मृदा (Soil) : मतलब, घटक, प्रकार और संरक्षण | Soil: Meaning, Components, Types and Conservation , मृदा अपरदन (Soil Erosion), मृदा प्रदूषण: कारण और नियंत्रण | Soil Pollution: Causes and Control
मृदा पर निबंध (Essay on Soil)
मृदा निर्माण के कारक (Soil and Its Formation):
मिट्टी खनिज तथा जैव तत्वों का वह गत्यात्मक प्राकृतिक मिश्रण है जिसमें पौधों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है । यह धरातल के ऊपरी भाग में पाई जाती है । यह एक नवीनीकरण अयोग्य संसाधन माना जाता है क्योंकि इसके निर्माण में एक लंबी अवधि लगती है ।
a. आधारभूत चट्टान या जनक पदार्थ
b. जलवायु
c. स्थलाकृतिक उच्चावच
d. जैविक प्रभाव (वनस्पतियाँ, जीव जन्तु व मानवीय प्रभाव)
e. समय या विकास की अवधि
इन सभी कारकों में प्रथम दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । जलवायु और जैविक कारक को क्रियाशील कारक कहा जाता हैं जबकि जनक पदार्थ, स्थलाकृतिक उच्चावच एवं मृदा के विकास की अवधि को निष्क्रिय कारक कहते हैं ।
मिट्टियों का वर्गिकरण (Classification of Soil):
मृदा विज्ञान के विकास में रूसी भूगर्भशास्त्री वी.वी. डकाचेव का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका में सी. एफ. मारबुट ने 1938 ई. में मृदा वर्गीकरण की व्यापक योजना (USDA System) प्रस्तुत की जिसमें उन्होंने आनुवांशिकी कारकों के आधार पर विश्व की मृदाओं को तीस वृहत्तर भागों में बांटा व इसे तीन वर्गों क्षेत्रीय, अंतःक्षेत्रीय व अक्षेत्रीय में रखकर विवेचित किया ।
ये हैं:
1. क्षेत्रीय मिट्टियाँ (Regional Soil):
ये पृथ्वी पर अक्षांशीय पेटियाँ बनाते हैं । इन मिट्टियों में मृदा संस्तरों का पूर्ण विकास मिलता है अर्थात् वह मिट्टी अपनी आधारित चट्टान से संबंधित होती है । इन्हें दो प्रमुख वर्गों पेडल्फर व पेडोकल में तथा पुनः बारह मुख्य प्रकार की मिट्टियों में बाँटा जा सकता है । संसार के जलवायु प्रदेशों प्राकृतिक वनस्पतियों और मिट्टियों में गहरे संबंध है ।
पेडल्फर मिट्टियाँ (अल्युमिनियम (Al) एवं लौह तत्व (Fe) की पर्याप्तता से युक्त):
i. धूसर पोडजोल:
ये उप-आर्कटिक जलवायु प्रदेश के टैगा या कोणधारी वनों में मिलती है । ये अम्लीय (pH मान 4) मिट्टी है व कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है ।
ii. धूसर-भूरी पोडजोल:
ये मध्य अक्षांशीय पतझड़ वनों की पेटी में पाई जाती है । इसमें ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है । खाद व उर्वरकों के प्रयोग एवं फसलों के शस्यावर्तन से मिट्टी काफी उपजाऊ बनी रहती है । डेयरी उद्योग व मिश्रित कृषि के लिए यह उपयोगी मिट्टी है ।
iii. लाल-पीली पोडजोल:
ये मिट्टियाँ उपोष्ण आर्द्र, जलवायु प्रदेशों में पॉडजोलाइजेशन व लैटेराइजेशन प्रक्रिया से निर्मित होती है । इसमें ह्यूमस की कमी होती है ।
iv. लाल-पोडजोल या टेरारोशा:
भूमध्यसागरीय प्रदेशों और चूना क्षेत्रों में मिलने वाली यह मिट्टी फेरस ऑक्साइड (Fe2O3) के कारण लाल रंग की होती । इसमें ह्यूमस की कमी होती है ।
v. लैटेराइट मिट्टी:
उच्च तापमान व प्रचुर वर्षा वाले उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में, निक्षालन क्रिया की अधिकता से यह मिट्टी निर्मित होती है । ह्यूमस का यहाँ अधिक मात्रा में निर्माण होता है परन्तु जीवाणुओं द्वारा अधिक उपभोग एवं निक्षालन के कारण ह्यूमस कम मात्रा में बचती है । इस मिट्टी के ऊपरी भागों में Fe2O3 तथा Al के लवणों की अधिकता होती है ।
पेडोकल मिट्टी (कैल्शियम (Ca) की पर्याप्तता):
i. प्रेयरी मिट्टी (Prairie Soil):
शीतोष्ण आर्द्र प्रदेशों में लंबी घास भूमियों की यह मिट्टी चरनोजेम और धूसर बादामी पोडजोल के मिश्रित गुणों वाली मृदा है । ह्यूमस की अधिकता के कारण इसका रंग काला-भूरा होता है । यह उपजाऊ मिट्टी है । उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी, दक्षिणी अमेरिका के पम्पास एवं हंगरी के पुस्टाज आस्ट्रेलिया के डाउन्स घास भूमियों में यही मिट्टी मिलती है ।
ii. चरनोजेम (Chernozem Soil):
यह सर्वाधिक उपजाऊ और भुरभुरी मिट्टी है । इसमें उर्वरक व सिंचाई की आवश्यकता काफी कम पड़ती है । छोटी घास वाले स्टेपी मैदानों में यह मिट्टी पाई जाती है । ह्यूमस की अधिकता के कारण इसका रंग काला होता है । इसके निचली परत में चूने की भी पर्याप्त मात्रा होती है ।
iii. चेस्टनट (Chestnut Soil):
चरनोजेम मिट्टी के शुष्क भागों में पायी जाने वाली यह गहरे भूरे रंग की मिट्टी है । इसमें ह्यूमस की मात्रा चरनोजम की अपेक्षा कम होती है ।
iv. लाल चेस्टनट और लाल-भूरी मिट्टी (Red Chestnut Soil):
यह मिट्टी सवाना प्रदेश की अर्द्धशुष्क भागों में पायी जाती है ।
v. सायरोजेम या घूसर मरूस्थलीय मिट्टी:
मध्य अक्षांशीय शुष्क मरूस्थलों में पाई जाने वाली यह क्षारीय मिट्टी (pH मान 8 से अधिक) है । इसमें चूना सतह के ऊपर जमा रहता है ।
vi. लाल मरूस्थलीय मिट्टी:
यह उष्ण कटिबंधीय शुष्क मरूस्थलीय प्रदेशों की मिट्टी है । चूना का सतह के निकट पाया जाना व ह्यूमस का अभाव इसकी विशेषता है ।
vii. टुंड्रा प्रदेश की मिट्टी:
यह अल्प विकसित मृदा है जिसमें जैव तत्वों व महत्वपूर्ण खनिजों का अभाव पाया जाता है ।
2. अंतः क्षेत्रीय (Intra-Zonal):
यह स्थानीय रूप में उत्पन्न होती है पंरतु उनमें विभिन्न रासायनिक क्रियाओं के कारण आधारी चट्टानों की गुणता में अंतर मिलता है । इन मिट्टियों को तीन वर्गों में बांटकर देखा जा सकता है ।
ये निम्न हैं:
i. दलदली मिट्टी (Hydromorphic Soil):
इसके अंतर्गत पीट, चारागाही (मीडो), बॉग व प्लेनोसोल मिट्टियां शामिल की जाती है ।
ii. लवणतायुक्त मिट्टी (Halomorphic Soil):
इसमें लवणीय (Saline), क्षारीय (Solonetz), सोलोथ (Soloth) मिट्टियां शामिल होती हैं ।
iii. कैल्शियम युक्त मिट्टी (Calcimorphic Soil):
इसके अंतर्गत रेंडजिना, टेरारोसा व टेरारोक्सा मिट्टियां आती हैं ।
3. अक्षेत्रीय (Azonal):
यह मिट्टी स्थानीय उत्पत्ति नहीं रखती है तथा अपरदन के कारकों के द्वारा परिवहित कर लाई जाती है । अतः इसमें आधारी चट्टान से पूर्णतः भिन्न पार्श्विका मिलती है । विषम पार्श्विका रखने वाली इस मिट्टी में संस्तरों का विकास ठीक से नहीं मिलता । अक्षेत्रीय मिट्टियों को लिथोसॉल व रेगोसॉल प्रकारों में बाँटा जाता है ।
ये दो मुख्य प्रकारों में बाँटी जाती हैं:
i. लिथोसॉल मिट्टियाँ:
इसमें कंकड़-पत्थर की अधिकता होती है । भाबर प्रदेश की मिट्टी, पर्वतपदीय क्षेत्रों की पथरीली मिट्टी इसके अंतर्गत आती हैं ।
ii. रेगोसॉल मिट्टियाँ:
इसमें जलोढ़, हिमोढ़ एवं लोएस मिट्टियाँ शामिल की जाती हैं ।
CSCS – 1960 का वर्गीकरण:
अमेरिकी मृदा वैज्ञानिकों ने 1960 में मिट्टियों के वर्गीकरण की एक नई विस्तृत योजना व्यापक मृदा वर्गीकरण तंत्र (CSCS – Comprehensive Soil Classification System) प्रस्तुत की । इसे मृदा वर्गीकरण विज्ञान (Soil Taxonomy) भी कहा जाता है । इस योजना के अंतर्गत विश्व की समस्त मिट्टियों को 10 श्रेणी, 47 उपश्रेणी और 185 वृहत् वर्गों में बाँटा गया है ।
अविकसित मृदा संस्तरों वाली मिट्टियाँ:
i. एंटीसोल (Entisol):
यह एजोनल या अपार्श्विक मिट्टी के समान होती है ।
ii. इंसेप्टीसोल (Inceptisol):
यह टुंड्रा, अल्पाइन क्षेत्र तथा बाढ़ क्षेत्र की मिट्टी के समान है ।
iii. हिस्टोसोल (Histosol):
यह अम्लीय व कुप्रवाहित मिट्टी है, जो दलदली या बोग मिट्टी के समान होती है । यह जैविक परतों से संपन्न मिट्टी है ।
पूर्ण विकसित संस्तरों वाली क्षेत्रीय मिट्टियाँ:
i. ऑक्सीसोल (Oxisol):
इसमें Fe व Al आक्साइडों की प्रचुरता होती है । यह उष्ण कटिबंधीय भागों की मिट्टी है जो निक्षालन प्रक्रिया से निर्मित होती है ।
ii. अल्टीसोल (Ultisol):
यह उष्ण व उपोष्ण प्रदेश की मिट्टियाँ हैं जो उपजाऊ तथा लाल, पीली व भूरी होती हैं ।
iii. वर्टीसोल (Vertisol):
यह रेगुर या रेंडजिना मिट्टी के समान है । इसमें सूखने पर दरारें पड़ जाती है, जबकि गीले होने पर यह चिपचिपी हो जाती है । मृत्तिका की अधिकता के कारण इस मिट्टी में आर्द्रता धारण सामर्थ्य अधिक होती है ।
iv. अल्फीसॉल (Alfisol):
यह आर्द्र व उपार्द्र प्रदेशों की मिट्टियाँ हैं । निक्षालन के कारण इसमें Al व Fe की अधिकता होती है जिससे यह अधिक अम्लीय हो जाती है । ह्यूमस की कमी के कारण इसकी उर्वरता कम रहती है ।
v. स्पोडोसॉल (Spodosol):
यह पोडजॉल समूह की मिट्टियों के समान है । टैगा क्षेत्रों में मिलने वाली यह मिट्टी अत्यधिक अम्लीय होती है ।
vi. मोलीसॉल (Molisol):
यह विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ मिट्टी है एवं चरनोजेम मिट्टी के समान होती है । प्रेयरी व चेस्टनट मिट्टियों को भी इसी समूह में रखा जा सकता है । यह मिट्टियाँ काली व गहरे रंग की होती है एवं इसमें ह्यूमस की पर्याप्त मात्रा रहती है ।
vii. एरिडोसोल (Aridosol):
यह रेगिस्तानी प्रदेशों की लवणीय व क्षारीय मिट्टी है । इस मिट्टी में सतह के निकट सोडियम अथवा कैल्शियम की परत मिलती है तथा ह्यूमस व जल का अभाव रहता है ।
पारिस्थितिकीय आधार पर मृदा अधोलिखित प्रकार की होती है:
1. अवशिष्ट मृदा (Residual Soil):
वैसी मृदा जो बनने के स्थान पर ही पड़ी रहती है, उसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं ।
2. वाहित मृदा (Transported Soil):
वैसी मृदा जो बनने वाले स्थान से बहकर आयी हुई मृदा होती है ।
3. जलोढ़ मृदा (Alluvial Soil):
वैसी मृदा जो बनने के स्थान से जल द्वारा बहकर दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।
4. वातोढ़ मृदा (Eoilan Soil):
वैसी मृदा जो बनने के स्थान से वायु द्वारा उड़कर दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।
5. शेल, मलवा मृदा (Colluvial Soil):
वैसी मृदा जो पृथ्वी के आकर्षण के द्वारा दूसरे स्थान पर पहुँचती है ।
3. मृदा अपरदन (Soil Erosion):
मृदा अपरदन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मृदा के उपजाऊ तत्व अपरदित होकर अन्यत्र चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप मृदा की गुणवत्ता में कमी आती है तथा बंजर भूमि की समस्या भी उत्पन्न होती है ।
मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारक (Soil Erosion and Erosion Factors):
मृदा क्षरण एवं अपरदन के कारकों को दो प्रमुख वर्गों में रखते हैं:
i. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक
ii. मानवीय कारक
i. प्राकृतिक एवं भौगोलिक कारक (Natural and Geographical Factor):
मृदा अपरदन के प्राकृतिक कारकों के अंतर्गत निम्न प्रक्रियाएँ मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी है:
a. जलीय अपरदन
b. वायु अपरदन
c. हिमानी अपरदन
d. समुद्री तरंगों द्वारा अपरदन
ii. मानवीय कारक (Human Factor):
मानवीय कारकों से मृदा क्षरण एवं अपरदन की प्रक्रिया में तीव्रता आती है । प्राकृतिक कारकों से मृदा अपरदन को त्वरित करने का कार्य मानवीय क्रियाओं द्वारा होता है । मृदा अपरदन को मानवीय कारक दो तरीके से प्रभावित करते हैं ।
मृदा अपरदन के प्रभाव (Effects of Soil Erosion):
a. ऊपरी उपजाऊ मिट्टी के आवरण की क्षति से धीरे-धीरे मृदा उर्वरता और कृषि उत्पादकता घटती जाती है ।
b. इस प्रकार कृषि योग्य भूमि कम होती जाती है ।
c. निक्षालन (Leaching) एवं जल-जमाव (Water Logging) द्वारा मृदा के पोषक तत्वों का ह्रास ।
d. भौम जलस्तर और मृदा आर्द्रता में गिरावट देखी जाती है ।
e. वनस्पतियों का सूखना एवं शुष्क भूमि के क्षेत्र में विस्तार ।
f. सूखे व बाढ़ के प्रकोप का बढ़ना ।
g. नदियों और नहरों के तल में रेतों का जमाव बढ़ जाना ।
h. भू-स्खलन के खतरे बढ़ना ।
i. वनस्पति आवरण नष्ट होने से इमारती लकड़ी एवं घरेलू ईंधन हेतु जलावन की लकड़ियों की कमी होने लगती है तथा वन्य जीवन भी दुष्प्रभावित होता है ।
j. मृदा की ऊपरी उपजाऊ सतह का ह्रास, जिससे धीरे-धीरे मृदा की उर्वरता और कृषि उत्पादकता में कमी आती है ।
4. मृदा संरक्षण के उपाय (Measures of Soil Conservation):
a. बाढ़ एवं मृदा अपरदन पर नियंत्रण के उद्देश्य से बड़ी नदियों और सहायक नदियों पर उनके ऊपरी भागों में छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण ।
b. नहरों से होने वाले जल रिसाव को रोकने के लिए नहरों का अस्तरण (Lining), ताकि निम्न भागों में जलमग्नता को रोका जा सके ।
c. सतही और उर्ध्वाधर अपवाह तंत्र में सुधार कर जलमग्नता की समस्या का निदान करना ।
d. जैविक उर्वरकों (Organic and Bio-Fertilizer) एवं वानस्पतिक खाद (Compost Manure) के उपयोग में वृद्धि करना ।
e. मानव अवशेषों एवं शहरी कचरों को खाद में परिवर्तित करना ।
f. वैज्ञानिक फसल चक्रण पर ध्यान देना ।
g. अवनालिकाओं की भराई एवं ढालों पर वेदिकाओं (Terreaces) का निर्माण करना ।
h. तंगघाटियों (Ravines) का समतलीकरण एवं ढालों पर वृक्षारोपण एवं घासरोपण करना ।
i. सतत् कृषि (Sustainable Agriculture) की तकनीक को अपनाना ।
j. धान एवं गन्ना जैसे लवणतारोधी फसलों को लगाना ।
प्रत्यक्ष कारक (Direct Factor):
इसमें निम्न क्रियाएँ आती हैं, जो मृदा अपरदन के लिए प्रत्यक्षतः उत्तरदायी है:
i. वनों की कटाई तथा वन विनाश ।
ii. अत्यधिक चारागाह के रूप में भूमि का उपयोग अर्थात् अति पशुचारण ।
iii. अवैज्ञानिक कृषि, जैसे अतिकृषि, अल्पकृषि, फसल चक्र का प्रयोग नहीं किया जाना, अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धतियाँ, झूम कृषि, ढाल कृषि ।
iv. रासायनिक उर्वरक, कीटनाशकों का प्रयोग ।
अप्रत्यक्ष कारक (Indirect Factor):
इसमें निम्न क्रियाएँ आती हैं, जो अप्रत्यक्ष मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं:
i. सिंचाई, बाँधों का निर्माण, बहुद्देशीय परियोजनाएँ
ii. जल प्रवाह की समस्या
iii. हरित क्रान्ति के चर
iv. नगरीकरण, औद्योगिकरण, सड़क निर्माण, खनन कार्य ।
मृदा क्षरण
प्राकृतिक ढंग से मृदा के कटाव को मृदा अपरदन कहते हैं । मृदा अपरदन की प्रक्रिया में मानव की भूमिका भी बड़ी महत्वपूर्ण है । सामान्यतः विश्व में मृदा अपरदन उन क्षेत्रों एवं प्रदेशों में अधिक है जहां वर्षा की मात्रा अधिक होती है । इस प्रकार मानसूनी जलवायु, भूमध्यसागरीय जलवायु तथा अर्द्ध-मरुस्थलीय में प्रदेशों मृदा अपरदन अधिक होता है ।
किसी क्षेत्र के मृदा अपरदन पर निम्न कारकों का प्रभाव पड़ता है:
(i) वर्षा की अपरदन क्षमता,
(ii) जल की मात्रा,
(iii) वायु शक्ति,
(iv) वायु का प्रभावित क्षेत्र,
(v) भू-आकृति,
(vi) ढलान,
(vii) ढलान में चबूतरे तथा
(viii) वायु से वृक्षों की रक्षा पेटी ।
इनके अतिरिक्त मृदा अपरदन पर जनसंख्या घनत्व, भूमि उपयोग, कृषि भूमि प्रबंधन, फसलों के प्रतिरूप, फसल-चक्र रासायनिक खादों के उपयोग, अग्नि का तथा वर्तमान में मृदा अपरदन पर कृषि की सघनता, नगरीकरण, दरिद्रता, आर्गन खनन, युद्ध तथा पर्यटन का भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है ।
विश्व में मृदा अपरदन के सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों की मानचित्र 6.7 में दिखाया गया है ।
इन प्रभावित क्षेत्रों में:
1. संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रेंसी घास के मैदान,
2. मध्य मैक्सिको,
3. उत्तरी पूर्वी ब्राजील,
4. उत्तरी अफ्रीका के देश (मिस्र, लीबिया, अल्जीरिया, टुनिसिया तथा मोरक्को),
5. साहेल प्रदेश जो सोमालिया, इथोपिया, द॰ सूडान, चाड, नाइजर, माली, मारिटानिया तथा प॰ सहारा पर फैला हुआ है,
6. बोतस्वाना तथा नामीबिया,
7. मध्य पूर्व के देश,
8. मध्य एशिया (कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान इत्यादि),
9. मंगोलिया,
10. चीन के ह्वांग हो तथा यांगटिकियांग बेसिन,
11. हिमालय पर्वत,
12. बिलोचिस्तान,
13. भारत में थार का मरुस्थल तथा
14. आस्ट्रेलिया का मरुस्थल तथा आर्द्र मरुस्थलीय भाग सम्मिलित हैं ।
मृदा अपरदन के विशेषज्ञों के अनुसार मृदा है मृदा अपरदन को निम्न तीन वर्गों में विभाजीत किया जा सकता है:
(i) चहरी अपरदन (Sheet Erosion)
(ii) नदी का/रिल अपरदन (Rill-Erosion) तथा
(iii) गली अपरदन (Gully-Erosion) ।
(i) चहरी अपरदन (Sheet Erosion):
जब किसी क्षेत्र की ऊपरी परत पर समान रूप से अपरदन हो तो उसको शीट अपरदन कहते हैं । धीरे-धीरे शीट अपरदन रिल अपरदन का रूप धारण कर लेता है । उत्तरी भारत के मैदान तथा विश्व के सभी वर्षा वाले मैदानों एवं ढलानों पर इस प्रकार का मृदा अपरदन देखा जा सकता है ।
(ii) नदी कारिल अपरदन (Rill-Erosion):
वर्षा जल के द्वारा निर्मित छोटी-छोटी तथा कम गहरी नालियों को रिल कहते हैं । सामान्यतः इस प्रकार की नालियाँ ढलान वाली कृषि भूमि पर विकसित होती है । शीट अपरदन की तुलना में नालीदार अथवा रिल अपरदन विदित होता है । इस प्रकार के मृदा अपरदन से कृषि भूमि को अधिक हानि होती है । रिल अपरदन अंततः बीहड भूमि का रूप धारण कर लेता है ।
(iii) गली/बीहड़ अपरदन (Gully-Erosion):
गली/गहरी नालियाँ होती है, जिनकी गहराई कुछ क्षेत्रों में कई मीटर तक पाई गई है । इस प्रकार का अपरदन प्रायः नदियों के बेसिन के ऐसे क्षेत्रों में होता है । चंबल नदी का गली (बीहड भूमि) विश्व प्रसिद्ध है । संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलोरेडो नदी बेसिन में भी गली मृदा अपरदन देखा जा सकता । इस प्रकार का अपरदन नील नदी, रियो ग्रांडी, मिकांग तथा द॰अमेरिका की पराना नदियों के बेसिन में देखा जा सकता है ।
एक अनुमान के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 75,000 मिलयन टन मृदा अपरदन होता है । भारत वर्ष में प्रति वर्ष लगभग 6000 मिलियन टन मृदा का अपरदन होता है । भारत तथा चीन लगभग 60 प्रतिशत कृषि भूमि मृदा अपरदन से प्रभावित है ।
मृदा अपरदन से केवल वही क्षेत्र प्रभावित नहीं होते जहाँ से मृदा अपरदन का कटाव हो रहा है, बल्कि इसका प्रभाव उन भागों पर भी पड़ता है जहाँ पर जाकर यह मृदा एकत्रित होती है । बहुत-सी झीलो पोखर, तालाबो इत्यादि के पारितंत्र बुरी तरह से प्रभावित होकर नष्ट हो रहे हैं । मृदा अपरदन चूंकि अनुत्क्रमणीय है इसलिये इसकी रोकथाम के लिये उचित कार्य करना अनिवार्य है ।
मृदा : मतलब, घटक, प्रकार और संरक्षण | Soil: Meaning, Components, Types and Conservation
- मृदा का अर्थ (Meaning of Soil)
- मृदा घटक (Components of Soil)
- मृदा के प्रमुख प्रकार (Types of Soil)
- मृदा टैक्सोनॉमी (Soil Taxonomy)
- मृदा अपरदन (Soil Erosion)
- मृदा संरक्षण (Soil Conservation)
1. मृदा का अर्थ (Meaning of Soil):
धरातल की ऊपरी परत, जिससे मानव समाज की अधिकतर आवश्यकता की आपूर्ति होती है, मृदा अथवा मिट्टी कहलाती है । मानव की तीन मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र एवं आवास की आपूर्ति के लिये मिट्टी सब से अधिक महत्वपूर्ण संसाधन है ।
अपक्षपि पदार्थ (Regolith), अवरण शैल की ऊपर परत जिसमें गली-सड़ी वनस्पति, कीटाणु (Humus) आदि मिश्रित हों और उसमें पेड़-पौधे उगाने की क्षमता हो, मिट्टी कहलाती है । मिट्टी मुख्यत: खनिज कणों, जैविक पदार्थों, मृदा जल एवं जीवित जीवों (Living Organism) से बनी होती है । मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक पदार्थों में समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है ।
2. मृदा घटक (Components of Soil):
मिट्टी के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं:
1. मातृ पदार्थ (Parent Material):
कार्बोनिक एवं खनिजों का एक असंगठित पदार्थ, जो मृदा विकास के लिये मूल पदार्थ होता है ।
2. ह्यूमस तथा जैविक खाद (Humus):
मृदा में विद्यमान विघटित जैविक पदार्थ, जिसकी उत्पत्ति वनस्पति तथा जंतुओं के गलने-सड़ने से होती है । जिस कृषि भूमि को कुछ समय के लिए जोत कर छोड़ दिया जाये, उसमें जंतु एवं पौधे गिरकर सड़ जाते हैं । ऐसी भूमि में काफी ह्यूमस पाया जाता है । गोबर और हरी-खाद आदि के द्वारा भी खेतों में ह्यूमस की मात्रा बढ़ाई जा सकती है ।
3. मृदा जल (Soil Water):
जल भी मृदा का एक मुख्य घटक है । विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में जल की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । उष्ण मरुस्थलों तथा शुष्क प्रदेशों की मिट्टी में जल की मात्रा नाम-मात्र की होती है, जबकि आंध्र प्रदेश की मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होती है । जल की मात्रा का प्रभाव मृदा की उर्वकता पर पड़ता है । जल की मात्रा से मिट्टी के रसायनिक तत्व भी प्रभावित होते हैं ।
4. मृदा संरचना (Soil Texture):
मृदा की विशिष्टता की पहचान उसमें पाये जाने वाले कणों के आधार पर की जाती है । चिकनी मिट्टी (Clay) में सूक्ष्म कणों की मात्रा अधिक होती है, जबकि बलुई मृदा में मोटे कणों की मात्रा अधिक होती है । इनके विपरीत सिल्ट में महीन तथा बलुई कणों की मात्रा लगभग समान होती है (Fig. 5.6 तथा 5.7) ।
5. मृदा वर्गिकी (Soil Structure):
मृदा कणों की विद्यमानता तथा उनका संगठन । दूसरे शब्दों में महीन, मोटे कण और ह्यूमस (Humus) आपस में किस प्रकार संगठित हैं ।
6. मृदा संस्तर (Soil Horizon):
मृदा परिच्छेदिका में सुनिश्चित परत, जो स्थानीय भू-सतह के समानान्तर होती है । मृदा संस्तर को कई परतों में विभाजित किया जा सकता है जैसा कि Fig. 5.6 में दिखाया गया है ।
7. मृदा प्रोफाइल (Soil Profile):
किसी स्थान की मृदा का लम्बवत् परिच्छेदिका, जिसमें मृदा की विभिन्न परतों को तथा उनकी भौतिक एवं रासायनिक विशेषताओं को दर्शाया जाता है (Fig. 5.6) ।
8. मृदा उर्वरता (Soil Fertility):
मृदा की फसलों तथा पेड़-पौधों को उगाने की क्षमता को उसकी उर्वरता कहते हैं ।
मृदा के प्रमुख प्रकार (Types of Soil):
मृदा को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) कटिबंधीय मृदा (Zonal Soil),
(ii) गैर-कटिबंधीय मृदा (Azonal Soil) तथा
(iii) अन्तक्षेत्रीय मृदा (Interzonal Soil) ।
(i) कटिबंधीय मृदा (Zonal Soil):
जो मिट्टियाँ अपने मातृ-पदार्थ, जलवायु एवं वनस्पति से प्रभावित हों, कटिबंधीय मृदा कहलाती हैं, जैसे- भारतीय प्रायद्वीप की काली तथा लाल मिट्टी तथा कश्मीर घाटी की करेवा (Karewa) मिट्टी ।
(ii) गैर-कटिबंधीय मृदा (Azonal Soil):
ऐसी मृदा जो स्थानीय मातृ-पदार्थ, जलवायु तथा वनस्पति से प्रभावित न हो तथा गैर-कटिबंधीय मृदा कहलाती है । इस प्रकार की मृदा में ‘B’ संस्तर (B-Horizon) का अभाव होता है ।
(iii) अन्तक्षेत्रीय मृदा (Interzonal Soil):
ऐसी मृदा जो मृदा-उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुजर कर न विकसित हुई हो । इसकी उत्पत्ति पर स्थानीय जलवायु तथा प्राकृतिक वनस्पति का अधिक प्रभाव नहीं देखा जाता । इस मृदा में ‘ब’ संस्तर नहीं होता ।
मृदा टैक्सोनॉमी (Soil Taxonomy):
संयुक्त राज्य अमेरिका के मृदा विशेषज्ञों ने विश्व-मृदा को भौतिक तथा रसायनिक गुणों के आधार पर विभाजित किया था, जिसको मृदा टैक्सोनॉमी कहते हैं । यह वर्गीकरण पूरी दुनिया से मृदा के नमूने (Soil Samples) एकत्रित करके विश्लेषण (Analysis) के आधार पर किया गया था (तालिका 5.3) ।
मृदा अपरदन (Soil Erosion):
मृदा की ऊपरी सतह के अनावरण (कटने) को मृदा अपरदन कहते हैं । जल तथा पवन इत्यादि के द्वारा अपरदन एक निरन्तर प्राकृतिक प्रक्रिया है । कुछ प्रदेशों में मानव द्वारा भूमि के दुरुपयोग के कारण भी अपरदन प्रक्रिया तीव्र हो जाती है । मृदा अपरदन से लगभग 75,000 मिलियन टन उपजाऊ भूमि नष्ट होती है ।
मृदा अपरदन के मुख्य क्षेत्रों को मानचित्र 5.8 में दिखाया गया है । भारत में प्रतिवर्ष लगभग 6000 मिलियन टन उपजाऊ मिट्टी अपरदित हो जाती है । मृदा अपरदन का प्रभाव केवल उन स्थानों पर नहीं होता जहाँ पर वह निक्षेपित होती है । इस महत्वपूर्ण संसाधन को सुरक्षित करने के लिये अनिवार्य कदम उठाने की आवश्यकता है ।
मृदा संरक्षण (Soil Conservation):
मृदा संरक्षण के लिये निम्न उपाय बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:
1. वृक्षारोपण- वृक्षारोपण मृदा अपरदन में कमी लाता है । वृक्ष न केवल मृदा की ऊपरी उर्वर परत को जल द्वारा बहाये जाने अथवा हवा द्वारा उड़ाये जाने से रोकते हैं, बल्कि वे जल के रिसाव की बेहतर व्यवस्था करके मृदा में नमी और जल-स्तर (Water Label) को भी बनाये रखने में सहायक होते हैं ।
2. वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध- वृक्षारोपण के अतिरिक्त वृक्षों की निर्बाध कटाई को नियंत्रित करने की आवश्यकता है । चिपको आन्दोलन जैसे जग-जागरूकता अभियानों द्वारा वृक्ष एवं वनों के महत्व को प्रचारित एवं प्रसारित किए जाने की आवश्यकता है ।
3. समोच्च जुताई और सीढ़ीनुमा खेत बनाकर ढलानों पर खेती करना ।
4. बाढ़ नियन्त्रण- भारत में मृदा अपरदन का बाढ़ से काफी नजदीकी सम्बंध है । बाढ़ प्राय: वर्षा काल में ही आती है । अत: वर्षा काल के जल को संगृहीत करने से अतिरिक्त जल-निकासी, काफी उपयोगी हो सकता है ।
5. नदियों द्वारा अपरदन (Gully Erosion)- अवनालिकाओं तथा रेवाइन (Ravine) का उद्धार (Reclamation) मृदा अपरदन की समस्या के निदान के लिए एक आवश्यक कार्य है । चम्बल नदी की इस प्रकार की बीहड़ भूमि को फिर से कृषि योग्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है ।
6. स्थानान्तरी कृषि पर प्रतिबंध- भारत के उत्तर-पूर्व के पर्वतीय राज्यों में बहुत-से किसान वनों को जलाकर खेती करते हैं, जिससे वन सम्पदा को भारी हानि होती है ।
7. परती भूमि को कृषि के अंतर्गत लाया जाये ।
8. लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं को फिर से उपयोगी बनाया जाये ।
9. नहरों, नदियों तथा सागर के तटों को कटने से रोकने के लिए विशेष उपाय किये जाये ।
10. जैविक खाद का कृषि में अधिक उपयोग किया जाये । गोबर एवं हरित खाद को लोकप्रिय बनाया जाये ।
11. वैज्ञानिक फसल चक्र अपनाया जाये ।
12. सतत् कृषि की तकनीक को अपनाया जाए ।
मृदा प्रदूषण: कारण और नियंत्रण | Soil Pollution: Causes and Control
मृदा प्रदूषण का अर्थ एवं कारण (Meaning and Causes of Soil Pollution):
मृदा की गुणवत्ता में प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से कमी आने को मृदा प्रदूषण कहा जाता है । मृदा पृथ्वी की ऊपरी सतह पर फैला ऐसा संसाधन है जिसमें जैविक एवं अजैविक पदार्थों का मिश्रण पाया जाता है ।
मृदा की उर्वरकता के ह्रास के निम्न कारण हैं:
(i) भौतिक प्रक्रिया:
मृदा अपरदन, उसकी उर्वरकता कम होने का एक प्रमुख कारण है मृदा अपरदन की मात्रा एवं विस्तार, बहुत हद तक वर्षा की मात्रा, तापमान, भूमि के ढलान, वायु की गति तथा प्राकृतिक वनस्पति पर निर्भर करता है । जंगलों को काटने से मृदा अपरदन की मात्रा में वृद्धि हो जाती है ।
(ii) जैविक प्रक्रिया (Biological Processes):
सूक्ष्म जैव के दो प्रकार के होते हैं एक तो ऐसे हैं जिनसे उर्वरकता बढ़ती है तथा दूसरे ऐसी प्रकार के होते है जिनसे उपजाऊपन में कमी आती है । यदि मृदा में ह्रास करने वाले सूक्ष्म जैविकों की बहुतायात हो जाये तो उससे उपजाऊपन में कमी आ जाती है ।
(iii) वायु आधारित स्रोत (Air-Borne Sources):
धुएँ से वायुमंडल में बहुत-से हानिकारक तत्व प्रवेश कर जाते हैं । वायु से बहुत-से वैषिक पदार्थ खेतों में गिरते हैं जिससे मिट्टी की उर्वरकता कम हो जाती है ।
(iv) रासायनिक खाद एवं कीटाणुनाशक दवाइयों का प्रयोग (Chemical Fertilizers and Insecticides):
कृषि की फसलों में रासायनिक खाद तथा कीटाणुनाशक दवाइयों का इस्तेमाल करने से बहुत-से उपयोगी सूक्ष्म-जैव नष्ट हो जाते हैं, जिससे मृदा के उपजाऊपन का ह्रास हो जाता है ।
(v) औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट (Industrial and Urban Waste):
औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट के ठीक तौर पर प्रबंधन करने से भी मृदा प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो जाती है ।
मृदा प्रदूषण के परिणाम (Consequences of Soil Pollution):
मानव जीवन एवं टिकाऊ विकास के लिये मृदा का स्वस्थ अवस्था में रहना अनिवार्य है । यदि मृदा प्रदूषित हो जाए तो उसके बहुत से दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं ।
कुछ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रतिकूल प्रभाव निम्न प्रकार हैं:
(i) कृषि क्षेत्रफल में कमी हो जाएगी ।
(ii) नाइट्रोजन स्थिरीकरण में कमी ।
(iii) मृदा अपरदन में वृद्धि ।
(iv) लवणता में वृद्धि ।
(v) रासायनिक पदार्थ एवं कीटनाशक दवाइयाँ जिनका उपयोग फसलों को उगाने में किया गया है वह आहार श्रृंखला के द्वारा मानव एवं पशु-पक्षियों के शरीर में प्रवेश कर जाता है जिसके कारण बहुत-सी बीमारियाँ फैलती हैं तथा उनकी मृत्यु हो जाती है । एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष लगभग सात लाख व्यक्तियों की मौत रासायनिक खाद तथा कीटाणुनाशक दवाइयों के फसलों में इस्तेमाल के कारण हो जाती है ।
(vi) टंकी, झीलों तथा पोखरों का निक्षेपण ।
(vii) प्रदूषित गैसों का उत्सर्जन ।
(viii) जैव विविधता में कमी ।
(ix) नालियों का बंद होना ।
(x) अप्रिय गंध ।
मृदा प्रदूषण नियत्रंण (Control of Soil Pollution):
मृदा प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये निम्न उपाय बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:
(i) मृदा अपरदन को नियंत्रित करना ताकि कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।
(ii) गोबर की खाद तथा हरी खाद का फसलों में अधिक उपयोग करना ।
(iii) वैज्ञानिक फसल चक्र से कृषि करना अर्थात् मृदा उत्पादकता कम करने वाली फसलों के पश्चात्, दलहन की फसलें उगाना ताकि मृदा की उर्वरकता बढ़ाई जा सके ।
(iv) औद्योगिक एवं नगरीय कूड़ा-करकट का उचित प्रबंधन करना ।
(v) किसानों को उचित भूमि उपयोग के लिये शिक्षित करना ।
(vi) वृक्षारोपण ।
(vii) चराई पर नियंत्रण करना ।
(viii) कहा-करकट कम करना ।
(ix) संसाधनों का पुनर्ठपयोग व पुनर्चक्रण ।
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