हिमालय क्षेत्र की नदियों में ग्लेशियरों की बर्फ के योगदान के बारे में हाल के वर्षों में कई शोध किए गए, इनके नतीजे दिखा रहे हैं एक अलग तस्वीरस्वामिनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
उत्तराखंड में हाल में अचानक बाढ़ की जो हालत बनी, उसे काफी लोगों ने 'ग्लेशियर फटने' की घटना करार दिया। ग्लेशियर गुब्बारे नहीं होते और न ही फटते हैं।
इस घटना के चलते पुरानी चेतावनियां फिर दी जाने लगीं कि ग्लोबल वॉर्मिंग से हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का खतरा है। यह भी कि इससे गंगा के मैदानी इलाकों में भीषण बाढ़ आ सकती है। खेती-बाड़ी तबाह हो सकती है। जमीन का बड़ा हिस्सा बंजर भी हो सकता है। ब्रह्म चेलानी जैसे शिक्षाविद तो पानी की तंगी को लेकर जंग तक होने का खतरा जता रहे हैं।
साल 2007 में जलवायु परिवर्तन पर बने एक इंटरनेशनल पैनल ने एक गलत अनुमान जताया था। कहा कि साल 2035 तक खत्म हो सकता है हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों का वजूद। बाद में उसने अनुमान में बदलाव किया।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने ग्लेशियरों के बारे में विशेषज्ञ माने जाने वाले वी के रैना की अगुवाई में एक स्वतंत्र अध्ययन शुरू कराया। उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि ग्लेशियर तो पिछले हिम युग से ही पिघल रहे हैं और पिघलते रहेंगे, लेकिन हाल के दशकों में तापमान बढ़ने पर भी इनके पिघलने में तेजी नहीं आई।
उनका अनुमान था कि इलाहाबाद में गंगा के बहाव में ग्लेशियरों के पिघलने से आने वाले पानी का योगदान महज 2 फीसदी रहा। गंगा के बहाव में अधिकांश हिस्सा बारिश के पानी का था। इसका मतलब यह हुआ कि सारे ग्लेशियरों के पिघल जाने पर भी नदियों और खेती-बाड़ी पर बहुत बड़ा असर नहीं पड़ेगा।
रैना ने 2 फीसदी का जो अनुमान दिया, वह भी हो सकता है कि काफी ज्यादा हो।
2019 में अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के रिचर्ड आर्मस्ट्रॉन्ग ने 11 दूसरे अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर एक रिसर्च पेपर पेश किया।
वह इस दिशा में पहला अध्ययन था कि हिमालय नदी बेसिन की नदियों के पानी में तमाम चीजों का कितना हिस्सा है। मसलन, जमीनी हिस्से पर मौजूद बर्फ के पिघलने से कितना पानी आता है, ग्लेशियरों के पिघलने का कितना योगदान है और बहाव में कितना हिस्सा होता है बारिश के पानी का।इस अध्ययन में बहुत अधिक ऊंचाई वाले इलाकों को ही शामिल किया गया। यानी 2000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई वाले इलाके। करीब इतनी ही ऊंचाई पर हैं मसूरी और दार्जिलिंग। ऐसा पैमाना इसलिए रखा गया क्योंकि मैदानी इलाकों में तो नदियों के बहाव में बारिश का पानी ही ज्यादा होता है। लेकिन 2000 मीटर से ऊपर का भी हाल यही मिला कि गंगा बेसिन की नदियों के बहाव में ग्लेशियरों के पिघलने का योगदान एक फीसदी से कम था।
दूसरे बर्फीले इलाकों में पिघलने वाली बर्फ का योगदान 4 फीसदी रहा। चट्टानी इलाकों पर जमी बर्फ के पिघलने का योगदान रहा 43 फीसदी और बारिश के पानी का योगदान था 52 फीसदी।
सिंघु नदी घाटी की बात करें तो वहां इन चार चीजों का योगदान 2 फीसदी, 6 फीसदी, 67 फीसदी और 23 फीसदी मिला।
ब्रह्मपुत्र बेसिन में ये आंकड़े रहे एक, सात, 26 और 66 फीसदी।
कई लोग इस बात पर हैरान होंगे कि हिमालय के ऊंचाई वाले इलाकों में भी नदियों के पानी में ग्लेशियरों के पिघलने का योगदान एक फीसदी से कम हो सकता है। कुछ दूसरे लोगों ने भी शोध किए। उनके अनुमान काफी ज्यादा हैं।
नए अध्ययन से पता चलता है कि शोध करने वाले दूसरे लोग स्नो मेल्ट और ग्लेशियल मेल्ट के बीच फर्क नहीं कर सके। दरअसल पहले ऐसा अंतर पकड़ने के लिए जरूरी टेक्नॉलजी और डेटा आसानी से उपलब्ध नहीं थे।
रैना की रिपोर्ट में कहा गया कि आंकड़े जुटाने के लिए हिमालय क्षेत्र में वेदर स्टेशन बहुत ही कम हैं। इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन आंकड़े जुटाता है सैटेलाइट के जरिए।
इसरो ने 2014 में एक रिपोर्ट में कहा था कि उसने 2001 से 2011 के बीच हिमालय में 2018 ग्लेशियरों पर नजर रखी। केवल 248 ग्लेशियरों को पीछे खिसकता पाया गया। 1752 ग्लेशियर अपनी पुरानी हालत में थे और 18 आगे की ओर आ रहे थे। ग्लेशियरों की परतें पतली हो रही हैं और वे पिघल रहे हैं, लेकिन संकट जैसी कोई बात नहीं है।
जाड़ों (Winter) में काफी बर्फ गिरती है। गर्मी के शुरुआती दिनों में जमीनी इलाकों और ग्लेशियरों पर मौजूद बर्फ पिघलनी शुरू होती है। ऊंचे पहाड़ों से पिघलकर आने वाली बर्फ ग्लेशियरों में जा सकती है। ऐसे में यह चूक हो सकती है कि इसे भी ग्लेशियरों का पिघलना मान लिया जाए। ग्लेशियरों को ढकने वाली बर्फ के पिघल जाने पर जून और सितंबर के बीच ग्लेशियल आइस भी पिघलता है।
वही मौसम होता है मॉनसून का। मॉनसूनी बारिश का पानी नदियों में उफान ला देता है। इसे देखते हुए रैना इस धारणा को गलत बताते हैं कि मॉनसून से पहले के सीजन में नदियों के बहाव के लिए अहम होता है ग्लेशियरों से बर्फ का पिघलना। बर्फ गिरती रहेगी, पिघलती रहेगी और सदियों तक नदियों में उसका पानी आता रहेगा। जियोलॉजी से पता चलता है कि आखिरी हिम युग के दौरान ग्लेशियर बने, लेकिन उसके पहले से हिमालय से विशाल नदियों की धारा आती रही है।
दरअसल हिमालय में पड़ने वाली बर्फ पर ग्लोबल वॉर्मिंग का कैसा असर पड़ेगा, इसके बारे में सभी अनुमान काफी हद तक अटकलबाजी ही हैं। क्या होगा, हमें वाकई नहीं पता।
पहली नजर में तो यही लगता है कि ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र के पानी के भाप बनने की रफ्तार बढ़ जाएगी, बादल बनने में तेजी आएगी। बारिश और बर्फबारी ज्यादा होगी।
जाड़ों में पड़ने वाली बर्फ से जितना इलाका कवर होता है, वह ग्लेशियरों से कवर होने वाले इलाके से कई गुना रहता है। रैना का अनुमान है कि ग्लेशियरों के जिस इलाके से नदियां निकलती हैं, वहां भी ग्लेशियर की पिघलने वाली बर्फ का योगदान बहुत कम होता है।
आर्मस्ट्रॉन्ग ने दिखाया है कि ऊंचाई वाले इलाकों में तो महज एक-दो फीसदी होता है इसका योगदान। नदी जैसे-जैसे निचले इलाकों की ओर बढ़ती है, इसका हिस्सा और घटता जाता है। तब बारिश के पानी का योगदान ज्यादा होता जाता है।
मोटे तौर पर कहें तो यह मानना गलत है कि हिमालय की नदियों का स्रोत ग्लेशियर हैं। ग्लेशियर तो दरअसल इन नदियों की सबसे ऊंची जगह भर हैं।
गंगा का असल स्रोत गंगोत्री हिमनद नहीं, बल्कि बारिश की वह हर बूंद है, जो गंगा बेसिन के 8 लाख 60 हजार वर्ग किलोमीटर के इलाके में गिरती है और फिर नदी में समा जाती है।
रैना, इसरो और आर्मस्ट्रॉन्ग ने जो अध्ययन किए, वे उन लोगों की सोच को हिला देंगे, जिन्होंने ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार बढ़ने और अकाल का डर जताया है। लेकिन आम किस्म की बर्फ के पिघलने और ग्लेशियर की बर्फ के पिघलने में अंतर पकड़ना एक अच्छा वैज्ञानिक कदम है। इससे सुखद नतीजे निकलते हैं। तो आइए, खुश हो लें।
ग्लेशियरों के पीछे खिसकने से वहां की झीलों और आसपास के जीव-जंतुओं पर कुछ विपरीत असर पड़ेगा, लेकिन अगर ग्लेशियर खत्म ही हो जाएं तो इसका मतलब यह नहीं है कि नदियां सूख जाएंगी, अकाल पड़ जाएगा और जंग होने लगेगी।
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Source
गोमुख-गंगोत्री मिट जाएं, गंगा नहीं मिटने वाली - gomukh gangotri can deplete in coming years, ganga river will remain | Navbharat Gold (indiatimes.com)