रहे हैं या नहीं।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए धीमी गति से किए जा रहे कार्यों पर संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सदस्य नाखुश

यूएनएफसीसीसी के पूर्व सदस्यों ने 30 साल के अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं का जायजा लिया, उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई करने की आवश्यकता पर जोर दिया।

इस साल आने वाली 21 दिसंबर को जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ता (इंटरनेशनल नेगोटिएशन ऑन क्लाइमेट चेंज) की शुरूआत की 30 वीं वर्षगांठ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव 45/212 जो वर्तमान मानव जाति और भावी पीढ़ियों के लिए वैश्विक जलवायु संरक्षण, जलवायु परिवर्तन पर एक प्रभावी शुरुआत थी। यह इस बारे में बताता है कि जलवायु परिवर्तन अब केवल वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं का एक छोटा सा सम्मेलन या 'सिर्फ' मुद्दा ही नहीं है। बल्कि यह वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक महत्व का मुद्दा बन गया है, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते की आवश्यकता होती है।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) 1992 को अपनाया गया था और 1994 में 197 देशों ने लागू किया था।  इसने मानव गतिविधि के कारण जलवायु परिवर्तन के संभावित खतरनाक प्रभाव को मान्यता दी थी। इसमें कहा गया कि विकसित देशों को इससे निपटने के लिए मुख्य भूमिका निभानी होगी। विकसित देशों के लिए 2000 तक 1990 के स्तर पर उत्सर्जन को लाने का पहला लक्ष्य निर्धारित किया गया था। सभी देशों के लिए उनके राष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं के बारे में जानकारी और संचार करने के लिए एक प्रणाली की शुरुआत की।

यूएनएफसीसीसी ने निम्नलिखित पर जोर दिया :

  • अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाना और नियम और मानक स्थापित करना
  • वैश्विक रूप से सहमत लक्ष्यों को स्थापित करना
  • आंकड़ो को सदस्य देशो के साथ बांटना,
  • पारदर्शिता को बढ़ावा देना और जवाबदेही को प्रोत्साहित करना जागरूकता और सीखने को बढ़ावा देना
  • कार्यान्वयन और सहायता के साधनों के प्रावधान की सुविधा
  • हितधारकों का निर्माण

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) सचिवालय के चार पूर्व सदस्यों ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया भर के प्रयास नाकाफी है, इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है जब हम बेहद गंभीर खतरे में होंगे।

टीम ने 30 साल पहले शुरू हुए जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ता के बाद हुए बदलावों के बारे में पता लगाया। टीम ने कहा जबकि सदस्य देशों ने तीन दशकों में संयुक्त राष्ट्र की तीन संधियों पर सहमति व्यक्त की थी, दुनिया भर के देश उनके कार्यान्वयन में विफल हो रहे हैं। यदि जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों से बचना है तो कार्रवाई को तत्काल तेज करना होगा। तापमान वृद्धि जिस पर सभी देश सहमत हुए थे उसे सीमा के भीतर रखना होगा। यह समीक्षा क्लाइमेट पॉलिसी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई है।

यूएनएफसीसीसी के पूर्व सदस्यों ने कहा कि सरकारों द्वारा सहमति व्यक्त किए गए नियमों को प्रभावी तरीके से लागू किया जाना चाहिए। सदस्य देशों को ठोस रणनीतियां और कार्रवाई द्वारा ऐसे नए लक्ष्य, जिन्हें की हासिल किया जा सके उन्हें स्थापित करने का सुझाव देते हैं। 

यूएनएफसीसीसी की टीम ने कई सिफारिशें की उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :

  • सरकारों ने जो वायदे किए है उनको पूरा करने के लिए सभी तरीकों से घरेलू स्तर पर कार्य करना, सबसे बड़े उत्सर्जक और सबसे अमीर देशों को सबसे अधिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिए
  • व्यापार और वित्त क्षेत्रों, सरकारों, और अन्य नागरिक समाज द्वारा एक साथ कार्रवाई करना
  • टैक्स और इको-टैरिफ
  • जीवाश्म ईंधन से सब्सिडी को हटाने और कोयले को चरणबद्ध तरीके से कम करने के लिए, खाली बोलने के बजाय वास्तविक कार्रवाई करने के लिए एक विशिष्ट रणनीति  बनाना
  • 2030 तक अंतरिम लक्ष्य रखना जिसमें तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पर रोकना

यूएनएफसीसीसी के रिचर्ड किनले ने कहा कि इससे पहले कि जलवायु परिवर्तन के खतरनाक परिणाम हो, इसपर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, हमें वर्तमान जलवायु परिवर्तन से संबंधित खतरों को दूर करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए पहले से ही सहमत वादों का पूरी तरह लागू किया जाना चाहिए।

यदि हमें 30 वर्षों में दुनिया भर के उत्सर्जन को नेट जीरो करना है तो सरकारी और कॉर्पोरेट कार्रवाई को प्रभावी बनाना होगा।

क्रिस्टियाना फिगरिस बताती है कि पेरिस समझौते के राष्ट्रीय जलवायु के तहत किए गए वादे, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित कार्यों की एक बहुत बड़ी शुरुआत थी, लेकिन उन्हें वर्तमान दौर के हिसाब से अपडेट करना महत्वपूर्ण है, यदि वैश्विक लक्ष्यों को हासिल करना है तो फिर निर्णायक तरीके से लागू किया जाना आवश्यक है। क्रिस्टियाना फिगरिस पेरिस समझौते के समय संयुक्त राष्ट्र जलवायु प्रमुख थीं।

यूएनएफसीसीसी के सदस्यों ने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए एक रणनीति की आवश्यकता है कि हम 2030 के अंतरिम लक्ष्य को हासिल करें, जिसमें तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पर रोकना, 2030 तक शुद्ध सीओ2 उत्सर्जन में कमी लाना है।

Source : जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए धीमी गति से किए जा रहे कार्यों पर संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सदस्य नाखुश (downtoearth.org.in)

corona महामारी से कार्बन उत्सर्जन तो घटा, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती बरकरार

संयुक्त राष्ट्र की संस्था के प्रमुख का कहना है कि, 'लॉकडाउन के चलते उत्सर्जन में जो कमी आई है हमें इस कर्व को लंबे समय के लिए फ्लैट करने की जरूरत है। 

हम में से अधिकतर लोग इसी खबर का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। क्या कोविड-19 महामारी के चलते व्यापक शटडाउन और औद्योगिक गतिविधियों में आई भारी गिरावट से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी आई होगी? 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के शुरुआती अनुमान कहते हैं कि 2020 में सालाना वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 4.2 से 7.5 फीसदी के बीच कम हुआ है। 

डब्ल्यूएमओ के ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने अनुमान लगाया है कि 'शटडाउन की सबसे गंभीर अवधि के दौरान आबादी के घरों में बंद होने से कार्बन डाइऑक्साइड का दैनिक उत्सर्जन वैश्विक रूप से 17 प्रतिशत तक कम हुआ है।' लेकिन इसमें बहुत खुश होने वाली कोई बात नहीं है। डब्ल्यूएमओ इसे हमारे ग्रह के अनियंत्रित उत्सर्जन परिदृश्य पर सिर्फ एक छोटा सा बिंदु मानता है। 

डब्ल्यूएमओ की अनुमानित रिपोर्ट कहती है कि "वैश्विक स्तर पर, कार्बन उत्सर्जन में इस दर से होने वाली कमी के चलते वातावरण में मौजूद सीओ2 कम नहीं होगा। सीओ2 का स्तर अब भी बढ़ेगा ही, हालांकि यह तुलनात्मक रूप से थोड़ी धीमी रफ़्तार (सालाना 0.08-0.23 पार्ट्स पर मिलियन कम) से बढ़ेगा।"

प्राकृतिक रूप से सीओ2 उत्सर्जन में परिवर्तन की सालाना दर 1 पीपीएम है। इसका मतलब यह है कि इस महामारी के चलते कार्बन उत्सर्जन में आई कमी कोई महत्त्व नहीं रखती है और यह प्राकृतिक परिवर्तिता की दर से भी अधिक नहीं है।

डब्ल्यूएमओ के मुताबिक, "इसका मतलब यह हुआ कि छोटी अवधि के लिए कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन के असर को प्राकृतिक परिवर्तिता से अलग नहीं किया जा सकता।

पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड समेत ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बहुत अधिक है। उत्सर्जन में अस्थायी कमी आने से ग्लोबल वार्मिंग और उसके चलते होने वाला जलवायु परिवर्तन कम नहीं हो जाएगा।

बल्कि देखा जाए तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2020 में भी जारी रहेगा। पिछले साल सीओ2 का वैश्विक औसत 410 पीपीएम की सीमा को पार कर गया था। डब्ल्यूएमओ के महासचिव पेटरी तालस का कहना है कि, "कार्बन डाइऑक्साइड सदियों से वातावरण में मौजूद है और समुद्र में तो उससे भी अधिक समय से। आखिरी बार 3-5 मिलियन वर्ष पहले पृथ्वी पर सीओ2 की तुलनीय मात्रा थी, जब तापमान 2-3°C अधिक गर्म था और समुद्र स्तर अभी के मुक़ाबले 10-20 मीटर अधिक ऊपर था। लेकिन तब पृथ्वी पर 7.7 अरब लोग नहीं रहते थे।"

इतना ही नहीं, कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को 2015 में 400 पीपीएम से 410 पीपीएम तक पहुंचने में सिर्फ चार साल लगे। तालस का कहना है कि, "कार्बन के स्तर में ऐसी बढ़ोतरी की दर हमारे रिकॉर्ड्स के इतिहास में कभी नहीं देखी गई। उत्सर्जन में लॉकडाउन संबंधी गिरावट दीर्घकालिक ग्राफ में एक छोटा सा बिंदु है। हमें हमें इस कर्व को लंबे समय के लिए फ्लैट करने की ज़रूरत है।

डब्ल्यूएमओ के बुलेटिन के मुताबिक, "2019 में कार्बन डाइऑक्साइड का सालाना वैश्विक औसतन स्तर लगभग 410.5 पीपीएम था, 2018 में यह स्तर 407.9 पीपीएम था। इसने 2015 में 400 पीपीएम का बेंचमार्क पार किया था। 2018 से 2019 के बीच सीओ2 में हुई बढ़ोतरी 2017 से 2018 के बीच देखी गई बढ़ोतरी से तो ज्यादा थी ही, साथ ही पिछले दशक के औसत से भी ज्यादा थी।"

कोविड-19 के बाद भी जारी रहेगी ग्लोबल वार्मिंग: रिपोर्ट

रिपोर्ट में कहा गया है कि वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2) की सघनता अपने उच्चतम स्तर पर अभी नहीं पहुंची है और लगातार वृद्धि के रिकॉर्ड बना रही है


नोवल कोरोनावायरस से होने वाली बीमारी (कोविड-19) के बाद लागू लॉकडाउन की वजह से कार्बन उत्सर्जन में कमी जरूर आई थी, लेकिन कुछ समय बाद फिर से वही हालात बन गए हैं। 10 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी "यूनाइटेड इन साइंस" रिपोर्ट में कहा गया कि फिर से वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) में वृद्धि हो रही है। ऐसे में पेरिस समझौते को लागू कर पाना मुश्किल सा है।

इस रिपोर्ट में कोविड-19 की पृष्ठभूमि में जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों, महासागरों, प्रकृति, अर्थव्यवस्थाओं और मानवजाति के जीवन पर होने वाले असर के बारे में बताया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि अकसर गर्म हवाएं चलना, जंगलों में आग लगना, सूखा पड़ना और बाढ़ आने की घटनाएं बढ़ रही हैं।

रिपोर्ट जारी करने के बाद यूएन महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने कहा कि अगर वाकई दुनिया जलवायु परिवर्तन को रोकना चाहती है और तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री से कम करना चाहती है तो उसके पास अब गंवाने के लिए बिल्कुल भी समय नहीं बचा है। इसके लिए दुनिया को विज्ञान पर भरोसा बढ़ाना होगा और एकजुटता के साथ निर्णायक समाधान ढूंढ़ने होंगे। उन्होंने सलाह दी कि कोविड-19 का संदेश है कि अगर हम टिकाऊ मार्ग अपनाते हैं तो कुछ हद तक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2) की सघनता अपने उच्चतम स्तर पर अभी नहीं पहुंची है और लगातार वृद्धि के रिकॉर्ड बना रही है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) के ‘ग्लोबल एटमोसफेयर वाच’ नैटवर्क के मुताबिक साल 2020 के पहले छह महीनों में कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता 410 पार्ट्स प्रति मिलियन से ज्यादा मापी गई। जुलाई 2020 में अमेरिका में हवाई के मॉना लोआ और ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया के केप ग्रिम में यह क्रमश: 414.38 पार्ट्स प्रति मिलियन और 410.04 पार्ट्स प्रति मिलियन थी। जबकि इन दोनों स्थानों पर सघनता का आंकड़ा पिछले वर्ष क्रमश: 411.74 और 407.83 था।

यूएन मौसम विज्ञान एजेंसी के महासचिव पेटेरी टालस ने रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा है कि ग्रीनहाउस गैसों की सघनता 30 लाख वर्षों के इतिहास में अपने सबसे उच्चतम स्तर पर है और लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2020 की पहली छमाही में साइबेरिया के इलाकों में अधिक अवधि तक गर्म हवाओं चली और वर्ष 2016 से 2020 तक सबसे गर्म पांच सालों के रूप में मापे गये हैं।

रिपोर्ट बताती है कि कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन की वजह से कार्बन उत्सर्जन में चार से सात फ़ीसदी की गिरावट होने का अनुमान है। अप्रैल 2020 में जब कोविड-19 की वजह से बंदिशें अपने चरम पर थीं, तब पिछले वर्ष की तुलना में सीओ2 उत्सर्जन में 17 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, लेकिन जून महीने में यह घटकर पांच फीसदी के स्तर पर रह गई।

‘यूनाइटेड इन साइंस 2020’ रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र की मौसम विज्ञान संस्था ने ‘ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट’, जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल आईपीसीसी), यूनेस्को, यूएन पर्यावरण संस्था और ब्रिटेन के मौसम विभाग की मदद से तैयार किया गया।

ग्लोबल वार्मिंग के चलते मुश्किल हो जाएगा वायरस को खत्म करना: शोध

एक बार जब वायरस बढ़े हुए तापमान को अपना लेते हैं और उस माहौल में रहने के काबिल बन जाते हैं तो उन्हें खत्म करना मुश्किल हो जाता है

दुनिया भर के लिए हानिकारक ग्लोबल वार्मिंग, कई वायरसों के लिए फायदेमंद हो सकती है। एक बार जब वायरस बढ़े हुए तापमान को अपना लेते हैं और उस माहौल में रहने के काबिल बन जाते हैं तो उन्हें खत्म करना मुश्किल हो जाता है। यह जानकारी हाल ही में छपे एक नए शोध में सामने आई है। यह शोध अमेरिकन केमिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित जर्नल एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी में छपा है। 

जिस तरह से यह वायरस गर्मी के प्रति अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर रहे हैं उसका असर इंसानों के स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। यह वायरस कई तरह की बीमारियां फैला सकते हैं, जिससे कई संक्रामक बीमारियां आसानी से इंसान को अपना शिकार बना सकती हैं। स्विस वैज्ञानिकों द्वारा किए इस अध्ययन के अनुसार पानी में पनपने वाले वायरस जो बढ़ते तापमान में रहने योग्य बन जाते हैं तो वो लम्बे समय तक रोगों को फैला सकते हैं। साथ ही उनपर क्लोरीन जैसे कीटाणुनाशकों का भी असर नहीं होता है। गौरतलब है कि पानी में जो बैक्टीरिया होते हैं, उनको खत्म करने के लिए पानी में क्लोरीन मिलाया जाता है। 

एशिया और अफ्रीका सहित दुनिया भर के कई गर्म इलाकों में पीने के लिए जो पानी उपलब्ध है उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं है। यही वजह है कि उन इलाकों में बीमारियों के फैलने का खतरा भी ज्यादा है। हालांकि वहां पानी के अंदर कई तरह के सूक्ष्मजीव भी होते है जो इन वायरसों को ख़त्म कर सकते हैं साथ ही इन क्षेत्रों में उच्च  तापमान और सूर्य की रौशनी भी वायरस को नष्ट कर देती है। पर जिस तरह जलवायु में बदलाव आ रहा है उसके चलते वायरस उस बढ़ते तापमान के अनुकूल होते जा रहे हैं जिस वजह से बीमारियों के फैलने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। 

दुनिया भर में दूषित पानी पीने को मजबूर हैं  2 अरब लोग 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार आज भी दुनिया के 2 अरब लोग दूषित पानी का उपयोग करने को मजबूर हैं। जिसकी वजह से डायरिया, हैजा, पेचिश, टाइफाइड और पोलियो जैसी बीमारियां फैल सकती हैं। अनुमान है कि दूषित पेयजल के चलते हर साल 4,85,000 लोग डायरिया की भेंट चढ़ जाते हैं।  

इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने एंटेरोवायरस नामक वायरस की जांच की है। गौरतलब है कि एंटेरोवायरस आरएनए वायरस परिवार का हिस्सा है, जिसके कारण सर्दी, पोलियो, हेपेटाइटिस-ए और फुट-एंड-माउथ डिजीज जैसी बीमारियां हो सकती हैं। यह वायरस आम तौर पर पाचन तंत्र में होता है जहां से यह सेंट्रल नर्वस सिस्टम से होता हुआ शरीर के अन्य अंगों में भी पहुंच सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि हो रही है यह वायरस बढ़ते तापमान के अनुकूल बनता जा रहा है। यह वायरस सीवेज, दूषित जल और गंदे स्थानों में आसानी से पनप सकते हैं। 

संक्रामक बीमारियों के फैलने का बढ़ जाएगा खतरा

शोधकर्ताओं के अनुसार एक बार जब वायरस गर्म वातावरण को अपना लेते हैं तो वो आसानी से गर्मी में निष्क्रिय नहीं होते हैं। ऐसे में जब वह ठन्डे वातावरण में जाते हैं तो भी वो लम्बे समय तक सक्रिय बने रह सकते हैं। साथ ही उनपर क्लोरीन जैसे कीटाणुनाशकों का भी असर नहीं होता है। हालांकि प्रोफेसर कोहन ने बताया कि यह शोध प्रयोगशाला में किया गया है और उसको अभी भी मुक्त वातावरण में जांचना बाकी है। 

वहीं अन्य शोधों से पता चला है कि यदि सदी के अंत तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कमीं नहीं आती, तो तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो जाएगी। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका मतलब है कि तापमान के बढ़ने के साथ-साथ इस वायरस का खतरा और बढ़ जाएगा। इसके साथ ही जिन फसलों को दूषित पानी में उगाया जा रहा है उनसे संक्रमण का खतरा और बढ़ सकता है। 

वहीं तापमान में हो रही हीट वेव जैसे आपदाओं को और बढ़ा रही है जिसके कारण जल स्रोत गर्म हो रहे हैं। जिसका असर इस वायरस के प्रसार पर भी पड़ेगा और बीमारियों का खतरा और बढ़ जाएगा।

हिमालयी क्षेत्र में मिले ग्लेशियर्स को नुकसान पहुंचाने वाले भूरे रंग के कार्बन टारबॉल्स

गंगा के मैदानी भागों में बॉयोमास या जीवाश्म ईंधन के जलाए जाने से प्रकाश अवशोषित करने वाले यह कार्बन कण (टारबॉल्स) निकलते हैं जो कि जमी हुई बर्फ पर बैठ जाते हैं


दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव से बाहर अगर कहीं ग्लेशियर वाली बर्फ सबसे ज्यादा जमा है तो वह जगह है हिमालय-तिब्बती पठार। इसे तीसरा ध्रुव (थर्ड) पोल भी कहा जाता है। दशकों से ग्लेशियर्स की गुणवत्ता खराब हो रही है। वहीं, अब हिमालयी वातावरण में उत्तरी ढलान पर वातावरण में प्रकाश अवशोषित करने वाले टारबॉल्स (काले और भूरे रंग के कार्बन कण) की निशानदेही हुई है जो कि ग्लेशियर्स को पिघलाने की प्रक्रिया को बढ़ा सकते हैं।

एसीएस एनवॉयरमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी लेटर्स में 4 नवंबर, 2020 को प्रकाशित जर्नल में शोधकर्ताओं ने रिपोर्ट किया है कि हिमालय के उत्तरी सिरे वाली ढलान पर बेहद ऊंचाई पर मौजूद रिसर्च स्टेशन से झिजियांग यूनिवर्सिटी के वीजुन ली और उनके सहयोगियों ने हवा का नमूना लिया था और वे यह देखना चाहते थे कि किस तरह के एअरोसोल पार्टिकल उसमें मौजूद हैं। हवा के नमूनों की जांच के लिए इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी का इस्तेमाल किया गया और परिणाम चौंकाने वाले रहे।

वैज्ञानिकों ने पाया कि हवा के नमूनों में अप्रत्याशित तौर पर एक हजार कणों में 28 फीसदी कण टारबॉल्स थे। गंगा के मैदानी भागों में बॉयोमास या जीवाश्म ईंधन के जलाए जाने से प्रकाश अवशोषित करने वाले यह कार्बन कण (टारबॉल्स) निकलते हैं जो कि जमी हुई बर्फ पर बैठ जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन कणों से ग्लेशियर्स के पिघलने की गति बढ़ सकती है। हालांकि, अभी भूरे रंग के टारबॉल्स के होने का कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं मिला है।

Photo : pubs.acs.org

पूर्व के शोध यह बताते हैं कि ब्लैक कॉर्बन नाम से पुकारे जाने वाले कण हिमालयी क्षेत्र में हवा के जरिए लंबी दूरी तय कर सकते हैं। लेकिन भूरे कार्बन कण, जिनके होने के बारे में अभी जानकारी बहुत ही कम है। यह भी टारबॉल्स का ही एक रूप हैं। टारबॉल्स बेहद छोटे और खतरनाक कण होते हैं जो अपने साथ कॉर्बन, ऑक्सीजन और कम मात्रा में नाइट्रोजन और सल्फर व पोटेशियम को भी लिए रहते हैं।

ताजा शोध में कहा गया है कि उच्च प्रदूषण वाले दिनों में टारबॉल्स में बढ़ोत्तरी देखी गई है। यह सिर्फ ग्लेशियर्स को पिघलाने वाली ही नहीं बल्कि ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने वाली भी है। शोध में प्राप्त आंकड़ों में कहा गया है कि गंगा के मैदानी भागों में बेहद घनी और सक्रिय आग थी, यह गेहूं के अवशेषों को जलाए जाने की थी, जहां से उठने वाले कण हवा के साथ हिमालय के उत्तरी ढ़लान पर स्थित स्टेशन तक पहुंच रहे थे। 

अध्ययन में कहा गया है कि अत्यधिक मिश्रित टारबॉल्स का औसत आकार 213 और आंतरिक तौर पर मिश्रित टारबॉल्स का औसत आकार 348 नैनोमीटर था। शोधार्थी इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि टारबॉल्स जो कि लंबी दूरी हवा के साथ तय कर सकते हैं वे जलवायु प्रभाव के बड़े कारक हो सकते हैं साथ ही हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर्स के पिघलने का वाहक भी बन सकते हैं। ऐसे में इन टारबॉल्स पर ध्यान देना बेहद जरूरी है।

लद्दाख इलाके में पिघलते ग्लेशियरों के भयंकर परिणाम हो सकते है : अध्ययन

शोध दल ने लद्दाख क्षेत्र के ग्लेशियरों से ढकी झीलों का एक व्यापक सर्वेक्षण किया। उन्होंने 50 साल की अवधि में इन झीलों की सीमा और संख्या में हुए बदलाव के बारे में पता लगाया।


लद्दाख दुनिया के ऊंचे इलाकों में से एक है, इसलिए यहां का तापमान बहुत कम रहता है। सर्दियों में यहां का तापमान -15 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, इसलिए यहां पानी जमकर बर्फ के रूप में होता है जिसे क्रायोस्फीयर कहा जाता है। क्रायोस्फीयर गतिविधि और क्रायोस्फीयर से संबंधी खतरे लद्दाख के अर्ध-शुष्क ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र में भूमि उपयोग तथा विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं। अब बढ़ते तापमान के कारण यहां के ग्लेशियर पिघल रहे हैं साथ ही बर्फ से ढकी झीलें पिघल कर बाढ़ के प्रकोप को बढ़ा रही हैं। इसी को लेकर वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया ताकि भविष्य में होने वाली ऐसी घटाओं के लिए एहतियात बरती जाए।

दक्षिण एशिया संस्थान और हीडलबर्ग सेंटर फॉर द एनवायरनमेंट ऑफ रूपर्टो कैरोला के शोधकर्ताओं ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में एक बर्फ की झील के टूटने के कारणों की जांच की, जिसके कारण इस क्षेत्र में बाढ़ आ गई थी। भूगोलविद् प्रो. मार्कस नुसरर की अगुवाई में शोध दल ने लद्दाख के पूरे ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों से भरे झीलों का एक व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए उपग्रह चित्रों का उपयोग किया। वे 50 साल की अवधि में बर्फ से ढकी झीलों की सीमा और संख्या में हुए बदलाव के बारे में पता लगा रहे थे, जिनमें पहले भी अचानक आई बाढ़ की घटनाएं भी शामिल थी। इस विश्लेषण की मदद से भविष्य में होने वाली ऐसी घटनाओं से होने वाले खतरे का बेहतर आकलन किया जा सकता है, जिन्हें ग्लेशियल झील के टूटने से होने वाले बाढ़ का प्रकोप (ग्लेशियल लेक आउटब्रस्ट फ्लड्स, जीएलओएफएस) के रूप में जाना जाता है। यह अध्ययन नेचुरल हैज़ार्डस नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

दक्षिण एशिया संस्थान के प्रोफेसर नुसर बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इन सिकुड़ते ग्लेशियरों के मद्देनजर ग्लेशियल झील के प्रकोप से उत्पन्न बाढ़ के कारण होने वाले खतरे को तेजी से बढती़ समस्या के रूप में देखा जा रहा है। इस तरह की घटना से भारी मात्रा में पानी निकलता है। बाढ़ का यह प्रकोप गांवों, कृषि क्षेत्रों और बुनियादी ढांचे पर कहर बरपा सकता है। इस तरह की घटनाओं के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए, हीडलबर्ग शोधकर्ताओं ने लद्दाख में एक बर्फ से ढकी झील के बाढ़ का अध्ययन किया। अगस्त 2014 में आई इस बाढ़ ने गांव में घरों, खेतों और पुलों को नष्ट कर दिया था। अध्ययन से पता चला है कि समुद्र तल से 5,300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बर्फ से ढकी झील में जीएलओएफ की घटना से पहले थोडे़ समय के लिए झील के जल स्तर में वृद्धि हुई थी।

यह किस कारण हो रहा है, पहले भी वैज्ञानिकों द्वारा इसे खोजा गया पर इस तंत्र के बारे में बहुत कम जानकारी है। ग्लेशियर के पिघलने के कारण झील का स्तर काफी तेजी से बढ़ा है। नुसर कहते हैं पिछली जमा बर्फ के ओवरफ्लो होने के परिणामस्वरूप हालांकि, पिघलते बर्फ के टुकड़े, यानी ग्लेशियर का मलबा सतह को नुकसान पहुंचाए बिना सतह की सुरंगों में बह गया था। क्षेत्र का सर्वेक्षण करने के अलावा, वैज्ञानिकों ने स्थानीय लोगों से जीएलओएफ की घटना और उनके भयावह यादों के बारे में भी साक्षात्कार किया। उपग्रह चित्रों के आधार पर, टीम ने 1960 के दशक के बाद से ग्लेशियल झील के विकास का अध्ययन किया ताकि संभावित ग्लेशियल झील का बाढ़ प्रकोप (जीएलओएफएस) की घटनाओं का पुनर्निर्माण किया जा सके।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि तापमन को 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे सीमित नहीं किया गया तो हिमालयी ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे, जिसके कारण बाढ़ और समुद्र के स्तर में वृद्धि होगी। जिसे अकसर कल्पना मात्र समझ कर नजरअंदाज कर दिया जाता है, लेकिन यह आज हकीकत बनकर सामने खड़ी है।

हीडलबर्ग भूगोलवेत्ता कहते हैं क्षेत्र के सर्वेक्षणों के दौरान उपग्रहों से लिए गए चित्रों के माध्यम से भविष्य में होने वाली घटनाओं और इनके खतरों का बेहतर आकलन किया जा सकता है। जीएलओएफएस की घटना के पुन: होने के मद्देनजर, नई सूची हमें  खतरों का पुनर्मूल्यांकन करने, संवेदनशील स्थानों की पहचान करने और इनसे निपटने के उपायों को विकसित करने में मदद कर सकती है। उदाहरण के लिए बार-बार आने वाली बाढ़ के उपाय के रूप में कंक्रीट की दीवारों का निर्माण करना ताकि भविष्य में आने वाली बाढ़ से गांवों और खेतों की सुरक्षा की जा सके।


2 डिग्री सेल्सियस की गर्मी से मिट्टी से निकलेगी 23000 करोड़ टन कार्बन

2 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग से निकलने वाली 23000 करोड़ टन कार्बन, चीन के कुल उत्सर्जन का चार गुना से अधिक है

हाल ही में किए गए एक शोध में पाया गया कि दुनिया भर में मिट्टी का सही से प्रबंधन और संरक्षण किया जाए तो मिट्टी हर साल लगभग पांच अरब टन से अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड अवशोषित कर सकती है। वहीं दूसरी ओर एक नए अध्ययन में बताया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस होने से दुनिया भर में मिट्टी से लगभग 23,000 करोड़ (230 बिलियन) टन कार्बन निकलेगा।

दुनिया भर की मिट्टी में वायुमंडल की तुलना में दो से तीन गुना अधिक कार्बन होता है। उच्च तापमान अपघटन को बढ़ता है अर्थात मिट्टी से कार्बन तेजी से निकलती है। कार्बन के मिट्टी में रहने के समय में होने वाली कमी को 'मिट्टी कार्बन टर्नओवर' कहा जाता है।

इंगलैंड की एक्सेटर विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किए गए नए अंतर्राष्ट्रीय शोध ने ग्लोबल वार्मिंग के लिए मिट्टी में कार्बन टर्नओवर की संवेदनशीलता का पता लगाया है। यदि एक बार कार्बन टर्नओवर के बारे में सही पता लग जाए तो भविष्य के जलवायु परिवर्तन अनुमानों के बारे में पता लगाया जा सकता है।

2 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग (पूर्व-औद्योगिक स्तरों से ऊपर) से निकलने वाली 23000 करोड़ टन कार्बन, चीन के कुल उत्सर्जन का चार गुना से अधिक है और पिछले 100 वर्षों में अमेरिका द्वारा उत्सर्जित कार्बन के दोगुना से अधिक है। यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुआ है।

एक्सेटर विश्वविद्यालय के सह-शोधकर्ता डॉ सारा चडबर्न ने कहा हमारे अध्ययन ने सबसे चरम अनुमानों को लिया है, लेकिन फिर भी केवल 2 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग पर जलवायु परिवर्तन के कारण पर्याप्त मिट्टी में कार्बन के नुकसान के बारे में सुझाव दिया गया है।

यह प्रभाव एक सकारात्मक प्रतिक्रिया कहलाती है। जब जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभाव पड़ता है यह आगे जलवायु परिवर्तन को और अधिक बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाता है।

मिट्टी में कार्बन की प्रतिक्रिया से होने वाले जलवायु परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन अनुमानों में कार्बन चक्र को समझने में सबसे बड़ी अनिश्चितता वाल हिस्सा है।

इसे हल करने के लिए शोधकर्ताओं ने अवलोकन किए गए आंकड़ों और अर्थ सिस्टम मॉडल को साथ में जोड़ा। फिर इनका उपयोग करते हुए जलवायु और कार्बन चक्र के द्वारा भविष्य में होने वाले जलवायु परिवर्तन के बारे में अनुमान लगाया।

एक्सेटर विश्वविद्यालय के प्रमुख रेबेका वर्नी ने कहा हमने ग्लोबल वार्मिंग के प्रति संवेदनशीलता के लिए धरती के विभिन्न स्थानों पर मिट्टी के कार्बन का तापमान एक दूसरे से कैसे संबंधित है इस बारे में जांच की।

अत्याधुनिक मॉडल 2 डिग्री सेल्सियस ग्लोबल वार्मिंग पर लगभग 12000 करोड़ (120 बिलियन) टन कार्बन के अनिश्चितता का सुझाव देते हैं। यह अध्ययन इस अनिश्चितता वाले कार्बन को लगभग 5000 करोड़ (50 बिलियन) टन कम करता है।

एक्सेटर ग्लोबल सिस्टम्स इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर पीटर कॉक्स ने कहा हमने इस जलवायु परिवर्तन प्रतिक्रिया में अनिश्चितता को कम किया है, जो एक सटीक वैश्विक कार्बन बजट की गणना करने और पेरिस समझौते के लक्ष्यों को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण है।

संकट में हैं नदी किनारे रह रहे 30 करोड़ लोग

घनी आबादी वाले डेल्टा, जहां नदियां समुद्र से मिलती हैं, विशेष रूप से गर्म-मौसम के कारण भयानक बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं

लगभग पिछले 7 हजार वर्षों से हम नदी के तटों (डेल्टा) के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। ज्यादातर सभ्यताएं नदी के तटों के आसपास विकसित हुई, क्योंकि नदी और समुद्र की उपजाऊ मिट्टी, प्रचुर मात्रा में खाद्य पदार्थों को अर्जित करने में सहायक है। साथ ही, नदी अथवा समुद्र के माध्यम से आसान परिवहन ने शहरी अर्थव्यवस्था और जीवन शैली को बढ़ावा दिया, लेकिन यह परिस्थिति आज बहुत बदल गई है।

शोधकर्ताओं ने कहा है कि नदी के निचले इलाकों में रहने वाले 30 करोड़ से अधिक लोग उष्णकटिबंधीय तूफान के कारण आने वाली बाढ़ की चपेट में आएंगे। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये तूफान और अधिक घातक और विनाशकारी हो सकते हैं। इस तरह की बाढ़ का सामना ज्यादातर गरीब देश करेंगे।

बाढ़ के मैदानों में रहने वाले लोगों का जीवन सदी में आने वाले चक्रवातों की वजह से बुरी तरह प्रभावित होता हैं। इन चक्रवातों से हवाओं की गति 350 किलोमीटर (200 मीलप्रति घंटे और हर दिन एक मीटर (40 इंचसे अधिक बारिश हो सकती है। यह रिपोर्ट नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित हुई है।

गर्म महासागरों और वायुमंडल में अधिक नमी का मतलब है कि ये शक्तिशाली तूफान अधिक लगातार  सकते हैं। ऐसे तूफान आएंगे कि शायद ही कभी अतीत में क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने उनकी भयानक शक्ति को देखा हो।

घनी आबादी वाले डेल्टाजहां नदियां समुद्र से मिलती हैंविशेष रूप से गर्म-मौसम के कारण भयानक बाढ़ की चपेट में  जाते हैं। इस तरह के शक्तिशाली तूफान गर्मियों में दुनिया भर के प्रमुख महासागरों में आते हैं और फिर टकरा जाते हैं।

ऐसे में, नीति निर्माताओं को  केवल बढ़ते तापमान को धीमा करने के तरीकों के बारे में पता लगाना चाहिएबल्कि पहले से ही जलवायु प्रभावों के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि अब तक दुनिया के चक्रवातों से नदी के तटों (डेल्टा) में रहने वाली आबादी कितनी और किस तरह प्रभावित होगी, इसका सटीक रूप से पता नहीं थाजिससे इनसे निपटने के लिए आगे की योजना बनाना मुश्किल हो गया। 

इंडियाना विश्वविद्यालय के एक भू-विज्ञानी डगलस एडमंड्स ने कहाहम जिस बड़े सवाल का जवाब ढूढ़ने की कोशिश कर रहे हैंवह यह है कि लोग नदी के तट (डेल्टापर किस तरह रहते हैं और तट की बाढ़ उन्हें किस तरह प्रभावित करती है।

यह पता लगाने के लिए एडमंड्स और उनके सहयोगियों ने दुनिया भर के 2174 तटों (डेल्टाके बारे में पता लगाया। और हिसाब लगाया कि 39.9 करोड़ लोग तटों की सीमाओं के अंदर रहते हैं। उनमें से 1 करोड़ लोग विकासशील और कम विकसित देशों के हैं

तीन-चौथाई से अधिक लोग केवल 10 नदी घाटियों में निवास करते हैंजिनमें गंगा-ब्रह्मपुत्र शामिल हैं। 10.5 करोड़ लोग गंगा-ब्रह्मपुत्र और 4.5 करोड़ लोग नील नदी के डेल्टा में रहते हैं। डेल्टा शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि पृथ्वी के द्रव्यमान का केवल 0.5 प्रतिशत भूमि पर कब्जा हैलेकिन यह ग्रह में रहने वाले लोगों की आबादी का लगभग पांच प्रतिशत का घर हैं।

एडमंड ने कहा कि हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि 100 साल के उष्णकटिबंधीय चक्रवात बाढ़ के मैदानों में रहने वाले लोगों की बड़ी संख्या वाले अधिकांश तटों (डेल्टाका तलछट (सेडीमेंटसमाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। उन्होंने कहा कि यह बढ़ते समुद्र स्तर और बड़े तूफानों के कारण हो रहा है, जो बहुत बुरी खबर है।

जब समुद्र का स्तर बढ़ जाता हैतो डेल्टा का आकार सिकुड़ने या तलछट से खाली जगह भर जाती है। लेकिन अधिकांश गाद और तलछट जो कभी कृषि भूमि को समृद्ध करते थे और समुद्र के ज्वार की वृद्धि के खिलाफ प्राकृतिक तौर पर सुरक्षा करते थेअब लगभग सभी प्रमुख नदी प्रणालियों में बांधों के निर्माण से यह सब अवरुद्ध हो गया है।

एडमंड ने कहा इसका मतलब है कि तलछट के जमा होने से प्राकृतिक तरीके से समस्या का समाधान संभव नहीं हैयह देखते हुए कि समाधान के लिए अक्सर अन्य सामग्री द्वारा जगह को भर दिया जाता है।  विशेषज्ञों के अनुसार जकार्ता का एक तिहाई हिस्सा, 3 करोड़ लोगों के घर सन 2050 तक डूब सकते हैं। एडमंड ने कहा कि तटीय बाढ़ से निपटने के लिए इस मामले में एकमात्र विकल्प जटिल इंजीनियरिंग उपाय है।

इंसानों के कारण समुद्र में बढ़ रही है लू की घटनाएं: स्टडी

समुद्री हीटवेव से पक्षियों, मछलियों और समुद्री स्तनधारियों की मृत्यु दर बढ़ सकती है


ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र भी अछूता नहीं रहा है। इसके कारण लगातार समुद्री हीटवेव (लू) और इसकी अवधि बढ़ रही है। हाल ही में नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि आने वाले दशकों में महासागरों में समुद्री हीटवेव की तीव्रता बढ़ने के आसार हैं।

वहीं, एक नए शोध में कहा गया है कि इंसानों के कारण विश्व के महासागरों में हीटवेव (लू) की तीव्रता 20 गुना अधिक बढ़ गई है। समुद्री हीटवेव की वजह से पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचता है, जिससे समुद्र की मछलियां मर सकती हैं। स्विट्जरलैंड के बर्न विश्वविद्यालय में ओशगेर सेंटर फॉर क्लाइमेट रिसर्च के शोधकर्ता ने इस बात का पता लगाया है।

समुद्री हीटवेव एक ऐसी अवधि है, जब किसी विशेष महासागर क्षेत्र में पानी का तापमान असामान्य रूप से अधिक होता है। हाल के वर्षों में इस तरह की हीटवेव के कारण समुद्रों और उनके तट की पारिस्थितिकी प्रणालियों में काफी बदलाव हुआ है। समुद्री हीटवेव से पक्षियोंमछलियों और समुद्री स्तनधारियों की मृत्यु दर बढ़ सकती है। समुद्र में हानिकारक शैवाल (ऐल्गलउग सकते हैंऔर समुद्र में पोषक तत्वों की आपूर्ति को कम कर सकते हैं। हीटवेव मूंगा विरंजन (कोरल ब्लीचिंगका कारण भी बनता है और मछलियों को ठंडे पानी की ओर जाने के लिए मजबूर करता है।

बर्न स्थित समुद्री वैज्ञानिक शार्लोट लॉफकोटर के नेतृत्व में शोधकर्ता इस सवाल की जांच कर रहे हैं कि हाल के दशकों में मानवविज्ञानी (एन्थ्रोपोजेनिक) जलवायु परिवर्तन प्रमुख समुद्री हीटवेव को कैसे प्रभावित कर रहा है। हाल ही में साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन में शार्लोट लॉफकोटरजैकब ज़स्किस्क्लेर और थॉमस फ्रॉलीचर ने निष्कर्ष निकाला है कि ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप इस तरह की घटनाएं बड़े पैमाने पर बढ़ गई है। विश्लेषण से पता चला है कि पिछले 40 वर्षों में दुनिया के सभी महासागरों में समुद्री हीटवेव काफी लंबी अवधि तक बढ़ी है।

शार्लोट लॉफकोटर बताते हैं, हाल ही में हीटवेव का समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों पर गंभीर प्रभाव पड़ा हैजिसे पूरी तरह से ठीक होने में लंबा समय लग सकता है।

1980 के दशक के बाद से हीटवेव में भारी वृद्धि हुई है

बर्न टीम ने अपनी जांच में 1981 और 2017 के बीच समुद्र की सतह के तापमान को जानने के लिए उपग्रह माप का अध्ययन किया। यह पाया गया कि अध्ययन की अवधि के पहले दशक में 27 प्रमुख हीटवेव हुए, जो औसतन 32 दिन तक चले। वे दीर्घकालिक औसत तापमान से 4.8 डिग्री सेल्सियस अधिकतम पर पहुंच गए। हाल के दशक में विश्लेषण किया जाए तो 172 प्रमुख घटनाएं हुईंजो औसतन 48 दिनों तक चलीं और लंबी अवधि के औसत तापमान से 5.5 डिग्री तक पहुंची। समुद्र में तापमान आमतौर पर थोड़ा कम होता है। 0.15 करोड़ (1.5 मिलियन) वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 5.5 डिग्री के एक सप्ताह के लंबे समय तक बदलाव से समुद्री जीवों की रहने की स्थिति में एक असाधारण परिवर्तन होता है।

सांख्यिकीय विश्लेषण से पता चलता है कि समुद्री हीटवेव मानव प्रभाव के कारण हुआ

सबसे बड़े प्रभाव के साथ सात समुद्री हीटवेव के लिए बर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन किया है उसे एट्रिब्यूशन अध्ययन कहा जाता है। इसके आकलन करने के लिए सांख्यिकीय विश्लेषण और जलवायु सिमुलेशन का उपयोग किया जाता है। मौसम की स्थिति या जलवायु में व्यक्तिगत चरम सीमाओं की घटना के लिए मानवविज्ञानी (एन्थ्रोपोजेनिक) जलवायु परिवर्तन किस हद तक जिम्मेदार है। एट्रिब्यूशन अध्ययन आमतौर पर प्रदर्शित करता है कि मानव प्रभाव के माध्यम से चरम सीमाओं की आवृत्ति कैसे बदल जाती है।

महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों के बिनासमुद्री पारिस्थितिक तंत्र गायब हो सकते हैं

एट्रिब्यूशन अध्ययनों के निष्कर्षों के अनुसारप्रमुख समुद्री हीटवेव मानव प्रभाव के कारण 20 गुना अधिक हो गए हैं। जबकि वे पूर्व-औद्योगिक युग में हर सौ या हजार साल बाद हुएग्लोबल वार्मिंग की प्रगति के आधार परभविष्य में वे आदर्श बनने के लिए तैयार हैं। यदि हम ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित करने में सक्षम हैंतो हीटवेव हर दशक या शताब्दी में एक बार आएगी। यदि तापमान में 3 डिग्री की वृद्धि होती हैतो दुनिया के महासागरों में प्रति वर्ष या दशक में एक बार चरम स्थिति होने की आशंका जताई जा सकती है।

शार्लोट लॉफकोटर ने जोर देते हुए कहा महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य समुद्री हीटवेव के जोखिम को कम करने के लिए अति आवश्यकता है। वे सबसे मूल्यवान समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों में से कुछ को होने वाली हानि को रोकने का एकमात्र तरीका हैं।


3 करोड़ साल पहले पृथ्वी की जलवायु पर कार्बन डाइऑक्साइड का प्रभाव किस तरह पड़ा: अध्ययन

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गर्म पृथ्वी पर वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का प्रभाव पहले की तुलना में अधिक हो सकता है


किसी समस्या के निपटारे के लिए उसके मूल में जाना जरूरी है। उसी तरह आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग के बारे में बेहतर अनुमान लगाने का एक तरीका, अतीत में जलवायु परिवर्तन किस तरह हुआ था इसके बारे में जानना है।

अतीत में हुए जलवायु परिवर्तन को जानने के लिए एक नया शोध किया गया है। इस शोध में साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय सहित जर्मनी, अमेरिका और ब्रिटेन के विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने भाग लिया है। शोधकर्ताओं ने 3 करोड़ साल पहले, जब वैश्विक तापमान वर्तमान की तुलना में 14 डिग्री सेल्सियस अधिक था, ईओसीन युग के दौरान जलवायु पर करीब से नज़र डाली है। यह शोध नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हुआ है।

उन्होंने अनुमान लगाया कि गर्म पृथ्वी पर वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का प्रभाव पहले की तुलना में अधिक हो सकता है।

इओसीन युग 3.4 से 5.6 करोड़ वर्ष के पहले का समय था। हालांकि पूरे इओसीन युग में, जलवायु ठंडी हो गई थी और इस युग में अंटार्कटिका के हिमनद के साथ हमारे वर्तमान के अनुभव एक जैसे रहे होंगे।

तब तक यह स्पष्ट नहीं था कि इस अवधि के दौरान जलवायु और सीओ2 एक-दूसरे से कैसे संबंधित थे। हाल के जलवायु मॉडल अध्ययनों ने बताया है कि गर्म जलवायु ठंडी जलवायु की तुलना में सीओ 2 परिवर्तनों के प्रति अधिक संवेदनशील है। यह हमारे भविष्य की जलवायु के लिए  महत्वपूर्ण हो सकता है क्योंकि सीओ2 बढ़ती है तो पृथ्वी लगातार गर्म होती है। इस नए अध्ययन में, जर्मनी, कीएल में ओशन रिसर्च गेओमार हेल्महोल्त्ज़ सेंटर, और साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय के साथ-साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा पहली बार बड़े पैमाने पर परीक्षण किया गया है।

सतह के पानी की अम्लता (पीएच) और महासागर में कैल्साइट की अधिकता के अनुमानों से, शोधकर्ताओं ने गणना की कि कैसे वायुमंडलीय सीओ 2 ईओसीन युग में बढ़ी। इस्तेमाल किए गए आंकड़े इओसीन युग के दौरान समुद्री तट पर जमा प्राचीन समुद्री प्लवक के जीवाश्म बोरान के समस्थानिक संरचना का अध्ययन करके प्राप्त किया गया था।

सीओ2 का नया रिकॉर्ड ईओसीन जलवायु विकास का एक नया और व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है। और सीओ 2 स्तर और गर्म जलवायु के बीच एक मजबूत कड़ी के रूप में सबूत देता है। यह बताता है कि ज्वालामुखीवाद, चट्टानों का नष्ट होना और कार्बनिक पदार्थों के दफन होने से सीओ 2 की प्राकृतिक मात्रा में वृद्धि हुई जिसने जलवायु को प्रभावित किया। इस नए सीओ 2 के रिकॉर्ड की तुलना करके इस बात की जानकारी दी गई है कि जलवायु को किस तरह से ठंडा किया जा सकता है, इस बात का भी पता चलता है कि जब इओसीन युग के शुरुआती हिस्सों में जलवायु गर्म थी, तब पृथ्वी सीओ 2 के परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील थी।

शोधकर्ता ने बताया की स्कूल ऑफ ओशन एंड अर्थ साइंसेज में जियोकेमिस्ट्री ग्रुप में रखे गए मास स्पेक्ट्रोमीटर और क्लीन लैब का उपयोग करके यह काम किया गया था। इसे विश्व के अग्रणी किट के उपयोग करके किया गया है, जिसमें आवश्यक सटीकता के लिए फोरामिनिफेरा में बोरान की बहुत कम मात्रा को भी माप सकते हैं। फोरामिनिफेरा एकल-कोशिका वाले जीव हैं।

डॉ. बबिला ने कहा अब जब हमने यह प्रदर्शित किया है कि गर्म होने पर जलवायु अधिक संवेदनशील हो जाती है। जैसे कि यह इओसीन युग के दौरान थी, ऐसा क्यों है और यह सुनिश्चित करें कि इस तरह का व्यवहार जलवायु मॉडल में अच्छी तरह से दर्शाया गया है, जो हमारी भावी जलवायु के अनुमान लगाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।

साउथेम्प्टन में महासागर और पृथ्वी विज्ञान में आइसोटोप जियोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर गाविन फोस्टर ने कहा ये विधियां वास्तव में हमें एक अद्वितीय जानकारी प्राप्त करने में सहायता करती हैं कि कैसे अतीत में जलवायु प्रणाली बदली, और क्यों बदली। वास्तव में, यह अतीत में वायुमंडलीय सीओ 2 को सटीक रूप से फिर से संगठित करने की क्षमता है, जिसका अर्थ है कि हम लाखों साल पहले जलवायु संवेदनशीलता का निर्धारण कर सकते हैं।