इकाई V
अध्याय 9
भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में चयनित कुछ मुद्दे एवं समस्याएँ
पर्यावरण प्रदूषण
पर्यावरण प्रदूषण मानवीय क्रियाकलापों के अपशिष्ट उत्पादों से मुक्त द्रव्य एवं ऊर्जा का परिणाम है| प्रदूषण के अनेक प्रकार हैं| प्रदूषकों के परिवहित एवं विसरित होने के माध्यम के आधार पर प्रदूषण को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है– (i) जल प्रदूषण, (ii) वायु प्रदूषण, (iii) भू-प्रदूषण, (iv) ध्वनि प्रदूषण|
चित्र 12.1 : बहि:स्राव को काटते हुए : नई दिल्ली से संलग्न अति प्रदूषित यमुना नदी पर झाग (फोम) की व्यापक पर्त के बीच नौका चालन
जल प्रदूषण
बढ़ती हुई जनसंख्या और औद्योगिक विस्तारण के कारण जल के अविवेकपूर्ण उपयोग से जल की गुणवत्ता का बहुत अधिक निम्नीकरण हुआ है| नदियों, नहरों, झीलों तथा तालाबों आदि में उपलब्ध जल शुद्ध नहीं रह गया है| इसमें अल्प मात्रा में निलंबित कण, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ समाहित होते हैं| जब जल में इन पदार्थों की सांद्रता बढ़ जाती है तो जल प्रदूषित हो जाता है और इस तरह वह उपयोग के योग्य नहीं रह जाता| एेसी स्थिति में जल में स्वत: शुद्धीकरण की क्षमता जल को शुद्ध नहीं कर पाती|
यद्यपि, जल प्रदूषण प्राकृतिक स्रोतों (अपरदन, भू-स्खलन और पेड़-पौधों तथा मृत पशु के सड़ने-गलने आदि) से प्राप्त प्रदूषकों से भी होता है, तथापि मानव क्रियाकलापों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषक चिंता के वास्तविक कारण हैं| मानव, जल को उद्योगों, कृषि एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम से प्रदूषित करता है| इन क्रियाकलापों में उद्योग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सहायक है|
तालिका 12.1 : प्रदूषण के प्रकार एवं स्रोत
उत्पादन प्रक्रिया में, उद्योग अनेक अवांछित उत्पाद पैदा करते हैं जिनमें औद्योगिक कचरा, प्रदूषित अपशिष्ट जल, ज़हरीली गैसें, रासायनिक अवशेष, अनेक भारी धातुएँ, धूल, धुआँ आदि शामिल होता है| अधिकतर औद्योगिक कचरे को बहते जल में अथवा झीलों आदि में विसर्जित कर दिया जाता है| परिणामस्वरूप विषाक्त रासायनिक तत्व जलाशयों, नदियों तथा अन्य जल भंडारों में पहुँच जाते हैं जो इन जलों में रहने वाली जैव प्रणाली को नष्ट करते हैं| सर्वाधिक जल प्रदूषक उद्योग-चमड़ा, लुगदी व कागज़, वस्त्र तथा रसायन हैं|
आधुनिक कृषि में विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थों का उपयोग होता है जैसे कि अकार्बनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि भी प्रदूषण उत्पादन करने वाले घटक हैं| इन रसायनों को नदियों, झीलों तथा तलाबों में बहा दिया जाता है| यह सभी रसायन जल के माध्यम में ज़मीन में स्रवित होते हुए भू-जल तक पहुँच जाते हैं| उर्वरक धरातलीय जल में नाइट्रेट की मात्रा को बढ़ा देते हैं| भारत में तीर्थ यात्राओं, धार्मिक मेले व पर्यटन आदि जैसी सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी जल प्रदूषण का कारण हैं| भारत में, धरातलीय जल के लगभग सभी स्रोत संदूषित हो चुके हैं और मानव के उपयोग के योग्य नहीं है|
जल प्रदूषण विभिन्न प्रकार की जल जनित बीमारियों का एक प्रमुख स्रोत होता है| संदूषित जल के उपयोग के कारण प्राय: दस्त (डायरिया), आँतों के कृमि, हेपेटाइटिस जैसी बीमारियाँ होती हैं| विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में लगभग एक-चौथाई संचारी रोग जल-जनित होते हैं|
यद्यपि नदी प्रदूषण सभी नदियों से संबंधित है, लेकिन गंगा नदी जो भारत के घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से होकर बहती है, का प्रदूषण सभी के लिए चिंता का विषय है| गंगा नदी की स्थिति में सुधार के लिए, राष्ट्रीय स्तर पर गंगा सफ़ाई राष्ट्रीय अभियान शुरू किया गया था| वर्तमान ‘नमामि गंगे’ कार्यक्रम इसी से संबंधित है|
वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण को धूल, धुआँ, गैसें, कुहासा, दुर्गंध और वाष्प जैसे संदूषकों की वायु में अभिवृद्धि व उस अवधि के रूप में लिया जाता है जो मनुष्यों, जंतुओं और संपत्ति के लिए हानिकारक होते हैं| ऊर्जा के स्रोत के रूप में विभिन्न प्रकार के ईंधनों के प्रयोग में वृद्धि के साथ, पर्यावरण में विषाक्त धुएँ वाली गैसों के उत्सर्जन के परिणामस्वरूप वायु प्रदूषित होती है| जीवाश्म ईंधन का दहन, खनन और उद्योग वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं| ये प्रक्रियाएँ वायु में सल्फर एवं नाइट्रोजन के अॉक्साइड, हाइड्रोकार्बन, कार्बन डाइअॉक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, सीसा तथा एस्बेस्टास को निर्मुक्त करते हैं|
वायु प्रदूषण के कारण श्वसन तंत्रीय, तंत्रिका तंत्रीय तथा रक्त संचारतंत्र संबंधी विभिन्न बीमारियाँ होती हैं|
नगरों के ऊपर कुहरा जिसे शहरी धूम्र कुहरा कहा जाता है, वस्तुत: वायुमंडलीय प्रदूषण के कारण होता है| यह मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होता है| वायु प्रदूषण के कारण अम्ल वर्षा भी हो सकती है| नगरीय पर्यावरण का वर्षा जल विश्लेषण इंगित करता है कि गर्मियों के पश्चात् पहली बरसात में पी.एच. का स्तर उत्तरवर्ती बरसातों से सदैव कम होता है|
ध्वनि प्रदूषण
विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न ध्वनि का मानव की सहनीय सीमा से अधिक तथा असहज होना ही ध्वनि प्रदूषण है| विभिन्न प्रकार के प्रौद्योगिकीय अन्वेषणों के चलते, हाल ही के वर्षों से यह एक गंभीर समस्या बनकर उभरा है|
चित्र 12.2 : पंचपटमलाई बॉक्साइट खान में ध्वनि प्रदूषण की जाँच
ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख स्रोत विविध उद्योग, मशीनीकृत निर्माण तथा तोड़-फोड़ कार्य, तीव्रचालित मोटर-वाहन और वायुयान इत्यादि हैं| इनमें सायरन, लाउडस्पीकर, फेरी वाले तथा सामुदायिक गतिविधियों से जुड़े विभिन्न उत्सव संबंधी कार्यों से होने वाली आवधिक किंतु प्रदूषण करने वाले शोर को भी जोड़ा जा सकता है| सुस्थिर शोर के स्तर को डेसीबल के संदर्भ में ध्वनि स्तर के द्वारा मापा जाता है|
ध्वनि प्रदूषण के सभी स्रोतों में से यातायात द्वारा पैदा किया गया शोर सबसे बड़ा क्लेश है| इसकी तीव्रता और प्रकृति इन घटकों पर निर्भर करता है जैसे कि वायुयान/वाहन/रेलगाड़ी के प्रकार, उन सड़कों की दशा तथा साथ-ही-साथ वाहन की स्थिति (आटोमोबाइल के संदर्भ में जैसे कारकों पर निर्भर करती है|) समुद्री यातायात में शोर की तीव्रता माल को चढ़ाने व उतारने का निपटान करने वाले पत्तन तक अधिक सीमित रहती है| उद्योग भी ध्वनि प्रदूषण का कारण है जिसमें उद्योग के आधार पर तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है|
ध्वनि प्रदूषण स्थान विशिष्ट होता है तथा इसकी तीव्रता प्रदूषण के स्रोत जैसे कि औद्योगिक क्षेत्र, परिवहन मार्ग, हवाई अड्डे इत्यादि मुख्यमार्ग से दूर कम होती जाती है| भारत के कई बड़े शहरों एवं महानगरों में ध्वनि प्रदूषण बहुत खतरनाक है|
नगरीय अपशिष्ट निपटान
नगरीय क्षेत्रों को प्राय: अति संकुल, भीड़-भाड़ तथा तीव्र बढ़ती जनंसख्या के लिए अपर्याप्त सुविधाएँ और उसके परिणामस्वरूप साफ़-सफ़ाई की खराब स्थिति एवं प्रदूषित वायु के रूप में पहचाना जाता है| ठोस अपशिष्टों (कचरे) के द्वारा होने वाला पर्यावरण प्रदूषण काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो चुका है क्योंकि विभिन्न स्रोतों द्वारा जनित अपशिष्ट की मात्रा बहुत अधिक होती जा रही है| ठोस कचरे की अंतर्गत विभिन्न प्रकार के पुराने एवं प्रयुक्त सामग्रियाँ शामिल की जाती हैं जैसे कि जंग लगी पिनें, टूटे काँच के समान, प्लास्टिक के डिब्बे, पोलीथिन की थैलियाँ, रद्दी कागज़, राख, फ्लॉपियाँ, सी डी आदि का भिन्न-भिन्न स्थानों पर लगाया जाता है| इस त्यागे गए समान को कूड़ा-करकट, रद्दी, गंदगी एवं कबाड़ आदि कहते हैं जिनका दो स्रोतों से निपटान होता है- (i) घरेलू प्रतिष्ठानों से और (ii) व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से| घरेलू कचरे को या तो सार्वजनिक भूमि पर या निजी ठेकेदारों के स्थलों पर डाला जाता है जबकि औद्योगिक/व्यावसायिक इकाइयों के कचरा का संग्रहण एवं निपटान जन सुविधाओं (नगरपालिकाओं) के द्वारा निचली सतह की सार्वजनिक ज़मीन (गड्ढों) पर निस्तारित किया जाता है| कारखानों, विद्युत गृहों तथा भवन निर्माण या विध्वंस से भारी मात्रा में निकली राख या मलबे के परिणामस्वरूप गंभीर समस्याएँ पैदा
दौराला में पारिस्थितिकी के पुनर्भरण और मानव स्वास्थ्य के सुरक्षण का एक अनुकरणीय उदाहरण : केस अध्ययन
‘प्रदूषक भोगता है’ के वैश्विक नियम के आधार पर मेरठ के निकट दौराला में लोगों की प्रतिभागिता के सहारे पारिस्थितिकी के पुनर्भरण और मानव स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए प्रयास किया गया है| मेरठ के एक गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) द्वारा पारिस्थितिकी पुनर्भरण के एक मॉडल की रचना के तीन वर्ष बाद परिणाम आने आरंभ हो गए| दौराला स्थित उद्योगों के पदाधिकारियों, गैर-सरकारी संगठनों, सरकारी अधिकारियों और अन्य पणधारियों की मेरठ में हुई मीटिंग में परिणाम सामने आए| लोगों के शक्तिशाली तर्कों, प्रामाणिक अध्ययनों और दबाव ने इस गाँव के 12,000 निवासियों को एक नया जीवन दान दिया है| यह सन् 2003 की बात है जब दौरालावासियों की दयनीय दशा ने एक जनहित सभा (सिविल सोसायटी) का ध्यान आकृष्ट किया| 12,000 लोगों की जनसंख्या वाले इस गाँव का भू-जल भारी धातुओं के संपर्क से संदूषित हो चुका था| इसका कारण यह था कि दौराला के उद्योगों के अनुपचारित अपशिष्ट जल का भू-जल स्तर में निक्षालन हो रहा था| एन.जी.ओ. के कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर लोगों के स्वास्थ्य-स्तर संबंधी सर्वेक्षण किया और एक रिपोर्ट बनाई| उस संगठन, ग्रामीण समुदाय और जन-प्रतिनिधियों ने आपस में बैठकर इन समस्याओं के टिकाऊ समाधान ढूँढ़ने का प्रयास किया| उद्योगपतियों ने पारिस्थितिकी की गिरती दशा को नियंत्रित करने में गहरी रुचि दिखाई| गाँव की उपरली टंकी (over hand tank)की क्षमता बढ़ाई गई और समुदाय को पीने योग्य जल उपलब्ध कराने के लिए 900 मीटर की अतिरिक्त पाइपलाइन बिछाई गई| गाँव के गाद-युक्त तालाब को साफ़ किया गया और इसे गाद-विमुक्त करके पुन: जल से भर दिया गया| बड़ी मात्रा में गाद को हटाकर अधिक मात्रा में जल का मार्ग प्रशस्त किया गया तथा जलभृतों में जल पुन: भरा जाए| जगह-जगह वर्षा-जल संग्रहण की संरचनाएँ बनाई गई| जिनसे मानसून के पश्चात भू-जल के संदूषण में कमी आई| एक हज़ार वृक्षों की लगाए गए जिनसे पर्यावरण का संवर्धन हुआ|
हो गई हैं| ठोस अपशिष्ट से अप्रिय बदबू, मक्खियों एवं कृतकों (जैसे चूहे) से स्वास्थ्य संबंधी जोखिम पैदा हो जाते हैं जैसे टाइफाइड (मियादी बुखार), गलघोटूँ (डिप्थीरिया), दस्त तथा हैजा (कॉलरा) आदि| इसके साथ ही यह कूड़ा-कचरा अक्सर क्लेश पैदा करते हैं जब कभी भी इनका लापरवाही से निपटान किया जाता है तो यह हवा से फैलने एवं बरसाती पानी से छितरने के कारण परेशानी का कारण बनता है|
नगरीय क्षेत्रों के आसपास औद्योगिक इकाइयों के संकेंद्रण से भी औद्योगिक अपशिष्टों में वृद्धि होती है| औद्योगिक कचरे को नदियों में डालने से जल प्रदूषण की समस्या होती है| नगर आधारित उद्योगों तथा अनुपचारित वाहित मल के कारण नदियों के प्रदूषण से अनुप्रवाह में स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएँ पैदा होती हैं|
भारत में नगरीय अपशिष्ट निपटान एक गंभीर समस्या है मुंबई, कोलकाता, चेन्नई व बेंगलूरु आदि महानगरों में ठोस अपशिष्ट के 90 प्रतिशत को एकत्रित करके उसका निपटान किया जाता है लेकिन देश के अन्य अधिकांश शहरों में, अपशिष्ट का 30 प्रतिशत से 50 प्रतिशत कचरा बिना एकत्र किए छोड़ दिया जाता| जो गलियों में, घरों के पीछे खुली जगहों पर तथा परती ज़मीनों पर इकट्ठा हो जाता है जिसके कारण स्वास्थ्य संबंधी गंभीर जोखिम पैदा हो जाते हैं| इन अपशिष्टों को संसाधन के रूप में उपचारित कर इनका ऊर्जा पैदा करने व कंपोस्ट (खाद) बनाने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए| अनुपचारित अपशिष्ट धीरे-धीरे सड़ते हैं और वातावरण में विषाक्त गैसें छोड़ते हैं जिनमें मिथेन गैस भी शामिल हैं|
हम क्या फेंकते हैं, और क्यों?
हमारा कचरा (अपशिष्ट) कहाँ जाकर समाप्त होता है?
रद्दी बीनने वाले बच्चे कचरे को क्यों खँगालते हैं| क्या इसका कुछ मूल्य होता है?
क्या हमारा नगरीय अपशिष्ट उपयोगी है?
चित्र 12.3 : माहिम मुंबई में नगरीय अपशिष्ट का एक दृश्य
ग्रामीण-शहरी प्रवास
वर्तमान समय में, विश्व की 6 अरब जनसंख्या में से 47 प्रतिशत जनसंख्या नगरों में रहती है और निकट भविष्य में इसमें और अधिक जुड़ जाएँगे| इस अनुपात का 2008 तक 50 प्रतिशत तक पहुँचने का अनुमान है| ये सरकारें दबाव बनाएँगी कि वे जीवन की वांछित गुणवत्ता के लिए ईष्टतम अवसंरचना के साथ नगरीय क्षेत्रों को जीने के लिए बेहतर स्थान बनाएँ|
2050 तक, विश्व की अनुमानित दो-तिहाई जनसंख्या नगरों में रह रही होगी जो क्षेत्र की अवसंरचना और नगरों के संसाधनों पर और अधिक दबाव डालेगी| यह दबाव स्वच्छता, स्वास्थ्य, आपराधिक समस्याओं तथा नगरीय गरीबी के रूप में व्यक्त होगा|
नगरीय जनसंख्या में वृद्धि एक प्राकृतिक वृद्धि के परिणामस्वरूप (जब मृत्यु दर की अपेक्षा वृद्धि दर अधिक हो), निवल अप्रवास (जहाँ बाहर जाने वालों की अपेक्षा आने वाले अधिक हो) और कभी-कभी नगरीय क्षेत्रों का पुन: वर्गीकरण जिसमें आसपास की ग्रामीण जनसंख्या को शामिल कर लिया जाता है, के कारण बढ़ती है| भारत में एक अनुमान के अनुसार 1961 के बाद शहरी क्षेत्रों की जनसंख्या में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई और इसमें से 29 प्रतिशत जनसंख्या ने ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवास किया|
ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर जनसंख्या प्रवाह अनेक कारकों से प्रभावित होता है जैसे कि नगरीय क्षेत्रों में मज़दूरों की अधिक माँग, ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के निम्न अवसर तथा नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच विकास का असंतुलित प्रारूप आदि हैं|
भारत में, नगरों की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही है| चूँकि छोटे एवं मध्यम नगरों में रोज़गार के कम अवसर उपलब्ध होते हैं, गरीब लोग सामान्यत: अपनी आजीविका के लिए इन शहरों को छोड़कर सीधे महानगरों में पहुँचते हैं|
इस विषय पर बेहतर समझ बनाने हेतु नीचे एक अध्ययन दिया गया है| इसे ध्यानपूर्वक पढ़ें और ग्रामीण-नगरीय प्रवास की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें|
केस अध्ययन
रमेश अनुबंध के आधार पर तलचर (उड़ीसा का कोयला क्षेत्र) में निर्माण स्थल पर पिछले दो वर्षों से एक वेल्डर के रूप में कार्य कर रहा है| वह अपने ठेकेदार के साथ-साथ देश-भर में विभिन्न जगहों, जैसे कि सूरत, मुंबई, गांधीनगर, भरूँच, जामनगर आदि नगरों में जाता है| वह प्रतिवर्ष अपने पैतृक गाँव में पिता के पास रु. 20,000 भेजता है| उसके द्वारा भेजे गए पैसे मुख्यत: दैनिक उपभोग, स्वास्थ्य की देखभाल, बच्चों की पढ़ाई आदि पर खर्च होता है| कुछ पैसे कृषि, ज़मीन की खरीद तथा घरों के निर्माण पर भी खर्च होता है| रमेश के परिवार के रहन-सहन का स्तर सार्थक रूप से सुधरा है|
15 वर्ष पहले, हालात एेसे नहीं थे| परिवार बहुत ही कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा था| उसके तीन भाई और उनके परिवार तीन एकड़ भूमि पर निर्भर थे| परिवार बुरी तरह से कर्ज़ में डूबा हुआ था| रमेश को अपनी पढ़ाई नवीं कक्षा में ही छोड़नी पड़ी| शादी के बाद तो वह और भी कठिन परिस्थितियों में घिर गया|
इसी समय, रमेश अपने गाँव के कुछ सफल उत्प्रवासियों से प्रभावित हुआ, जो लुधियाना में काम कर रहे थे और गाँव में अपने परिवारों को पैसे और उपभोक्ता वस्तुएँ भेज कर पाल-पोस रहे थे| इस तरह परिवार की कंगाली और लुधियाना में नौकरी का भरोसा पाकर वह अपने मित्र के साथ पंजाब चला आया| उसने 1988 में लुधियाना की एक ऊन फैक्टरी में रु. 20 प्रतिदिन की मज़दूरी पर 6 माह तक काम किया| अपनी इस अल्प आय में वैयक्तिक खर्चों का इंतज़ाम कर पाने की मुश्किल के साथ-साथ, उसे नई संस्कृति और पर्यावरण के साथ स्वयं को अनुकूलित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा| इसके बाद उसने अपने दोस्त के मार्गदर्शन पर लुधियाना से सूरत (गुजरात) में काम करने का निर्णय लिया| सूरत में उसने वेल्डिंग के कार्य करने का कौशल सीखा और इसके बाद वह उसी ठेकेदार के साथ अलग-अलग जगहों पर जाता रहता है| हालाँकि रमेश के गाँव में उसकी परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरी है, परंतु उसे अपने से दूर रहने की पीड़ा झेलनी पड़ती है| वह अपनी पत्नी एवं बच्चों को अपने साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि उसकी नौकरी अस्थायी और स्थानांतरणीय है|
टिप्पणी
विकासशील देशों में, रमेश जैसे गरीब, अर्धशिक्षित एवं अकुशल श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों से प्राय: शहरी क्षेत्रों के असंगठित एवं अनौपचारिक क्षेत्रों के छोटे मोटे धंधे परिवार का पोषण करने के लिए प्रवास करते रहते हैं| चूँकि गंतव्य स्थान पर मज़दूरी काफ़ी कम होती है, इसलिए पत्नियों को गाँव में बच्चों और बड़ों की देखभाल के लिए छोड़ दिया जाता है| इसी कारण ग्रामीण-नगरीय प्रवास में पुरुषों का प्रभुत्व होता है|
गंदी बस्तियों की समस्याएँ
‘नगरीय या नगरीय केंद्र’ की अवधारणा को ग्रामीण से विभेदित करने के लिए आवासीय भूगोल में परिभाषित किया गया है जिसके बारे में आप पहले ही इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में पढ़ चुके हैं| ‘मानव भूगोल के सिद्धांत’ नामक पुस्तक में पढ़ चुके हैं कि इस अवधारणा को विभिन्न देशों में अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है|
नगरीय एवं अनगरीय बस्तियाँ अपने प्राकार्यों में भिन्न होती हैं और कई बार वे दूसरे के पूरक होती हैं| इन सबके बावजूद ये नगरीय और ग्रामीण क्षेत्र दो भिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं प्रौद्योगिक वातावरण में विकसित हुई हैं|
भारत, जिसमें ग्रामीण जनसंख्या अधिक है और (इसकी 2011 में लगभग 69% जनसंख्या ग्रामीण है) जहाँ गाँवों को महात्मा गांधी ने आदर्श गणतंत्र माना था, वहाँ अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र अभी भी गरीब हैं और प्राथमिक क्रियाकलापों में संलग्न हैं| यहाँ पर अधिकतर ग्राम प्रमुख नगरीय क्रोड के पृष्ठप्रदेश की रचना करते हुए इनके परिशिष्ट के रूप में विद्यमान हैं|
इससे एेसा लगता है कि नगरीय केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों के विपरीत अभेदीकृत एवं एकरूप इकाइयाँ हैं| इसके विपरीत, भारत में नगरीय केंद्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक एवं विकास के अन्य संकेतकों के किसी अन्य क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक विविधतापूर्ण हैं| सबसे भी ऊपर फार्म हाउस तथा उच्च आय वर्ग की बस्तियाँ हैं जिनमें चौड़ी सड़कें, स्ट्रीट लाइट, जल एवं स्वच्छता सुविधाओं, पार्कों-उपवनों तथा सुविकसित हरित-पट्टियों, खेल के मैदानों एवं वैयक्तिक सुरक्षा के प्रावधान तथा वैयक्तिता के अधिकार के रूप में सुविकसित नगरीय अवसंरचना है| दूसरे छोर पर झुग्गी-बस्तियाँ, गंदी बस्तियाँ, झोपडपट्टी तथा पटरियों के किनारे बने ढाँचे खड़े हैं| इनमें वे लोग रहते हैं जिन्हें ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों में आजीविका की खोज में प्रवासित होने के लिए विवश होना पड़ा या वे ऊँचे किराए और ज़मीन की महँगी कीमत के कारण पर अच्छे आवासों में नहीं रह पाते| वे लोग पर्यावरण की दृष्टि से बेमेल और निम्नीकृत क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर रहते हैं| गंदी बस्तियाँ न्यूनतम वांछित आवासीय क्षेत्र होते हैं जहाँ जीर्ण-शीर्ण मकान, स्वास्थ्य की निम्न सुविधाएँ, खुली हवा का अभाव तथा पेयजल, प्रकाश तथा शौच सुविधाओं जैसी आधारभूत आवश्यक चीज़ों का अभाव पाया जाता है| खुले में शौच, अनियमित जल निकासी व्यवस्था, भीड़-भरी संकरी सड़कें, स्वास्थ्य तथा सामाजिक समस्याएँ हैं|
स्वच्छ भारत मिशन शहरों के नवीकरण का एक हिस्सा है जिसे भारत सरकार ने शहरी गंदी बस्तियों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए शुरू किया है|
इसके अतिरिक्त गंदी बस्तियों की अधिकांश जनसंख्या नगरीय अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में कम वेतन और अधिक जोखिम भरा कार्य करते हैं| परिणामस्वरूप ये लोग अल्प-पोषित होते हैं और इन्हें विभिन्न रोगों और बीमारियों की संभावना बनी रहती है| ये लोग अपने बच्चों के लिए उचित शिक्षा का खर्च भी वहन नहीं कर सकते| गरीबी उन्हें नशीली दवाओं, शराब, अपराध, गुंडागर्दी, पलायन, उदासीनता और अंतत: सामाजिक बहिष्कार के प्रति उन्मुख करती है|
गंदी बस्तियों के निवासियों के बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित क्यों रह जाते हैं?
भू-निम्नीकरण
कृषि योग्य भूमि पर दबाव का कारण केवल सीमित उपलब्धता ही नहीं, वरन इसकी गुणवत्ता में कमी भी इसका कारण है| मृदा अपरदन, लवणता (जलाक्रांतता) तथा भू-क्षारता से भू-निम्नीकरण होता है| भू-उर्वरकता के अप्रबंधन के साथ इसका अविरल उपयोग होने पर क्या स्थिति होगी? भू-निम्नीकरण होगा तथा उत्पादकता में कमी आएगी| भू-निम्नीकरण का अभिप्राय स्थायी या अस्थायी तौर पर भूमि की उत्पादकता की कमी है|
यद्यपि सभी निम्नकोटि भूमियाँ व्यर्थ भूमि नहीं हैं, लेकिन अनियंत्रित प्रक्रियाएँ इसे व्यर्थ भूमि में परिवर्तित कर देती हैं|
भूनिम्नीकरण दो प्रकियाओं द्वारा तीव्रता से होता है| ये प्रक्रियाएँ प्राकृतिक तथा मानवजनित हैं| भारतीय दूर-संवेदन संस्थान ने व्यर्थ भूमि को दूर-संवेदन तकनीक की सहायता से सीमांकित किया है और इन प्रक्रियाओं के आधार पर इनको वर्गीकृत किया जा सकता है| जैसे– प्राकृतिक खड्ड, मरुस्थलीय या तटीय रेतीली भूमि, बंजर चट्टानी क्षेत्र, तीव्र ढाल वाली भूमि तथा हिमानी क्षेत्र| ये मुख्यत: प्राकृतिक कारकों द्वारा घटित हुई हैं| प्राकृतिक तथा मानवजनित प्रक्रियाओं से निम्नकोटि भूमियों में जलाक्रांत व दलदली क्षेत्र, लवणता व क्षारता से प्रभावित भूमियाँ; झाड़ी सहित व झाड़ियों रहित भूमियाँ आदि सम्मिलित हैं| कुछ अन्य निम्नकोटि भूमियाँ भी हैं जैसे– स्थानांतरित कृषि जनित क्षेत्र, रोपण कृषि जनित, क्षरित वन, क्षरित चरागाह तथा खनन व औद्योगिक व्यर्थ क्षेत्र जो मानवीय प्रक्रियाओं से कृषि के अयोग्य हुई हैं| तालिका 12.3 से यह प्रदर्शित है कि प्राकृतिक प्रक्रियाओं की अपेक्षा मानवीय प्रक्रियाओं द्वारा अधिक व्यर्थ भूमि का विस्तार हुआ है|
केस अध्ययन
झबुआ ज़िला मध्य प्रदेश के अति पश्चिमी कृषि जलवायु क्षेत्र में अवस्थित है| यह वास्तव में हमारे देश के सर्वाधिक पाँच पिछड़े ज़िलों में से एक है| जनजातीय जनसंख्या विशेषत: भील का उच्च सांद्रण इसकी विशेषता है| लोग गरीबी के कारण कष्ट झेल रहे हैं, और यह गरीबी जंगल एवं भूमि दोनों संसाधनों के उच्च दर से निम्नीकरण के कारण प्रबलित हो गई है| यहाँ भारत सरकार के ‘ग्रामीण विकास’ तथा ‘कृषि मंत्रालय’ दोनों ही से जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम फंड अनुदानित हैं, जिन्हें झबुआ ज़िले में सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया गया है| यह निम्नीकरण को रोकने तथा भूमि की गुणवत्ता को सुधारने में सफल सिद्ध होगा| जल संभरण प्रबंधन कार्यक्रम भूमि, जल तथा वनस्पतियों के बीच संबद्धता को पहचानता है और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन एवं सामुदायिक सहभागिता से लोगों के आजीविका को सुधारने का प्रयास करता है| पिछले पाँच वर्षों में, ग्रामीण विकास मंत्रालय से निधि प्राप्त राजीव गांधी मिशन द्वारा क्रियांवित जल संभरण प्रबंधन ने अकेले झबुआ ज़िले की लगभग 20 प्रतिशत भूमि का उपचार किया है|
झबुआ ज़िले का पेटलावाड विकास खंड, ज़िले के सर्वाधिक उत्तरी छोर पर स्थित है तथा सरकार एवं गैर सरकारी संगठनों की साझेदारी तथा जल संभरण प्रबंधन हेतु समुदाय की प्रतिभागिता का सफल और रोचक प्रकरण प्रस्तुत करता है| पेटलावाड विकास खंड के भील (कारावट गाँव के सतरूंडी बस्ती) समुदाय ने अपना स्वयं का प्रयास करके विस्तृत भागों की साझी संपदा संसाधनों को पुनर्जीवित किया है| प्रत्येक परिवार ने साझी संपदा में एक पेड़ लगाया और उसे अनुरक्षित किया| इसके साथ ही प्रत्येक परिवार ने चरागाह भूमि पर चारा घास को बोया और कम से कम दो वर्षों तक उसकी सामाजिक घेराबंदी इसके बाद भी, उनका कहना था, इन ज़मीनों पर कोई खुली चराई नहीं होगी और पशुओं की आहार पूर्ति हेतु नाँद बनाए जाएँगे और इस प्रकार से उन्हें यकीन था कि जो चरागाह उन्होंने विकसित किए हैं, वे भविष्य में उनके पशुओं का सतत पोषण करते रहेंगे|
इस अनुभव का एक रोचक पक्ष यह है कि समुदाय इस चरागाह प्रबंधन प्रक्रिया की शुरुआत करते कि इससे पहले ही पड़ोसी गाँव के एक निवासी ने उस पर अतिक्रमण कर लिया| गाँव वालों ने तहसीलदार को बुलाया और साझी ज़मीन पर अपने अधिकारों को सुनिश्चित कराया| इस अनुवर्ती संघर्ष को गाँववालों द्वारा सुलझाया गया जिसके लिए उन्होंने साझी चरागाह भूमि पर अतिक्रमण करने वाले दोषी को अपने प्रयोक्ता समूह का सदस्य बनाकर उसे साझी चरागाह भूमि की हरियाली से लाभांश देना आरंभ किया| (साझी संपदा संसाधन के बारे में ‘भूमि-संसाधन एवं कृषि’ वाले अध्याय को देखें|)
नमामि गंगे कार्यक्रम
एक नदी के रूप में गंगा का राष्ट्रीय महत्व है, लेकिन प्रदूषण को नियंत्रित करके नदी के संपूर्ण मार्ग की सफ़ाई की आवश्यकता है| केंद्र सरकार ने निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ ‘नमामि गंगे’ कार्यक्रम आरंभ किया है -
• शहरों में सीवर ट्रीटमेंट की व्यवस्था कराना|
• औद्योगिक प्रवाह की निगरानी|
• नदियों का विकास|
• नदी के किनारों पर वनीकरण जिससे जैवविविधता में वृद्धि हो|
• नदियों के तल की सफ़ाई|
• उत्तराखंड, यू.पी., बिहार, झारखंड में ‘गंगा ग्राम’ का विकास करना|
• नदी में किसी भी प्रकार के पदार्थों को न डालना भले ही वे
Smog in Mumbai
किसी अनुष्ठान से संबंधित हों, इससेे प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है| इसके संबंध में लोगों में जागरूकता पैदा करना|
क्या आपने कोई गंदी बस्ती देखी है? अपने शहर की किसी गंदी बस्ती में जाएँ और वहाँ रहने वाले लोगों की समस्याओं के बारे में लिखें|
धारावी - एशिया की विशालतम गंदी बस्ती (स्लम)
"बसें सिर्फ़ बस्ती की परिधि से गुज़रती हैं| अॉटो रिक्शा अपवादस्वरूप भी उसके अंदर नहीं जा सकते| धारावी केंद्रीय मुंबई का एक हिस्सा है जहाँ तिपहिया वाहनों का प्रवेश भी निषेध है|
इस गंदी बस्ती से केवल एक मुख्य सड़क गुज़रती है| इसे ‘नाइंटीफुट रोड’ के गलत नाम से जाना जाता है| जो अपनी चौड़ाई में घटकर आधे से कम रह गई है| कुछ एक गलियाँ एवं पगडंडियाँ इतनी सँकरी हैं कि वहाँ से एक साईकिल का गुज़रना भी मुश्किल है| समूची बस्ती अस्थायी निर्माण के भवन हैं जो कि दो से तीन मंज़िल ऊँची है तथा उनमें जंग लगी लोहे की सीढ़ियाँ ऊपर को जाती हैं जहाँ एक ही कमरे को किराए पर लेकर पूरा परिवार रहता है| कई बार तो यहाँ एक कमरे में 10-12 लोग रहते हुए देखे जा सकते हैं| यह एक प्रकार से विक्टोरिया लंदन के पूर्वी सिरे की औद्योगिक इकाइयों का उत्कट अनुवर्ती संस्करण जैसा है|
लेकिन धारावी बहुत ही निराशाजनक रहस्यों का पालक है, अपेक्षाकृत धनाढ्य मुंबई के निर्माण में इसकी भूमिका है| यहाँ पर छायारहित स्थान, वृक्षरहित, सूर्य की रोशनी (धूप), असंगृहीत कचरा, गंदे पानी के ठहरे हुए गड्ढे, जहाँ केवल अमानवीय प्राणी जैसे काले कौओं और लंबे भूरे चूहे के साथ-साथ कुछेक सर्वाधिक सुंदरतापूर्ण तथा भारत में निर्मित मूल्यवान एवं उपयोगी सामान बनाए जाते हैं| धारावी से मृत्तिका शिल्प (सेरेमिक्स), मिट्टी के बर्तन, कसीदाकारी एवं जरी का काम, परिष्कृत चमड़े का काम, उच्च फ़ैशन, वस्त्रादि, महीन पिरवाँ (रॉट), धातु (रॉटमैंटल) का कार्य, उत्कृष्ट आभूषण सेट, लकड़ी की पच्चीकारी तथा फ़र्नीचर आदि भारत एवं दुनिया भर के धनाढ्यों के घरों तक जाता है|
धारावी वस्तुत: सागर का एक हिस्सा है जोकि व्यापक रूप से कचरे से भरी गई जगह पर है जिसे (कचरा) मुख्यत: यहाँ पर रहने के लिए आने वाले लोगों द्वारा उत्पादित किया गया था जो अधिकतर अनुसूचित जाति और गरीब मुसलमान आदि थे| यहाँ नालीदार चादरों से बनी 20 मीटर ऊँची जगह/भवन इधर-उधर संबद्ध पड़ी हैं जिनमें खाल एवं चमड़ा शोधन के कार्य होते हैं| यहाँ पर खुशी का हिस्सा यह है कि सभी जगह कूड़ा-कचरा छितराया होता है|
(सीब्रूक, 1996, प्र. 50, 51-52)
चित्र 12.4 : साझी संपदा संसाधन पर वृक्षारोपण
स्रोत : मूल्यांकन रिपोर्ट, राजीव गांधी मिशन फॉर जलसंभर प्रबंधन, मध्य प्रदेश, 2002
चित्र 12.5 : झबुआ में साझी संपदा संसाधन की भूमि समतलीकरण में सामुदायिक प्रतिभागिता (ए एस ए 2004)